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स्मृति : हजारी प्रसाद द्विवेदी

पंकज मोहन

by satat chhattisgarh
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Hazari Prasad Dwivedi

आज हजारी दादा का जन्मदिन है। उन्हें इस मौके पर याद के रुप में उनका यह एक साक्षात्कार जो
1967 मे मनोहर श्याम जोशी ने लिया था। यह महत्वपूर्ण साक्षात्कार मिला पंकज मोहन जी की वाल पर। उनका आभार।

आजकल आप साहित्य अकादमी के लिए हिन्दी साहित्य का इतिहास लिख रहे हैं?

— हाँ, लिख रहा हूँ। क्योंकि बात टालने की भी एक सीमा होती है और वह सीमा पार हो चुकी है। ब्राह्मण भी आप जानते हैं, चार तरह के होते हैं — ब्राह्मण ब्राह्मण, क्षत्रिय ब्राह्मण, वैश्य ब्राह्मण और शूद्र ब्राह्मण। ब्राह्मण ब्राह्मण निर्लिप्त साधना करता है, सनातन महत्व का साहित्य रचता है। क्षत्रिय ब्राह्मण उत्साही और संघर्षप्रवण होता है, सामयिक महत्व की चीजें लिखता है, उच्चकोटि का पत्रकार बनता है । वैश्य ब्राह्मण नोट्स लिखता है, प्रचलित फैशन को धनोपार्जन का साधन बनाता है। पब्लिसिटी और पब्लिक रिसेशन्स मे जाता है। इन ब्राह्मणों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है और ‘शूद्र ब्राह्मण’ आदेश होने पर और प्रताड़ना मिलने पर ही लिखता है। मैं इसी शूद्र वर्ग में से हूँ ।”

आपने प्राचीन भारत के सन्दर्भ में उपन्यास लिखे हैं। क्या वर्तमान भारत के सन्दर्भ में उपन्यास लिखने का विचार कभी मन में आया ही नहीं ?

— विचार तो एक-से-एक आते हैं। मगर अपनी सीमा जानता हूँ। इकतारे से एक ही स्वर निकल सकता है। जन्म-भर पण्डित रहे, अब क्या खाक मॉडर्न बनेंगे।

– इसका कारण यह तो नहीं कि समसामयिक स्थिति इतनी उलझी हुई है कि उसे साहित्य की विषय-वस्तु बनाने का उत्साह नहीं होता?

— ऐसी बात नहीं । उलझाना सुलझाना तो हम पण्डितों का खानदानी पेशा है। बस यही कि समसामयिक स्थिति को उपन्यास में आँकने के लिए मैं अपने को रुचि, वृत्ति, शैली-हर दृष्टि से अक्षम मानता हूँ और उत्साह की बात जो आपने की तो उत्साह मुझे किसी भी विषय के लिए नहीं होता – प्राचीन विषय के लिए भी नहीं।

 आपको इतिहास से इतना प्रेम क्यों है ? क्या यह भी एक तरह का पलायन नहीं?

— इतिहास, मनुष्य की तीसरी आंख है। एक गुजराती छात्र था वहां शांतिनिकेतन में, जरा सिरफिरा सा। एक दिन पूछ बैठा कि अगर ईश्वर को बुद्धि है तो उसने मनुष्य को दोनो आँखें सामने क्यों दीं? एक पीछे क्यों नहीं दे दी? इसका एक जवाब फौरन यह सूझा कि ईश्वर नहीं चाहता था कि मनुष्य पीछे की ओर देखे । लेकिन बाद में सोचा कि ईश्वर ने मनुष्य को पीछे की ओर देख सकने वाला नेत्र दिया है और वह है उसका इतिहास-बोध। इतिहास-बोध को पलायन समझना अधुनिकता नहीं, आधुनिकता-विरोध है। आधुनिकता की तीन शर्ते हैं–एक इतिहास-बोध, दूसरी इह लोक में ही कल्याण होने की आस्था और तीसरी व्यक्तिगत कल्याण की जगह सामूहिक कल्याण की एषणा। मैं आग्रहपूर्वक यह कहना चाहता हूं कि जो इतिहास को स्वीकार न करे वह आधुनिक नहीं और जो चैतन्य को न माने वह इतिहास नहीं।

आप शान्तिनिकेतन से जब बनारस लौटे तो आपने क्या परिवर्तन पाया?

— यों सारा-का-सारा ही हिन्दी-क्षेत्र या कहें मध्य-देश बहुत रक्षणशील है, परन्तु काशी इस मामले में दो हाथ आगे (या पीछे कहें ?) ही रही है। फिर भी लौटने पर मैंने देखा कि आधुनिकता के भौतिक पक्ष का इस नगर को भी कुछ स्पर्श मिल ही गया है। आधुनिकता का भौतिक पक्ष वास्तव में आ गया था। लेकिन आधुनिकता की आत्मा वहाँ अब भी दुर्लभ थी। बात-बात में मुझे शान्तिनिकेतन और रवीन्द्रनाथ को लेकर ताना दिया जाता था, कुछ इस ढंग से मानो उदार होना या सार्वभौम दृष्टि रखना कोई बहुत बड़ा अपराध हो। काशी विश्वविद्यालय में मैंने कबीर पढ़ाना शुरू किया तो एक मित्र उपकुलपति से यह शिकायत कर आये कि जिस विभाग में तुलसीदास से पढ़ाई शुरू होती थी उसमें कबीर से शुरू होने लगी है।”

आधुनिकता के न आ पाने का कारण आप क्या देखते हैं?

— कारण यही कि न कोई भीतरी क्रान्ति हुई, न बाहरी । जिसे आपका निरा सुधारवाद कहकर उपेक्षा का पात्र समझता है उससे शायद विचारो की क्रांति हो सकती थी। हम अपनी परम्परा का नया संस्कार करते, रूढ़ियों का दुर्ग भेद कर अपनी परम्परा की आत्मा का उद्धार कर लाते तो आज भारत वास्तव में नया और भारत दोनों बन जाता। लेकिन पाश्चात्य प्रतिमानों का मोह और पराधीनता से मिला हुआ हीनभाव हमें खा गया। सुधार और समन्वय को दकियानूसी बातें करार देकर हमने मानो स्वेच्छा से भारतीय लोक-मानस से अपना निर्वासन कर लिया। लोकमानस हमने रूढ़िवादियों के लिए छोड़ दिया। तो हम सेकुलरिज्म चिल्लाते रहे और देश का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन हो गया। हम धर्मनिरपेक्षता का ध्वज फहरा रहे हैं और ऐन उस ध्वज के तले हिन्दू राष्ट्रवाद जोर पकड़ता जा रहा है। हम यथार्थवादी हैं और हमारा यथार्थ कल्पित है। भाषा, धर्म, संस्कृति, आचार-व्यवहार के हर मामले में हमने ऐसी उधार की उदारता, ऐसी बेपर की प्रगति चला दी है, जो लोकमानस का मैदान संकीर्णतम नस्लवाद के लिए बिना लड़े छोड़े जा रही है।

क्या आप यह मानते हैं कि आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ सुधार स्वयं ही हो जायेगा?

— एक सीमा तक यह बात सही हो सकती है, किन्तु प्रश्न यह है कि आर्थिक परिवर्तन भी वैसा कहाँ हो रहा है? बाहरी क्रान्ति अभी कहाँ हुई है। सब्जबागों का ही समाजवाद आया है, सिद्धियों का नहीं। इच्छाओं की ही क्रान्ति हुई है, उपलब्धियों की नहीं। और इस अधूरी क्रान्ति से हमारी स्फूत्ति आहत हुई है। हमारी जिजीविषा विक्षुब्ध हुई है ।… हम न देश में अमीरी ला सके हैं, न गरीबी बराबर-बराबर बाँट सके हैं। हम बड़े-बड़े बाँध बनाने के लिए बिक गए, लेकिन नलकूप हमसे लगवाते नहीं बने। समाजवादी ढंग की समाज व्यवस्था की हम बातें करते रहते हैं। यह एक और पाखण्ड है। और यह पाखण्ड एक और खतरे के सामने देश को बुला छोड़ रहा है। यह खतरा है वामपन्थी कम्युनिस्टों की रक्तरंजित क्रान्ति का।

 तो क्या आपके हिसाब से भारत के राजनीतिक मंच पर अतिवादी शक्तियाँ जोड पकड़ेंगी?

— पकड़ चुकी हैं। आज मुझे दो ही सुसंगठित और मरने-मारने की हिम्मत रखने वाले दल नज़र आते हैं- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और वामपन्थी कम्युनिस्ट । जहाँ सामंजस्य को मूर्खता मान लिया गया हो, वहीं अति की ही राजनीति चलेगी।

हाल के एक लेख में आपने कहा था कि जनता जाग रही है और यहां आप निराशाजनक चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं, सो क्यों ?

— अति की राजनीति से जनता का वास्तविक जागरण होगा, ऐसा तो मैं नहीं कहना चाहता हूँ। लेकिन जागरण होगा जरूर। अगर सामंजस्य की राजनीति होती तो यह जागरण सुविधा और शान्ति से हो पाता, अति की राजनीति के वातावरण में भयंकर मारकाट और उथल-पुथल के बाद होगा, मगर होगा निश्चय ही । भारत एक बड़ी शक्ति बनेगा, विश्व के मंच पर अपनी भौगोलिक, ऐतिहासिक नियति चरितार्थ करेगा।”

आपके इस विश्वास का आधार क्या है?

— यही कि मुझे अपने देश में, मानवता में और परमेश्वर में आस्था है।

– परमेश्वर में यह आस्था क्या आत्मछलना में आस्था है? धर्म को मार्क्स ने जनसाधारण की अफीम कहा है।

— अफीम वह है जो कमजोर बनाती है। जो धार्मिक आस्था शक्ति देती हो, उसे अफीम मान लेना स्वयं एक आत्मछलना है। और अगर अफीम है, जन-जन की अफीम है, तो जनता के राजनीतिक और बौद्धिक नेता होने का जो दावा करते हैं, वे पहले इस अफीम को देखें, समझें। अगर इस अफीम की शब्दावली में ही, वे नये अर्थ और नया दर्शन भरते तो कोटि-कोटि जन का उद्धार सुगमता से हो गया होता। हमारे प्राचीन प्रतीकों में आज भी कितनी शक्ति और जनसाधारण को उनमें कितनी आस्था है इसका कोई अनुमान हमारे इन्टलेक्चुअलों को नहीं होता।

मेरे जीवन मे कई बार ऐसे अवसर आये हैं जब मेरे आदर्श यथार्थ से बुरी तरह टकरायें हैं। मुझे अपार मानसिक कष्ट भोगना पड़ा है, लेकिन हर बार यही आस्था मुझे ‘सिनिक’ होने से बचा गयी है । मैंने मन-ही-मन एक तत्त्ववाद स्वीकार कर लिया है कि भूलना और सह पाना भगवान की विशेष कृपा से आता है। जो इस कृपा का पात्र बन सका है वही होम करते हाथ जलने पर विचलित नहीं होता।

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