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बंटवारे का एक जीवित संस्मरण “मिर्जा साहब”

योग मिश्र

by satat chhattisgarh
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Mirza Masood

Mirza Masood : हमारे देश के बहुत से लोग हमारे बहुधर्मी समाज की शान हैं उन्हीं में से एक थे जनाब मिर्जा मसूद। आज वो हमारे बीच नहीं हैं पर हमारे स्मरण में वे सदा उपस्थित रहेंगे। आज उन्हें याद करते हुए उससे सुनी उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना मुझे याद आ रही है जो उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान मुझे सुनाई थी। हुआ युं था कि छत्तीसगढ़ युवा महोत्सव में छत्तीसगढ़ स्तरीय युवा नाट्य स्पर्धा का जजमेंट करने जलील रिज़वी सर, मिर्जा मसूद साहब, मैं और रंजन मोडक संस्कृति विभाग द्वारा आमंत्रित किये गये थे। यहीं भोजन अवकाश के दौरान मिर्जा साहब ने मुझे देश के बंटवारे के समय का एक किस्सा अपनी ठुड्डी पर लगे निशान को दिखाते हुए सुनाया था कि “देखो ये बंटवारे का जख्म है।”

मैं चौंक गया था।

Mirza Masood : उन्होंने अपने जख्म का निशान दिखाते हुए कहा था- “मैं वह दिन कभी नहीं भूल पाता कि कैसे हम सब बेच बाचकर पाकिस्तान जाने रायपुर से निकले थे और ट्रेन बंद हो जाने के बाद दंगों के बीच हमें अपनी जान बचाते हुए वापस रायपुर लौटना पड़ा था। फिर बाद में कामेंट्री (Commentary) करने मुझे एक बार पाकिस्तान जाना पड़ा। वहाँ की वास्तविकता देखकर जब वापस हिन्दुस्तान लौटा तो इस धरती पर कदम रखते ही मैंने इस धरती को चूमा था और मैंने अपने अल्लाह का शुक्रिया अदा किया कि अल्लाह ने बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से हमें बचा लिया था।”

सच कहूँ तो मिर्जा साहब से सुनी बंटवारे की यह घटना किसी फिल्म की कहानी की वन लाईन जैसी मुझे लगी थी। आज मिर्जा साहब नहीं रहे उन्हें मैं उनके इस संस्मरण के जरिए याद करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

अब नगीने अशआर सुनना नसीब नहीं होगा 

आज देश में धर्म के नाम पर मचलते लोगों को जब-जब मैं देखता हूँ तब-तब मिर्जा साहब से सुना यह वाकिया मुझे हमेशा याद आ जाता है। मैंने उनसे अपनी आप बीती लिखने का निवेदन किया था। लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से यह कहते हुए मना कर दिया था कि “लोग समझेंगे तो हैं नहीं उल्टा मेरी मुसीबत और बढ़ा देंगे। ये लोग किसी के समझाने से समझ जाते तो इतने मुल्ला मौलवी पैगम्बर कि आवश्यकता ही नहीं होती। तुम लिखो इस पर…”
उन्होंने बताया- “हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद उनका परिवार भी और दूसरे लोगों की तरह हिन्दूस्तान से पाकिस्तान चला जाना चाहता था। जहाँ उनके मजहब का राष्ट्र बन चुका था और उनके बेहतर मुस्तकबिल का वहाँ इन्तजार हो रहा था।”

उनके परिवार ने रायपुर की अपनी सारी प्रापर्टी घर जमीन मकान जो कुछ भी यहाँ उनके परिवार के पास था सब बेच दी थी और पाकिस्तान जा रहे, अपने करीबी रिश्तेदारों के साथ पाकिस्तान जा रहे अपने मामू को अपना सारा पैसा सौंपकर सबसे पहले पाकिस्तान भेज दिया था कि वह उनके लिए पाकिस्तान में कोई अच्छी रहने की जगह देखकर उनके पाकिस्तान पहुँचने से पहले कोई बढ़िया घर सुनिश्चित कर के रखें।

खामोश हो गई इक पुरअसर आवाज़

इस नेक नियत से अपने मामू को उनके परिवार ने अपनी सारी जमा पूँजी सौंपकर, रायपुर में किसी परिचित के यहाँ ठहरकर, पाकिस्तान से मामू का खत आने का वे लोग इंतजार करते रहे थे। लेकिन मामू का कोई जवाब तो आना नहीं था और न आया। उनका परिवार खुद मामू से संपर्क साधने का प्रयास करता रहा लेकिन जब किसी तरह भी मामू से संपर्क नहीं हो पाया तो वे खुद अपनी माँ के साथ पाकिस्तान जाने रायपुर से निकल पड़े और किसी तरह हैदराबाद पहुँच गये और वहाँ से लगातार पाकिस्तान में अपने मामू से सम्पर्क करने की उन्होंने खूब कोशिशें की। किसी तरह जब मामू से उनका सम्पर्क हुआ भी तो मामू ने उन लोगों को पहचानने तक से इन्कार कर दिया। तब उन्हें समझ में आया कि मामू उन्हें मामू बना गये थे।

अंततः मजबूरन हैदराबाद से पाकिस्तान के लिए ट्रेनें बंद होने के कारण उन्हें अपनी माँ के साथ फिर वापस रायपुर लौटना पड़ा। उनकी सारी जमा पूँजी तो उनके मामू हड़पकर पाकिस्तान चले गये थे। उनकी माँ ने आर्थिक तंगी में जैसे-तैसे दूसरों के घरों में काम करते हुए उनकी परवरिश की थी। अपने गले के पास ठुड्डी के नीचे का घाव दिखाते हुए उन्होंने बताया यह बंटवारे का घाव है यह उन्हें हैदराबाद से लौटते वक्त लगा था।

“मिर्ज़ा” की आवाज ही उनकी पहचान थी

एक बार उन्हें हाॅकी की कामेन्ट्री (Commentary) करने के लिए पाकिस्तान जाना पड़ा था। उस वक्त उनकी अम्मी ने पाकिस्तान में रह रहे मामू से मिलकर आने के लिए उनसे कह दिया था। लेकिन उनकी अपने दगाबाज मामू से मिलने की जरा भी इच्छा नहीं थी। लेकिन अम्मी का दिल रखने उन्होंने हाँ कह दिया था।

पाकिस्तान जाकर वहाँ का जो हाल उन्होंने देखा और हिन्दुस्तान वापस आकर उन्होंने अपने खुदा का शुक्रिया अदा किया था। उन्हें अब जाकर यह बात समझ में आई थी कि क्यों मोहम्मद साहब यह कहते थे कि उन्हें हिन्दुस्तान से पुरसुकून ठंडी हवायें आती हुई महसूस होती हैं। मोहम्मद साहब का वह इशारा पाकिस्तान से लौटकर आने के बाद उनकी समझ में आया था। उन्होंने कहा “खुदा ने जो कुछ किया अच्छा ही किया कि हमारे मामू को दुर्बुद्धि दे दी और मामू ने लालच में आकर हम लोगों को पहचानने तक से इन्कार कर दिया। नहीं तो यह खूबसूरत मुल्क छोड़कर मुझे पाकिस्तान में रहना पड़ता। जहाँ मेरे मामू जैसे लालची और खुदगर्ज लोगों ने अपना अलग मुल्क बना लिया है। मैंने वहाँ जाकर देखा हिन्दुस्तान की तुलना में पाकिस्तान अभी भी गधे गाड़ी से खिंच रहा है। मैंने पाकिस्तान जाकर उस मामू से मिलने का ख्याल बिल्कुल त्याग दिया था। जो आदमी हमें बुरे वक्त में छोड़ गया जिसने हमें पहचानने तक से इन्कार कर दिया अब उससे क्या मिलना था? मैं पाकिस्तान से लौट कर अपने मुल्क आया और इस धरती को चूमा। उस दिन से तो यह मुल्क मेरे लिए काबा काशी मक्का जैसा हो गया।”

उनसे संस्मरण सुनकर मैंने कहा- “आपको अपना यह संस्मरण जरूर लिखना चाहिए इससे उन लोगों को प्रेरणा मिलेगी जो रहते तो यहाँ हैं पर तरफदारी पाकिस्तान की करते रहते हैं।” उन्होंने मुस्कुराकर बात टाल दी थी। तभी दूसरा नाटक शुरू होने की बेल बज गई और हम लोग दूसरा नाटक देखने में व्यस्त हो गये थे। मुझे लगा कि कभी किसी अवसर पर यह प्रसंग आपको जरूर सुनाऊँगा। लगता है यही वह दिन है जब यह संस्मरण आप सभी लोगों को सुनना चाहिए।

ऋग्वेद का यह श्लोक है-

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।

अर्थात हम सब एक साथ चलें। एक साथ बोलें। हमारे मन एक हों। प्राचीन समय में सज्जन पुरूषों का एक जैसा आचरण था इसी कारण वे वंदनीय हुए हैं। अलविदा मिर्जा साहब अब आप हमारी यादों में रहेंगे।

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