1972 के चुनाव और बाबा बिहारीदास

बस्तर केंद्रित; चुनाव श्रंखला (आलेख – 7)

lok sabha election 2024 : महाराजा का प्रभाव उनके देहावसान के दशकों बाद तक जारी रहा था। वर्ष 1966 में हुई महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या के बाद वर्ष 1967 का चुनाव कॉंग्रेस के लिए घातक रहा था और इस राष्ट्रीय दल को निर्दलियों ने लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में करारी पराजय दी थी। अब डूबती कॉंग्रेस को तिनके का सहारा चाहिए था। यह सहारा भी उन्हें महाराजा प्रवीर के नाम से ही प्राप्त होने जा रहा था। वर्ष -1971 में बाबा बिहारीदास अचानक कहीं से प्रकट हुए और उन्होंने स्वयं को महाराजा प्रवीर का अवतार घोषित कर दिया।

पहली कड़ी https://satatchhattisgarh.com/elections-between-two-systems/

किसी दिवंगत के न रहने के चार साल बाद ही अवतार सामने आ जाये यह बात गले के नीचे नहीं उतरती, लेकिन महाराजा के प्रति लोगों का लगाव ऐसा था कि वे किसी तर्क को मानने के लिए तैयार नहीं थे। बाबा बिहारी दास के प्रवीर होने के उसके दावे की पुष्टि खुसरू और बाली नाम के दो भतरा कार्यकर्ताओं ने की जो पहले भी प्रवीर के साथ काम कर चुके थे। बाबा के काले रंग के लिये यह तर्क दिया गया कि गोलियों की बौछार सहने के कारण प्रवीर का रंग काला पड़ गया है। उनके अनुयाईयों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। बाबा को कंठी वाले बाबा या गुरु महाराज कह कर संबोधित किया जाता था। बाबा ने अपने अनुयाईयों को सलाह दी कि वे माँस खाना और शराब पीना छोड़ दें तथा तुलसी की माला जिसे कंठी कहा गया धारण करें। यह कहा गया कि महाराजा प्रवीर का आदेश है कि सभी ग्रामवासियों को कंठी बाँधनी होगी। जो कंठी नहीं बाँधेगा उसकी जायदाद छीन ली जायेगी, वह मर जायेगा, उसको राक्षस खायेंगे।

दूसरी कड़ी https://www.facebook.com/share/p/obty5sex2HPnM14x/?mibextid=oFDknk

बिहारीदास के इस धर्मप्रचार और तथाकथित सुधारवादी आन्दोलन को अप्रत्याशित लोकप्रियता मिली। हरे राम हरे कृष्ण और रघुपति राघव राजा राम आदि भी लोक गीतों में शामिल होने लगे। इस आन्दोलन को वाद, पंथ और अंजाम से तौले बिना अगर देखा जाये तो इसकी स्वीकार्यता का पैमाना बहुत विशाल था, लगभग सम्पूर्ण बस्तर। बाबा बिहारी ने प्रवीर के नाम को आन्दोलन बनाया। उसने प्रवीर के बाद की उस शून्यता का इस्तेमाल किया जिसमे आदिवासी स्वयं को नेतृत्वविहीन तथा असहाय समझ रहे थे। क्या बाबा की इसी लोकप्रियता का लाभ कॉंग्रेस ने वर्ष 1971 के चुनावों में उठाया था?

तीसरी कड़ी  https://satatchhattisgarh.com/tug-of-war-between-maharaja-and-congress-and-elections/

निश्चय ही राजनैतिक पासे बाबा बिहारी दास की आड़ में खेले गये अर्थात वर्ष 1972 का चुनाव भी प्रवीर फैक्टर के साथ ही लडा गया। इस बार लोकसभा के चुनावों में कॉंग्रेस का प्रयाशी ही नहीं था, इस कारण मुकाबला निर्दलीय बनाम निर्दलीय हो कर रह गया। दस प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा जिसमें से नौ निर्दलीय थे और एकमेव जनसंघ ने प्रतिभागिता की थी। निर्दलीय प्रत्याशी लंबोधर बलिहार (42207 मत) ने इन चुनावों में अपने निकटतम निर्दलीय प्रत्याशी पीलू राम (34713 मत) को पराजित किया जबकि जनसंघ के प्रत्याशी बलीराम महादेव (28252 मत) तीसरे स्थान पर रहे।

चौथी कड़ीचवथी  https://satatchhattisgarh.com/lohandiguda-firing-casts-shadow-on-elections/

कॉंग्रेस का सारा ध्यान विधानसभा चुनावों की ओर था और इसके लिये बाबा बिहारी दास ने कॉग्रेस के पक्ष में प्रचार किया। बिहारीदास ने चित्रकोट, बकावंड, कोंड़ागाँव, दंतेवाड़ा, केशकाल, नारायनपुर और जगदलपुर विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। इन सभी सीटों पर कॉग्रेस वर्ष-1967 का चुनाव हार गयी थी; अप्रत्याशित रूप से इस बार सभी सीटों पर कॉग्रेस की जीत हुई। लोकतांत्रिक बस्तर के इन आरंभिक चुनावों से यह ज्ञात होता है कि दौर एक एसे नायक का था जिसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त था। अपने जीवनकाल तथा मृत्यु के पश्चात के दो चुनावों तक उसने बस्तर संभाग की राजनीति को अपने अनुरूप बनाये रखा। बाबा बिहारी दास का हश्र भी वही हुआ जो आमतौर पर अवसरवादियों का होता है। वर्ष-1975 में उसे मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। वर्ष-1981 में एक आदिवासी लड़की से बलात्कार के जुर्म में वह गिरफ्तार हुआ। इसके बाद बाबा बिहारीदास का पतन हो गया।

पाचवी कड़ी https://satatchhattisgarh.com/political-meaning-of-maharaja-praveers-murder/

छठवीं कड़ी https://satatchhattisgarh.com/congress-collapsed-in-1967-elections/

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