डॉ रामविलास शर्मा तथा अमृत लाल नागर के पत्र
प्रसिद्ध आलोचक डॉ रामविलास शर्मा और उपन्यासकार अमृतलाल नागर घनिष्ठ मित्र थे।दोनों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी थे।डॉ शर्मा की मित्रता केदारनाथ अग्रवाल और अमृतलाल नागर से ही सम्भवतः सर्वाधिक और दीर्घकालिक रही । इनके साथ ताउम्र पत्र संवाद होता रहा। केदारनाथ अग्रवाल के साथ हुए उनके पत्र सम्वाद ‘मित्र सम्वाद’ के रुप मे 1991 में प्रकाशित हुआ था।इसके बाद डॉ शर्मा के अन्य पत्र सम्वाद भी प्रकाशित हुए ‘तीन महारथियों के पत्र’ तथा ‘कवियों के पत्र’। अवश्य उनके मन मे नागर जी से हुए पत्र सम्वाद को प्रकाशित करने की योजना रही होगी; मगर उनके जीवित रहते यह पूरा न हो सका। उनके निधन(2000) के बाद इस कार्य को उनके पुत्र डॉ विजय मोहन शर्मा और अमृतलाल नागर जी के पुत्र डॉ शरद नागर ने परिश्रम पूर्वक पूरा किया।
दो मित्रों के पत्र
संग्रह में नागर जी द्वारा रामविलास जी को लिखे 190 पत्र तथा रामविलास जी के नागर जी को लिखे 105 पत्र तथा कुछ अन्य पत्र हैं। स्पष्ट है डॉ शर्मा नागर जी की अपेक्षा पत्रों को अधिक सुरक्षित रख सके हैं।बावजूद इसके स्पष्ट हो जाता है कि लिखित पत्रों की संख्या इससे कहीं अधिक रही होगी।बहरहाल जितने पत्र सुरक्षित रहे हैं उनसे महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। ये पत्र चूंकि दो मित्रों के बीच के हैं जिनमे आत्मीय सम्बन्ध है, स्वाभाविक रूप से इनमे निजी,पारिवारिक सुख-दुख, सफलता-असफलता का प्रकटीकरण हैं। मित्रता की हद यह है कि एक का सुख दूसरे का सुख है तथा एक का दुख दूसरे का दुख। अक्सर नागर जी डॉ शर्मा के लेखन की व्यापकता और महत्वपूर्ण कृतियों के प्रकाशन पर इस तरह हर्षित होते हैं मानो यह काम उन्ही के द्वारा किया गया हो। सन 40 में जब डॉ शर्मा को पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई उस समय नागर जी बम्बई में थें मगर खुशी का आलम यह था कि “तुम जब पी.एच.डी. हुए थे तब तो बम्बई में स्व. किशोर साहू और स्व. महेश कौल को जानी वाकर ला कर पिलाई थी” (2/4/89। इसी तरह ‘सन सत्तावन की राज्य क्रन्ति'(1957), अथवा ‘भाषा और समाज’ (1960), ‘निराला की साहित्य साधन’ (1969) के लेखन पर भी नागर जी गर्वित महसूस करते हैं।
रामविलास जी का लेखन मित्रों के लिए दिशा देने वाला रहा
रामविलास जी का लेखन मित्रों के लिए प्रेरणास्पद और दिशा देने वाला रहा है। केदारनाथ अग्रवाल की तरह नागर जी के पत्रों में भी यह बात जगह-जगह झलक पड़ती है “तुम्हे बहुत जीना है रामविलास, तुम्हारे मत्थे बड़ा काम है”(21/7/64), “तुम सचमुच गदर तिलस्म के देवकी नंदन खत्री हो। यह साधारण पोथी नही, हिंदी का गौरव ग्रन्थ है”(23/3/58), “मेरा अकेलापन तुम्हारे लिए छटपटा और घुट रहा है”(29/7/66), “तुमसे बाते करने में मुझे जो सुख मिलता है, वह खरी मेहनत का है”(27/2/49), “तुम्हे देख कर अपने निकम्मेपन को पल भर के लिए तसल्ली दे लेता हूं”(25/4/48), “भाषा विज्ञान पर तुम लगे हो यह ख़बर मेरे लिए खून बढ़ाने वाली है”(29/4/48)। विश्वास की सीमा यह है कि “एक बात का विश्वास दिलाता हूं, इस उपन्यास को पढ़कर खुद मुझे भी इतनी खुशी नही हो सकती जितनी कि तुझे होगी”(19/10/44)।
बून्द और समुद्र मिल गया
रामविलास जी भी नागर जी के लेखन क्षमता के महत्व को समझते हैं, और कई जगह उसे रेखांकित करते हैं “बून्द और समुद्र मिल गया। जिस दिन पुस्तक घर मे आई, तहलका मच गया। सब लोग ऐसे प्रसन्न थे जैसे मेरी लिखी किताब ही छप कर आई हो” (8/12/56)। “तुम हमेशा पास रहते हो, कोई दूसरा पास हो चाहे न हो”।(29/4/57)।यहां आत्मीयता झलक रही है। ‘बून्द और समुद्र ‘की रामविलास जी द्वारा लिखी समीक्षा काफी चर्चित हुई थी जिसका जिक्र नागर जी के हवाले से पत्रों में है। 1964 में नागर जी उत्तरप्रदेश सरकार की एक ‘हिंदी विरोधी’ विधेयक को लेकर आमरण अनशन करने वाले थे ; इस प्रसंग में भी डॉ शर्मा का उनके प्रति प्रेम और चिंता नागर जी के एक पत्र से प्रकट होती है “मेरे पत्रों में कभी-कभी लिखी गई थकनी और हँफनी की बात को तुमने एक साथ पढ़ा, सनाका खा गये, जैसे अभी मेरे अनसन की बात पर, मेरे मोहवश सनाका खा गये”।
नागर जी का उपन्यास ‘अमृत और विष
नागर जी के उपन्यास ‘अमृत और विष’ पर डॉ शर्मा लिखते हैं “तुम्हारा उपन्यास श्रेष्ठ कृति है। अनेक जगह लखटकिया डायलॉग है।….उपन्यास नये उभरते भारत का संघर्ष बड़े गहरे में जाकर चित्रित करता है”। (23/9/66)’मानस के हंस’ पर “तुम्हारी कला का निखार और बाहर और भीतर की दुनिया मे तुम्हारी पैठ देखकर मन आनंद से भर गया। किसी आलोचक ने अभी तक तुलसीदास को उनके परिवेश में इतने गहरे उतर कर न देखा था जितने गहरे तुमने देखा है”(3/11/72)।’मानस के हंस’ पर उनके इस पत्र में तुलसी के बारे इतनी महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं कि इसे स्वतन्त्र आलेख के रूप में छापा जा सकता है। ‘खंजन नयन’ पर “तुम्हारे सुरस्वामी की भक्ति धर्म के ठेकेदारों से कतराती नही, उनसे टकराती है, और इस्लामी कट्टरता के विरोधी सूफियों को साथ लेकर चलती है, इतिहास की यह परख सही है ।”(6/4/81)
1957 क्रांति के सौ वर्ष
1957 में 1857 की क्रांति के सौ वर्ष पूरे होने के परिप्रेक्ष्य में डॉ शर्मा और नागर जी दोनों उसका अध्ययन कर रहे थे। आगे डॉ शर्मा की ‘सन सन्तावन की राज्य क्रांति'(1957) प्रकाशित हुई। नागर जी की योजना इस पर उपन्यास लिखने की थी। उन्होंने शुरुआत भी कर दी थी मगर पूरा नही कर सके। मगर इक्कठा की गई सामग्री से ‘गदर के फूल’ पुस्तक लिखी जिसमे लोकगीतों में 1857 की क्रांति के नायकों-खलनायकों का जिक्र है। डॉ शर्मा नागर जी के एक निष्कर्ष से मुग्ध दिखते हैं” गदर अंग्रेजो की सेना में हुआ, क्रांति अवध बुन्देलखण्ड और बिहार के किसानों और स्त्रियों में उदय हुई”। इस वाक्य पर सौ इतिहास और इतिहासकार निछावर हैं। जियो”। डॉ शर्मा और नागर जी गदर को केवल सामंतो का विद्रोह नहीं मानते बल्कि इसमें किसानों की भागीदारी और इसके ‘जनक्रांति’ के स्वरूप की पड़ताल करते हैं। सन सत्तावन की क्रांति के दस्तावेजों में विष्णुभट्ट गोडसे की मराठी में लिखित ‘माझा प्रवास’ का महत्व सभी स्वीकारते हैं। नागर जी ने इसे सन 44 में पढ़ा, इसकी महत्ता को समझा और बाद में इसका हिंदी अनुवाद किया। वे रामविलास जी के भावभूमि को समझते थे; पत्र में लिखा “रामविलास, इस किताब को पढ़ कर तुम्हारी जो मनोदशा होगी उसका अंदाजा मैं अपनी इस वक्त की हालत से ही लगा सकता हूँ।”(12/11/44) सन सत्तावन में दोनों एक दूसरे को पत्रों में विभिन्न पुस्तकों और दस्तावेजों की जानकारी देते दिखते हैं। रामविलास जी की पुस्तक प्रकाशित होने पर नागर जी उसे “हिंदी का गौरव ग्रन्थ”(23/3/58) कहते हैं।
निराला जी,रामविलास जी,नागर जी
निराला का डॉ शर्मा के लेखन में केंद्रीय स्थान है। निराला के निमित्त ही उनकी नागर जी से 1934(लखनऊ) में परिचय हुआ। यह परिचय दोस्ती में बदल गई। निराला एक तरह से इनके गुरु थे जिनसे ये प्रेरणा लेते थे।निराला जी का भी इन पर अपार स्नेह था। बाद में रामविलास जी आगरा आ गए; नागर जी बम्बई चले गये; निराला जी इलाहाबाद। मगर सम्वाद और आना-जाना लगा रहा। चालीस के दशक में निराला पर ‘मानसिक विक्षेप’ का असर दिखने लगा। इससे निराला के चाहने वाले स्वाभाविक रूप से चिंतित हुए। पत्रों में दोनों मित्रो की निराला के प्रति चिंता और सम्मान जगह-जगह दिखाई देते हैं। रामविलास जी ” निराला जी अब हाथ से निकलने वाले हो रहे हैं। क्या लिखें, दर्द के मारे कुछ लिखा नही जाता।” (27/10/44)नागर जी तो एक कदम आगे बढ़कर हर हाल में उन्हें राहत देने की सोचते हैं “अगर ‘थैली अर्पण’ से (उनमे थैली काम्पलेक्स है) उनको राहत देने की संभावना अगर अभी भी हो(यानी एकदम डेंजर-ज़ोन में न पहुंच गए हों) तो उसका प्रबंध किया जाय।…..दोस्त, निराला को बचाओ।”(7/11/44)। लेकिन निराला के सम्मान का खयाल भी है “किसी लेखक के नाम पर भीख नहीं मांगी जा सकती, यह उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचाना है।”(11/3/45)।डॉ शर्मा “निराला जी की हालत पहले से बहुत खराब है। राशन वगैरह का प्रबंध करते नही हैं; साग उबालकर जब तब खा लेते हैं।”(13/3/46)। नागर जी के किसी किताब पर निराला जी की सम्मति “काम करना बस हमारे साथ के लोग जानते हैं।” (11/1/57)यह उनका प्रेम था; इस पर डॉ शर्मा की उचित प्रतिक्रिया “यह महाकवि का आशीर्वाद है, हमारे(यानी हम जैसों तुम जैसों को भी) काम का मूल्यांकन नही”।(24/1/57)।आख़िरी समय मे निराला जी की तकलीफ़ बढ़ गई थी; नागर जी लिखते हैं “पू.निरालाजी के समाचार तो मिले ही होंगे। ईश्वर से रोज़ मनाता(हूँ) कि वह उन्हें शीघ्र से शीघ्र उठा ले। इस कष्ट से वह सद्गति ही शुभ होगी।”(1/9/61)
निराला जी की जीवनी
निराला के निधन बाद रामविलास ने उनकी जीवनी पर काम करना शुरू किया “निराला और भाषा विज्ञान-मन के चारो तरफ चक्कर लगा कर मेरी नींद हराम किये हैं।”(27/1/62)। निराला के निधन के बाद जिन्होंने उनकी उपेक्षा की थी वे भी उनका महिमामंडन करने लगे। संस्थाओं में उनके सम्मान में कार्यक्रम होने लगे। ऐसे ही एक प्रसंग डॉ शर्मा “राष्ट्रपति-भवन न जाकर तुम गढ़ाकोला गये-ये निरालाजी के प्रमुख शिष्य के योग्य ही था। नि: के नाम को खूब धंधा बनाया जा रहा है। बिड़ला, डालमिया-हुमायूं कौबिर -सब अचानक निराला विशेषज्ञ और महान हिंदी प्रेमी बन गये हैं!” पंत जी की रामविलास जी ने कई जगह तीखी आलोचना की है, मगर उनसे परस्पर स्नेह भी था। ‘निराला की साहित्य साधना’ पर नागर जी के हवाले से उनका मत “इलाहाबाद में पन्त जी कह रहे थे, कि “रामविलास निरालाजी पर पुस्तक लिख रहे हैं ये बहुत अच्छा है। रामविलास ही लिख भी सकते हैं।”(23/7/62)। ‘निराला की साहित्य साधना(भाग एक)’ काफी लोकप्रिय हुई, जीवनी में औपन्यासिकता का भी पुट है। पुस्तक प्रकाशन के पूर्व इसका प्रथम अध्याय आलोचना पत्रिका में प्रकाशित हुआ था; उसे पढ़कर नागर जी की प्रतिक्रिया “आलोचना में ‘सुर्जकुमार तेवारी’ पढ़कर नशा आ गया। ज्ञानचंद भी उस पर मुग्ध है। अब यह मत कहना कि ‘चार दिन’ तुम्हारा प्रथम और अंतिम उपन्यास था। निराला की साहित्य साधना का प्रथम खण्ड नि. जी की प्रामाणिक जीवनी के अतिरिक्त प्रथम श्रेणी का उपन्यास भी माना जायेगा।”(13/9/68)। पुस्तक प्रकाशित होने पर भी लगभग यही प्रतिक्रिया “तुम्हारी कलम का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है।”(26/2/69) आगे इस पुस्तक को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। नागर जी के हवाले से पन्त जी ने भी इस पुस्तक की सिफारिश की थी;जबकि इसमे पन्त जी की अंतिम परिच्छेदों में काफी आलोचना है। इससे पन्त जी के उदार दृष्टि का पता चलता है। “अकादमी ने एक उचित और शानदार काम किया। निर्णायकों की इज़्ज़त बढ़ी। आरम्भ में पंतजी महाराज की न्याय बुद्धि और सहज उदारता ने समय से जाग कर श्रीगणेश अच्छा कर दिया था।”(27/1/71)
लछमनिया का चूल्हा:अस्मिता और अधिकार की चिंता (किताब समीक्षा)
सिर्फ एक कमजोरी
दोनों मित्र एक-दुसरे की खूबियों को सराहते हैं ; एक दूसरे को प्रेरित करते हैं मगर अपनी असहमति दर्शाने पर झिझकते नहीं। नागर जी के किसी लेख पर रामविलास जी लिखते हैं “तुम्हारा लेख बहुत सुंदर है-सिर्फ एक कमजोरी है। आज में मसले ‘व्यक्ति’ के नैतिक धरातल पर नही हल हो सकते; तुम्हारे लेख में व्यक्ति और समाज, अहं और समष्टि को लेकर बड़ा गोलमाल है।”(21/11/44) । निराला पर रामविलास जी की पहली किताब ‘निराला’ प्रकाशित हुई थी।प्रकाशन के पूर्व रामविलास जी ने सुझाव के लिए पांडुलिपि पढ़ने दी थी।नागर जी ने असन्तुष्ट होकर लिखा “मेरा ख़याल है जल्द से जल्द एक किताब ख़तम करने के जोश में तुमने अपने ईमान के विरुद्ध बेगार टाली है।।पत्रों का जाल सारी किताब में इस बुरी तरह से फैलाया गया है कि वे अपना charm खोकर सस्ती टेक्नीक के शिकार बन गये हैं।” नागर जी के बात को ध्यान में रखकर रामविलास जी ने किताब को फिर से नये ढंग से लिखी।यह भी एक उदाहरण है! रामविलास जी ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। नागर जी को प्रगतिशील विचारधारा पसन्द थी, मगर पार्टीबंदी से असहमत थे। इस सम्बंध में कभी व्यंग्य भी करते थे “भाभी को ‘लाल सलाम’ करूँ या प्रणाम? मेरा ख़याल है, वह अभी हिंदुस्तानी से कम्युनिस्ट नहीं हुई होगी।”(जून 45)।नागर जी प्रगतिशीलता के नाम पर ‘नारे बाजी’ का विरोध करते थे और रामविलास जी पर विचारधारा के नाम पर उसके समर्थन का आरोप भी लगाते हैं “सन 48 के आजाद साहित्य पर तुम्हारा नया कदम वाला लेख मुझे पसंद नहीं आया। निहायत ऊपरी ढंग से तुमने साहित्य की छानबीन की थी। इससे तुम्हारा उद्देश्य सफल नहीं हो पाता, ऐसा मेरा ख़याल है। महज नारों, पाली और गाली का उपयोग करके तुम केवल एक क्लास के ही लेखकों को inspire करते हो।”(27/2/46)।रामविलास जी के सौंदर्यदृष्टि में नैतिकतावाद हावी होने का आरोप लगाया जाता है। नागर जी भी इस पर चुहलबाजी करते हैं “तुम अपने आर्यसमाजी कठमुल्लेपन से स्तैफा दे देना नहीं तो मैं शिल्प के क्षेत्र में अपने नव तक -नीकी प्रयोगों को त्यागपत्र दूँगा।”(जून 67)। रामविलास जी ‘मानस के हंस’ की तारीफ करते हैं, मगर कुछ असहमतियां भी दर्ज करते हैं “तुम्हारा बेनीमाधव वाला मन मोहिनी रूप में इतना उलझा कि कौसल्या की छवि उभर नही पाई। इस कारण राम और काम वाला द्वंद्व अनेक पात्रों, अनेक परिस्थितियों को समेटता हुआ अनावश्यक विस्तार के साथ उपन्यास पर छा गया है।……शुरू के आधे उपन्यास में तुलसीदास के दो बिम्ब टकराते हैं; कथारस भंग होता है।…भाषा मे अवधी तत्व के बावजूद चित्रकूट से लेकर बनारस तक एक ही तरह की कनौजी मिश्रित अवधी बुलवाना उचित नही।”(3/11/72)। इसी तरह ‘खंजन नयन’ पर “भक्ति आंदोलन ने साहित्य में रीतिवादी, धर्म मे नागपंथी चमत्कार समाप्त किये, तुम्हारी कथा में चमत्कार का जाल बिछा हुआ है। सूरसागर का रचयिता रूपरसगन्धस्पर्श शब्द के संसार को प्यार करने वाला, ब्रज की लोक संस्कृति का श्रेष्ठ प्रतिनिधि कवि है। तुम्हारे सुरस्वामी अतिशय अंतर्मुखी हैं, उनके अंतर्द्वंद्व के चित्रण में आवृत्ति और प्रसार अधिक गहराई कम है।”(6/4/81)
नागर जी का जीवन लेखन के भरोसे ही चला
रामविलास जी कॉलेज में प्राध्यापक थे; आय का एक नियमित साधन था, लेकिन नागर जी लेखन के भरोसे ही आजीविका चलाते रहें, इसलिए उन्हें आर्थिक दिक्कतों का लगातार सामना करना पड़ा, कुछ उपन्यास केवल पैसों के लिए लिखना पड़ा। इन परिस्थितियों में पारिवारिक जिम्मदेदारी निभाते कभी-कभी निराश भी हो जाते थे, जिसकी अभिव्यक्ति कई पत्रों में है। बचपन सम्पन्नता में बिता था मगर पिता के आकस्मिक निधन से स्थिति विपरीत हो गई थी। सन 44 के एक पत्र में उन स्थितियों का जिक्र है। आगे “यह जरूर है कि अब इस अनिश्चित जीवन को लेकर कहीं थक जरूर गया हूँ।”(11/10/50), “इधर मानसिक रूप से अधिक अस्त व्यस्त हूँ”(18/8/53), सन 58 के एक पत्र में इसका मार्मिक रूपक है “डॉक्टर साहब अपने मनों बोरियों लदा ठेला खींचने वाले बैल को देखा है कभी? चलते- चलते धूप भरी तपती सड़क पर टांग पसार कर लेट जाये तो? आप क्या कर लीजियेगा, संदेह कीजिये, मारिये, गालियां दीजिये, भीड़ लगाकर सबके सामने उसे ठुकराये- वह उठ नहीं सकता, हांफ-हांफ जाता है, आराम चाहता है।”(9/9/58)। पुत्र के नौकरी मिलने पर “अब प्रतिमास के घर खर्च के लिये अपना उपन्यास लेखन कार्य छोड़ कर हर महीने पंद्रह-बीस दिन फुटकर कामों में न बिताने पड़ेंगे। यह सुविधा मेरे लिये कुछ कम नही।”(10/4/63)। डॉ शर्मा उनकी समस्या समझते हैं, मगर हिम्मत बढ़ाने के लिये तुलसी, निराला के संघर्ष का उदाहरण देते हुये उलाहना भी देते हैं “लेकिन तुम्हारी थकन, तुम्हारी हँफनी-महज एक नखरा! क्या खूब! हम फ़िदा हैं सौ जान से तुम्हारे नखरे पर!”(25/8/64)। नागर जी का आर्थिक संघर्ष इस स्तर का था कि उनके उपन्यास ‘अमृत और विष’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर भी उनका ध्यान आर्थिक संबल की तरफ अधिक जाता है “हुल्लड़ मेरे कमरे में घुसकर मुझे भी ‘पंचहजारी’ सूचना से मन ही मन मे उछाल गया। भोलानाथ की असीम कृपा है। प्रतिभा को उनकी गृहस्थी के लिये भगवान से यह अप्रत्याशित सहारा मिला।”(13/12/67)। कुछ काम उन्हें केवल पैसे जुटाने के लिये करने पड़ते थे “आजकल हम ‘नैमिषारण्य’ से एक महीने की छुट्टी लेकर पाकेट बुक के लिये ‘बेगम समरू’ लिख रहे हैं। आठ दस रोज में उपन्यास पूरा हो जायेगा। 4/5 महीनों के लिये पेट की चिंता से मुक्त हो जाऊंगा।”(16/4/68)। मगर इस दबाव को झेलते हुये भी काम की गति रुकती नही “खैर, मेरी तो सारी ज़िंदगी ही ऐसी कटी है, बोझ सिर पर आता है तो पहले घबराहट फिर जोश देता है।….. अब तो कभी-कभी विश्राम के अभाव में मौत मांगता हूं।” जाहिर है काम होता रहा मगर जरूरी विश्राम नहीं मिला। मगर आगे जाकर स्थिति कुछ सुधरी “पिछले दशाधिक वर्षों में रामजी और रामविलास ने लेखन कर्म से ‘मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय’ वाली स्थिति कर दी है।”(29/1/82)। जिन विडम्बनाओं को व्यक्ति औपचारिक रूप से प्रकट नहीं करता निजी पत्रों में व्यक्त हो जाता है, यह नागर जी के पत्रों में देख सकते हैं। वे पत्नी के बीमारी और निधन से दुखी और भावुक हो जाते हैं जिससे पत्रों में कई जगह मार्मिकता आ गई है।इसकी तुलना में डॉ शर्मा की प्रतिक्रिया संयत दिखाई देती है, वे अधिकांश जगह नागर जी की ढांढस बढ़ाते दिखते हैं।
चुहलबाजी, छेड़छाड़ भी
पत्रों में सर्वत्र गंभीरता नहीं है कई जगह चुहलबाजी, छेड़छाड़ भी है। सम्बोधनों में नागर जी ने डॉ शर्मा को ‘ तुतिये चमने अदब, कामरेड कोतवाल, नाखुदाए कश्तिए इल्मोहुनर, रुस्तमे चायनीज,आदि संबोधनो से सम्बोधित किया है। वहीं रामविलास जी ने अधिकतर ‘प्रिय भैयो’ संबोधित किया है; एक जगह ‘जनाब तस्लीम लखनवी साहब’ भी सम्बोधित किया है। एक पत्र में डॉ शर्मा “तुम्हे लिखने के लिये कोश में शब्द तो हैं पर इस P.C. में वे लिखे नहीं जा सकते।”(21/9/42)। एक जगह नागर जी लिखते हैं “आप तगड़े गद्य लेखक, सुकवि और जाने माने विद्वान हैं- यह सब तो है ही, साथ ही आप खासे— भी हैं।”(6/3/59)। दूसरी जगह ” बलराज साहनी को भाँग पिलाकर उसके दिव्य गुणों से उन्हें परिचित कराया और कृष्णचंदर तथा बेदी को भी यह समझ आया कि यथार्थवादी प्रगतिशील साहित्य भंगेड़ी और भैया बनने पर ही लिखा जा सकता है।”(1/7/63)
डॉ शर्मा और नागर जी इतिहास के उस दौर की उपज हैं जब हिंदी प्रतिष्ठित तो हो चुकी थी मगर साहित्य से इतर अनुशासनों की सामग्री हिंदी में कम थी। उस दौर के कई साहित्यिकों की तरह दोनों युवा मित्र भी विभिन्न विषयों में लेख लिखने, पत्रिका निकालने की योजना बनाते दिखते हैं। आगे कार्यरूप होने पर एक-दूसरे से रचनाएं मांगने के साथ-साथ विभिन्न योजनाएं बनाते दिखते हैं। दोनों की रुचि इतिहास, दर्शन, भाषाविज्ञान में शुरुआत से दिखाई देती है।कितनी किताबों और उसकी विषयवस्तु का जिक्र पत्रों में है!रामविलास जी की भाषा विज्ञान की रुचि जगह-जगह परिलक्षित होती है, जिस पर आगे उन्होंने काम भी किया। कई शब्दों के अर्थ और व्युत्पत्ति को लेकर दोनों के बीच चर्चा और बहस पत्रों में दिखाई देती है। साथ ही दोनों मित्रो की भावी लेखन की योजनाओं, शोध, रचनाप्रक्रिया का पता चलता है।
एक बात यहां कही जा सकती है कि इन पत्रों के मर्म को पूरी तरह से समझने के लिए दोनों लेखकों के किताबों से परिचय आवश्यक है, अन्यथा बहुत जगह बातें स्पष्ट नहीं हो पाएंगी।
कुछ उद्धरण
“लायब्रेरी में किताबों के न मिलने का गम क्या? जो लोग संस्कृति की रक्षा का जोरों से नारा लगाते हैं, वे लाइब्रेरियाँ बनाने, प्राचीन पुस्तके एकत्र करने और उन्हें जनता तक पहुँचाने की कोशिश क्यों करने लगे? (डॉ शर्मा 27/12/50)
“चोरी करो, डाका डालो, भीख मांगो, पर डी. डी. कोशाम्बी का Origin of Brahman Gotras अवश्य पढ़ो”(नागर जी 8/3/52)
“मित्र, आलोचनाएं बदलती रहती है; कलाकृति अडिग रहती है। शेक्सपियर सम्बंधी तीन सौ साल की आलोचनाओं पर नज़र डालकर इसी नतीजे पर पहुंचा हूँ”( डॉ शर्मा 28/2/57)
“तिलक Indo-Iranian, Indo-Germanic Race Theory की गिरिफ्त में थे; फिर भी आर्य-अनार्य संघर्ष की कल्पना से मुक्त हैं।”( डॉ शर्मा 27/1/62)
“भावों की भिड़ंत’ पर तुम्हारी जासूसी सूझ बड़ी सटीक बैठी, नेताजी ने उस जासूसी में एक पहलू और खोजा। उनका तर्क है, बंगाली बारूद दद्दा ने सप्लाई की और गद्य की तोप अजमेरी जी ने दागी”(नागर जी मार्च 1969)
“ऐसी गढ़ंत भाषा रामचरित मानस में-और किसी ने नही लिखी मिल्टन ने भी नही। इस युग मे निराला ने गढ़ी है। दोनों अनगढ़ सहज भाषा के भी माहिर हैं-तुलसीदास गुरु, निराला शिष्य।'(डॉ शर्मा 29/6/71)
“तुलसीदास, कबीर और शंकराचार्य से भिन्न ब्रम्ह को सगुण+निर्गुण, व्यक्त+अव्यक्त मानते हैं(डॉ शर्मा3/11/72)”
“रामचरित मानस में और समस्त भारतीय काव्य में अद्वितीय है, अयोध्याकांड, और उसके रस स्रोत राम और सीता नहीं, भरत और कौसल्या हैं।”(डॉ शर्मा 3/11/72)
“तुलसीदास नाथ पंथियों के विरोधी थे, कबीर पंथियों के नही। कबीर स्वयं नाथ पंथियो के विरोधी थे।”(डॉ शर्मा3/11/72)
“स्त्रियों, शूद्रों और ब्राम्हणों के प्रति उनका(तुलसी का) दृष्टिकोण चरित्र चित्रण में है, सूक्तियों में नही। फिर सूक्तियों में कुछ को लेना, कुछ को छोड़ देना वहीं न्याय संगत है जहां वे चरित्र-चित्रण में निहित दृष्टिकोण से मेल खाती हों।”(डॉ शर्मा 3/11/72)
“यह देश अपने साहित्यकारों से जिस तरह बंधा रहा है, उस तरह राजनीतिज्ञों से नहीं”(डॉ शर्मा5/6/89)
- कृति- अत्र कुशलं तत्रास्तु: रामविलास शर्मा तथा अमृतलाल नागर के पत्र
- संकलन-संपादन- डॉ विजय मोहन शर्मा, डॉ शरद नागर
- प्रकाशन- किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छत्तीसगढ़)
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