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एक दीर्घ शोधपरक निबंध , विवेकानंद

कनक तिवारी

by satat chhattisgarh
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Swami Vivekananda

12 जनवरीः जन्मदिन

धीरज और समय ज़रूर लगेगा लेकिन यह लंबा लेख आपके काम आएगा विवेकानंद को समझने में)!
कौन कह सकता है इक्कीसवीं सदी के भारत में पश्चिम के प्रति गुलामों जैसी समर्पित हो जाने की भावना शेष नहीं बची है? ब्रेन ड्रेन की अंधी दौड़ भी उसका ताजा संस्करण है। देश के नेता, नगरसेठ और नौकरशाह के त्रिकोण के श्रेष्ठिवर्ग का कमाल है। उसने तिकड़म से आई.आई.टी. और आई.आई.एम. जैसे महंगे शिक्षा संस्थान खोलकर नवयुवकों की बेकार पीढ़ी के सामने एक खोखला लेकिन पूंजीवादी आदर्श रखा है। वह किसी भी तरह डिग्रियां बटोरकर पहली फुरसत में यूरोप और अमेरिका की ओर रुख करे। फिर वहां पहुंचकर ‘ब्लडी इंडियन‘ के गोरे नारे के काले इरादों में सहायक की तरह हुंकारी भरे।
विवेकानंद की उपेक्षा क्यों?
आज जब यह हालत है, तब विवेकानन्द की उन्नीसवीं सदी में गुलामी के अभिशाप को ढोने वाले भारतीय समाज के पास ज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पारस्परिकता को बूझने का कोई ठौर ठिकाना भी कहां था? विवेकानन्द को एक काल्पनिक धर्मवाद का प्रवर्तक घोषित करने वालों ने अमेरिका और यूरोप संबंधी उनके विचारों को तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य की मजबूरियों और परिस्थितियों में समझने की कितनी ईमानदार कोशिशें की हैं? विवेकानन्द ने कहा था भारत की दुर्दशा का प्रमुख कारण अरसे से चली आ रही उसकी राजनीतिक गुलामी भी ज़रूर है। इस घातक कमजोरी को दूर करने के लिए शिक्षा सबसे पहला और कारगर उपाय है।
वे देश के नौजवानों को पूर्णकालिक अध्यापकों की शक्ल में भारत के गांवों में जाने का बार बार आह्वान करते रहे हैं। विवेकानन्द कूपमंडूक भारतीय समाज के विरोध में होकर दुनिया के अन्य देशों में चल रही बौद्धिक क्रांतियों से रूबरू होने के लिए युवकों को ललकारते रहते थे। एकमेवो द्वितीयो नास्ति जैसे विवेकानन्द के अलावा कोई बुद्धिजीवी उस समय नहीं था, जिसने धर्मगुरु का चोला पहनकर विदेशों से इस तरह जीवंत सम्पर्क रखने की पैरवी की हो। फिर भी विवेकानन्द के इस आह्वान का कोई असर भारत के नवयुवकों पर कर्मगत स्तर पर वांछित अनुपात में नहीं ही पड़ा है। उनके विचारों के स्फुरण से देश की नवयुवक पीढ़ी के क्रोध को एक राष्ट्रीय मानक आदर्श अलबत्ता मिला है।
(9) विवेकानन्द की असफलता वर्तमान राजनीति की असफलता पर अट्टहास करने का एक बड़ा ऐतिहासिक बोध भी है। वैश्वीकरण के अंधड़ में तिनकों और पत्तों की तरह उड़ते बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग के नेतृत्व में ही बूर्जुआ तत्व ठीक उसके उलट भारतीय समाज को उस लक्ष्य तक ले जाने का दंभ कर रहे हैं, जो संविधान की उद्देशिका में कथित है। संविधान के सभी बुनियादी उद्देश्य जिनमें समाजवाद, पंथनिरपेक्षता और सार्वभौमिकता वगैरह शामिल हैं, विवेकानन्द के उर्वर वैचारिक दायरे से बाहर नहीं थे। संविधान में घोषित छुआछूत उन्मूलन भी उनके ‘मतछुओवाद‘ का अधिनियमित संस्करण है। उनके बहुत से आग्रह संविधान के नीति निदेशक तत्वों में अब भी कुलबुलाते ही रहते हैं। विवेकानन्द के डेढ़ सौ वर्ष से ज़्यादा हो जाने पर तथा संविधान की स्वर्ण जयंती मनाने के बावजूद ये सभी तेवर राष्ट्रीय जीवन का कारगर लक्षण नहीं बन सके।
इसे भी देखे भाग 1
(10) आज भी दलित वर्ग से देश के नवनिर्माण के लिए कुर्बानी देने के जज़्बे के नारे लगवाए जा रहे हैं। इन वर्गों में सामाजिक चेतना को जगाने का काम लेकिन नहीं किया जा रहा है। डर यही है कि राजनीतिक और सामाजिक जीवन में कहीं उन्हें वांछित, आनुपातिक हिस्सेदारी देनी नहीं पड़ जाए। जाति के आधार पर आरक्षण और सांप्रदायिक राजनीति का यह भी पारस्परिक हश्र हुआ है। उसका मलाईदार तबका एक श्रेष्ठिवर्ग के रूप में प्रोन्नत होता गया है।
उसे पुराने संबोधनों द्वारा पुकारे जाने पर वह पलटवार करता है। वह लगभग हिटलर की तरह का रक्त-सिद्धांत प्रचारित करता कभी कभी खुद के द्वारा समर्थित और कायम रखे जा रहे सजातीय अकिंचन बंधुओं से सभी हिकमतें अपनाकर समर्थन हासिल कर लेता है। यह गैर मार्क्सवादी और अविवेकानन्दीय परम्परा तब तक चलती रहेगी, जब तक मार्क्स और विवेकानन्द के वस्तुतः एक तरह के लेकिन अलग अलग छबियों के सपने एक समन्वित सांस्कृतिक, भौतिक क्रांति का उत्स बनकर अपने मुकाम तक नहीं पहुंचते।
(11) लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले हमारे बीच आए विवेकानन्द किस तरह इक्कीसवीं सदी के लिए ज़रूरी या उपादेय हैं? क्या महानता माइग्रेन की बीमारी है जो कभी कभी उभर जाती है? विवेकानन्द को लेकर लेकिन ऐसा तो नहीं है। वेवक्तन बावक्तन प्रासंगिक नहीं हैं, बल्कि शाश्वत हैं। उन्होंने फकत अपने समय के हिन्दुस्तान की हालत पर ही विचार नहीं किया था। न ही केवल कोई फौरी चलताऊ इलाज सुझाया था। महात्मा गांधी को दलित, दरिद्रनारायण तथा हरिजन की सेवा करने का ऐतिहासिक श्रेय मिला है। उसके मूल में विवेकानन्द के आग्रह थे। संभवतः विवेकानन्द आज दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को लेकर और अधिक आग्रही होते।
अन्य कथित पिछड़ी जातियों के आरक्षण-सामंजस्य को लेकर विवेकानन्द के चिंतन में विस्तृत विवरण या उल्लेख नहीं है। सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में शोषितों के आगे बढ़ने का रास्ता कुंद और मंद पड़ ही गया है। विवेकानन्द की थ्योरी के अनुसार दलित और आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों की भीख मांगेंगे नहीं, नहीं छीन कर लेंगे। उनका रास्ता लेकिन हिंसक नहीं वैचारिक क्रांति का होना चाहिए। उन्हें सत्ता और हुकूमत उच्च वर्गो द्वारा स्वेच्छा से तश्तरी पर रखकर दी जाए तो ठीक है अन्यथा उसे वे खुद अपने अधिकारों के तहत ले लेंगे।
(12) लोग खुद को विवेकानन्द का वंशज कहलाते उनके नाम पर सभाएं, फाउंडेशन, हवाई अड्डे, विश्वविद्यालय, समितियां, अध्ययन मंडल बनाकर नवयुवकों को गुमराह कर रहे हैं। विवेकानन्द के अनुसार आध्यात्म का वीर भाव कमजोरों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, बच्चों और बुजुर्गों की सेवा करने में है। उन्होंने हिंसा और रक्तपात का खुला विरोध किया। उन पर जानलेवा हमले भी हुए। उनकी चरित्र हत्या करने की कोशिशें लगातार हुईं। शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानन्द की सपाटबयानी लगती समझाइश दुनिया के हर मुल्क के गाढ़े वक्त में काम की है। उलटबांसी यही है कि खुद उनके देश में लोग उनके नाम से वोट बैंक बनाकर राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं। वे विवेकानन्द को ठीक से पढ़ते तक नहीं हैं। विवेकानन्द पहले भारतीय हैं जिन्होंने खुद को समाजवादी, सेक्युलर और अभिव्यक्ति की आजादी का पक्षधर भी कहा था।
(13) विवेकानन्द साधु विचारक हैं जिन्होंने आध्यात्मिक उन्नति के साथ साथ गरीब आदमी की भौतिक समृद्धि की बात की थी। कोई साधु इस तरह उनके पहले नहीं हुआ। विवेकानन्द पहले साधु विचारक हैं जिन्होंने केवल किताबों से नहीं सीखा। उन्होंने यायावर बनकर देश का जितना भ्रमण किया वैसा किसी ख्यातनाम साधु ने उनके मुकाबले नहीं किया। विवेकानन्द पुनः पहले साधु विचारक हैं जिन्हें विज्ञान से कोई परहेज़ नहीं था। वे विज्ञान को धर्म के साथ समाहित कर देखना चाहते थे।
विवेकानन्द अकेले ऐसे विचारक हैं जिन्होंने धार्मिक रूढ़ियों की वजह से हिन्दू धर्म के चेहरे को इतना लहूलुहान कर दिया जितना कोई अन्य साधु नहीं कर सका। समाजवाद को 1977 में संविधान का मुखर उद्देश्य घोषित किया गया। पंथनिरपेक्षता को आपातकाल लगने के बाद बयालीसवें संशोधन के जरिए संविधान में लाने की कोशिश की गईं। ये दोनों शब्द विवेकानन्द के जीवन का प्राणतत्व हैं।(जारी रहेगा)।

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