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Buddha Purnima : बुद्धमय छत्तीसगढ़

सोलहवें नक्षत्र विशाखा के मास में, षोडश कला युक्त चन्द्रमा की तिथि- वैशाख पूर्णिमा; बुद्ध के जन्म के साथ-साथ, सम्बोधि और निर्वाण की तिथि भी मानी गई है। इस तिथि पर आज हम बुद्ध का सामूहिक स्मरण करने के लिये एकत्र हैं। समाप्ति-आसन्न इस शताब्दी की परिस्थितयां, आशा और उल्लास के बदले गहन तिमिर निशा को उन्मुख हैं, तब इस बुद्ध पूर्णिमा की निर्मल, शीतल आभा, प्रेरणा की ऐसी किरण बन सकती है, जिसने पचीस सौ साले पहले भी मानव सभ्यता का मार्ग प्रशस्त किया था।
गौतम बुद्ध के लिये एक प्राच्य अध्येता की टीप है- ”यदि उनके मरणोपरान्त, उनके वैश्विक प्रभावों का ही मूल्यांकन किया जाय, तब भी वे निश्चय ही भारत में जन्मे महानतम व्यक्ति थे।” इस प्रभाव के आंकलन हेतु छत्तीसगढ़ अंचल से प्रकाश में आये पुरावशेष सक्षम हैं, किन्तु इसके पूर्व बुद्ध समग्र के प्रति बट्रेंड रसेल और अल्बर्ट आईन्सटीन के कथन उल्लेखनीय हैं। रसेल के शब्दों में- बुद्धिमता और गुणवत्ता की जिस ऊंचाई पर क्राइस्ट हैं, क्या इतिहास में वहां कोई और है – मुझे बुद्ध को इस दृष्टि से, क्राइस्ट से ऊपर रखना होगा। आइन्सटीन का विचार है कि यदि कोई धर्म आधुनिक विज्ञान के साथ समन्वय स्थापित कर सकता है, तो वह बौद्ध धर्म ही है। यही दृष्टिकोण आज बुद्ध स्मरण की वास्तविक प्रासंगिकता है।
बौद्ध पुरावशेष, विशेषकर बुद्ध प्रतिमाएं, आरंभिक काल में और हीनयान सम्प्रदाय में तो संभव नहीं हुई, किन्तु महायान और वज्रयान से लेकर जेन और नव-बौद्ध तक, जो कहीं न कहीं बुद्ध शिक्षा की मूल परम्परा का ही विकास है, इन सभी ने अपनी रचनात्मकता से भारतीय कला और परंपरा को सम्पन्न बनाया है। इसलिये बौद्ध प्रतिमाएं मात्र कलावशेष न होकर बौद्ध धर्मशास्त्र को भी रूपायित करती है। इनका निर्माण बौद्ध दर्शन और सम्प्रदाय के विचारों पर आधारित और विकसित बौद्ध प्रतिमा शास्त्र के मानदण्डों के अनुरूप हुआ है।
छत्तीसगढ़ में बौद्ध पुरावशेषों की चर्चा का आरंभ नेपाली परम्परा के एक अपेक्षाकृत परवर्ती ग्रन्थ ”अवदान शतक” के उल्लेख से किया जाना उपयुक्त होगा, जिसके अनुसार बुद्ध की चरण-धूलि से दक्षिण कोसल अर्थात्‌ वर्तमान छत्तीसगढ़ की भूमि भी पवित्र हुई है। एक अन्य महत्वपूर्ण विवरण प्रसिद्ध चीनी यात्री युवान-च्वांग (व्हेनसांग) का है, जिसने सातवीं सदी ईस्वी में सोलह वर्ष भारत में व्यतीत करते हुये प्रमुख बौद्ध केन्द्रों का भ्रमण किया था। उसने कलिंग (उड़ीसा) होते हुए उत्तर-पश्चिमी दिशा में पहाड़ों और जंगलों के रास्ते किआओ-सा-लो अर्थात्‌ (दक्षिण) कोसल में प्रवेश किया। वह लिखता है कि यहां के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और ऐसे भी लोग हैं जो बौद्ध धर्म को नहीं मानते। आगे विवरण मिलता हे कि यहां का राजा बौद्ध धर्म का आदर करता है। उसके आंकड़ों के अनुसार यहां के सौ बौद्ध विहारों में महायान सम्प्रदाय के लगभग दस हजार भिक्षु निवास करते हैं। उसने करीब सत्तर देव मंदिर भी देखे, जिनमें भक्तों की बड़ी भीड़ होती थी। तत्कालीन पुरावशेषों और इतिहास का उल्लेख करते हुये उसका कथन है कि राजधानी की दक्षिण दिशा में एक प्राचीन स्तूप था, जिसे अशोक ने निर्मित कराया था, इस स्थान पर तथागत ने अविश्वासियों को चमत्कार दिखाकर वश में किया था। बाद में इस विहार में नागार्जुन ने निवास किया था, तब इस देश का राजा सातवाहन था। युवान-च्वांग कोसल से आंध्र, कांचीपुरम्‌ की ओर आगे बढ़ा। वैसे तो युवान-च्वांग के कोसल और उसकी राजधानी पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है, किन्तु सिरपुर के पुरावशेषों से उसके विवरण का सर्वाधिक साम्य प्रतीत होता है। प्रसंगवश सिरपुर की खुदाई से आठवीं सदी ईस्वी के चीनी शासक काई-युवान के सिक्के की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है।
लगभग सातवीं सदी ईस्वी के शासक भवदेव रणकेसरी के भांदक (?) शिलालेख में शाक्य मुनि बुद्ध के मंदिर निर्माण की जानकारी है। इसी पाण्डुवंश के प्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन के मल्हार ताम्रलेख में बौद्ध संघ को कैलासपुर नामक गांव दान में दिये जाने का उल्लेख है। बालार्जुन के काल में ही बौद्ध विहार, मंदिर और भिक्षुओं का उल्लेख सिरपुर से प्राप्त एक शिलालेख में आया है। युवान-च्वांग का कथन कि यहां का राजा बौद्ध धर्म का आदर करता था, शैव धर्मावलम्बी बालार्जुन के अभिलेखों और तत्कालीन निर्माण से मेल खाता है और उसकी धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के परिचायक हैं।
कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर शिलालेख के अनुसार रूद्रशिव स्वयं के व अन्य धर्म सिद्धातों के अतिरिक्त दिग्नाग के प्रामाणिक कार्य का भी ज्ञाता था। पृथ्वीदेव द्वितीय के कोनी शिलालेख प्रशस्ति का रचयिता काशल बौद्ध आगमों का ज्ञाता था। इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि बारहवीं सदी ईस्वी तक निश्चय ही छत्तीसगढ़ अंचल में बौद्ध धर्म का अध्ययन व उसका पर्याप्त सम्मान होता था। इसीलिये बौद्ध धर्म का ज्ञान किसी व्यक्ति के गुणों में विशेष रूप से उल्लेख किये जाने योग्य कारक होता था।
बौद्ध स्थापत्य अवशेषों की दृष्टि से अंचल के सिरपुर, मल्हार तथा भोंगापाल (बस्तर, नारायणपुर से 30 किलोमीटर) महत्वपूर्ण स्थल है। सिरपुर में 1954-55 में आरंभ हुई खुदाई से मुख्‍यतः आनंदप्रभकुटी विहार, स्वस्तिक विहार एवं कुछ अन्य बौद्ध विहार अवशेष प्रकाश में आये। आनंदप्रभकुटी विहार में मुख्‍य संरचना के साथ संलग्न पक्के धरातल वाले विशाल प्रांगण के चारों ओर कोठरियों की क्रमहीन पंक्तियां हैं। मुख्‍य संरचना की योजना वर्गाकार है, जिसमें उत्तर की ओर नक्काशीदार तोरण द्वार तथा द्वारपाल, यक्षों की प्रतिमाओं का स्थान निर्धारित है। सभामण्डप सोलह स्तंभ पीठिकायुक्त है। पृष्ठवर्ती कोठरियों की पंक्ति के मध्य भूस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की अतिमानवाकार प्रतिमा स्थापित है।
स्वस्तिक विहार का नामकरण उसकी विशिष्ट आकार की योजना के कारण निर्धारित हुआ। यहां मध्य में खुले आंगन के चारों ओर तीन-तीन कोठरियों की पंक्ति के साथ प्रमुख कक्ष में विशाल आकार की भूस्पर्श बुद्ध प्रतिमा है। दोनों विहारों में बुद्ध के साथ पद्‌मपाणि भी स्थापित हैं, जबकि स्वस्तिक विहार की खुदाई से लाल बलुए पत्थर की हारीति प्रतिमा भी प्राप्त हुई थी। स्वस्तिक विहार के निकट ही पांच अन्य विहारों के अवशेष भी उद्‌घाटित हुए, जिनमें सामान्यतः खुला आंगन, चारों ओर कोठरियां और मध्य में उपास्य देव की स्थापना के लिये प्रधान कक्ष की योजना होती थी। इनमें से एक विशेष उल्लेखनीय विहार में विशाल मात्रा में कांच एवं सीप की चूड़ियां प्राप्त हुई हैं, जिससे अनुमान होता है कि यह भिक्षुणियों का विहार रहा होगा। इन्हीं विहारों में एक लघु स्फटिक स्तूप, सुनहला वज्र तथा बौद्ध मंत्र लेख युक्त मिट्‌टी की पकी मुहरों के साथ अभिलिखित बौद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।
मल्हार में 1975 से आरंभ हुए उत्खनन के तृतीय काल (ईस्वी 300 से ईस्वी 650 तक) स्तर में शिव मंदिर, आवासीय अवशेषों के साथ वज्रयान सम्प्रदाय का बौद्ध मंदिर और चैत्य के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मंदिर के बीच ईंट रोड़े का धरातल बनाकर, उस पर पकी ईंटों का फर्श है। यहां हेवज्र की प्रतिमा स्थापित थी। मंदिर की योजना में प्रदक्षिणा पथ, बरामदा और पांच कक्षों का भी प्रावधान है। मल्हार उत्खनन की एक अन्य संरचना के पश्चिमी भाग में अर्द्धवृत्ताकार ऊंचे चबूतरे के संकेत मिले, जिस पर मुख्‍य प्रतिमा स्थापित रही होगी। यहीं चार द्वार स्तंभ, एक बड़े स्तूप संरचना की संभावना और बौद्ध प्रतिमाओं के साथ ही बौद्ध मंत्र अंकित विविध मृण्मुद्राएं तथा स्तूपाकार स्फटिक खंड भी प्राप्त हुआ।
बस्तर में बौद्ध स्थापत्य अवशेषों-स्तूप आदि का अनुमान पूर्व से किया जाता रहा, किन्तु बौद्ध स्थापत्य के पुष्ट प्रमाण 1990 की खुदाई से उजागर हुये। भोंगापाल नामक ग्राम में लगभग पांचवीं-छठी सदी ईस्वी के शैव व शाक्त मंदिरों के साथ एक विशाल आकार (36×34×5.5 मीटर) के टीले से ईंट निर्मित चैत्य के अवशेष प्रकाश में आए, जिस पर पूर्व से ही पद्‌मासन ध्यानी बुद्ध की प्रतिमा अवस्थित थी। अर्द्धवृत्ताकार पृष्ठ वाले सर्वांग चैत्य की योजना में चबूतरा, मंडप, प्रदक्षिणा पथ, गर्भगृह, बरामदे एवं पार्श्वकक्ष है। दुर्गम महाकान्तार की तत्कालीन स्थितियों में नल शासकों के काल में हुए इस चैत्य का निर्माण धार्मिक समन्वय व सद्‌भाव के साथ बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का प्रबल प्रमाण है।
हीनयान की मूर्तिकला में मुख्‍यतः जातक कथाओं, यक्ष-यक्षिणियों और लोक जीवन के दृश्यों के साथ बुद्ध को उनके प्रतीकों, यथा- चक्र, छत्र, बोधिवृक्ष, चरण चिन्ह आदि अंकनों से प्रदर्शित किया गया है, जबकि महायान और वज्रयान की कला के माध्यम से बौद्ध देवकुल के ध्यानी बुद्ध मानुषी बुद्ध, शाक्य मुनि गौतम और बोधिसत्वों के साथ ही बुद्ध और बोधिसत्वों की शक्तियां तारा की अवधारणा और प्रतिमा शास्त्र के अनुरूप प्रतिमाओं का निर्माण आरंभ हुआ। ध्यानी बुद्धों में अमिताभ, अक्षोम्य, वैरोचन, अमोघसिद्धि और रत्नसंभव क्रमशः पांच अधिभौतिक तत्वों संज्ञा, विज्ञान, रूप, संस्कार और वेदना का रूपांकन है। शाक्य मुनि गौतम को मुख्‍यतः ध्यान, भूस्पर्श और धर्मचक्र मुद्रा में प्रदर्शित किया जाता है। बोधिसत्वों में प्रमुख मैत्रेय, पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, मंजुश्री और वज्रपाणि हैं। इनमें मैत्रेय, भावी बोधिसत्व होते हुए भी बोधिसत्व के रूप में मान्य हैं। पद्मपाणि, बोधिसत्वों में प्रधान और दयापूर्ण है। मंजुश्री, बुद्धि को प्रखर कर, मूल और मिथ्या का नाश करने के लिये खड्‌ग धारण करते हैं और अपेक्षाकृत कठोर बोधिसत्व, वज्रपाणि पाप और असत्‌ के शत्रु हैं। तारा के साथ अन्य देवियों, व्यन्तर देवताओं और हिन्दू देवताओं के वज्रयानी स्वरूप की निर्माण परम्परा भी ज्ञात होती है।
छत्तीसगढ़ अंचल से प्राप्त बौद्ध प्रतिमाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिरपुर की धातु प्रतिमाएं हैं। लगभग सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी में सिरपुर धातु प्रतिमा निर्माण का केन्द्र था। यहां प्रतिमाओं को टुकड़ों में अलग-अलग ढालकर जोड़ लिया जाता था इसके वस्त्राभूषण गढ़कर उस पर सोने का मुलम्मा कर, आंखों में चांदी का जड़ाव, बालों में काला रंग, ओंठ पर ताम्बे का रंग चढ़ाकर अंत में असली रत्नों सहित आभूषण से अलंकृत किया जाता था। सिरपुर से लगभग 25 धातु प्रतिमा की दुर्लभ निधि 1939 में अनायास श्रमिकों के हाथ लगी (कहीं कहीं यह संखया 44 और 60 भी बताई गई है), जिसमें से छः मूर्तियां तत्कालीन मालगुजार ने विभिन्न लोगों को भेंट में दे दी। दो प्रतिमाएं मुनि कांतिसागर को प्रदान की गई, उनमें से एक सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली तारा की प्रतिमा को मुनि ने भारत विद्या भवन, मुम्बई को सौंप दिया, किन्तु यह प्रतिमा आजकल लास एंजिलिस, अमरीका के काउन्टी म्यूजियम में प्रदर्शित है। इस निधि की ग्यारह प्रतिमाएं रायपुर संग्रहालय में है जिसमें तीन प्रतिमाएं बुद्ध की, चार पद्मपाणि की, एक वज्रपाणि की, दो मंजुश्री की तथा एक तारा की है। इसके साथ ही खुदाई से प्राप्त भूस्पर्श बुद्ध की लघु प्रतिमा कला प्रतिमान की दृष्टि से उच्च कोटि की है। सिरपुर की यह निधि न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि संपूर्ण भारतीय कला की अनुपम निधि है।
सिरपुर से प्राप्त पाषाण बौद्ध प्रतिमाओं में कनिंघम को प्राप्त विशाल प्रतिमा शीर्ष, विहारों से प्राप्त प्रतिमाओं के अतिरिक्त गंधेश्वर मंदिर की भूस्पर्श बुद्ध की लगभग डेढ़ मीटर ऊंची प्रतिमा उल्लेखनीय है। प्रतिमा पार्श्व में पारंपरिक सिंह व्याल के स्थान पर मेष व्याल का अंकन है। प्रतिमा के साथ मोर व सर्प का भी अंकन है अतएव इसकी पहचान अक्षोभ्य से भी की गई है। गंधेश्वर मंदिर की एक अन्य प्रतिमा पर उड़ीसा कला शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है इस प्रतिमा के उष्णीश-शीर्ष पर बौद्ध मंत्र अभिलिखित है। प्रतिमा का सौम्य भाव मुग्ध करने में सक्षम है। रायपुर संग्रहालय में भी सिरपुर से प्राप्त बौद्ध पाषाण प्रतिमाएं सुरक्षित है, जिनमें पद्मपाणि एवं तारा के साथ स्थानक बुद्ध प्रतिमा महत्वपूर्ण है। कमलासन पर स्थित तीनों प्रतिमाएं लय और भंगिमा की दृष्टि से अत्यंत आकर्षक है, जिसमें कलाकार के सुदीर्घ कलाभ्यास से विकसित उत्कर्ष के सहज दर्शन होते हैं। इसके अतिरिक्त सिरपुर के स्थानीय संग्रह में भी कुछ आकर्षक बौद्ध प्रतिमाएं सुरक्षित हैं।
मल्हार में बुद्ध की भूस्पर्श प्रतिमा, ध्यानी बुद्ध, हेवज्र, पद्मपाणि, तारा तथा विशेष उल्लेखनीय बोधिसत्व प्रतिमा है। इस चतुर्भुजी आसनस्थ प्रतिमा का अलंकरण चक्राकार कुंडल, ग्रैवेयक, कटिबंध, केयूर आदि से किया गया है। प्रतिमा के ऊपरी भाग में विभिन्न मुद्राओं में पांच ध्यानी बुद्ध तथा तारा व मंजुश्री अंकित है। मल्हार स्थानीय संग्रहालय के एक स्तंभ पर बुद्ध के जीवन चरित का अंकन किया गया है। ग्राम के एक निजी भवन में प्रयुक्त, प्राचीन अलंकृत स्तंभ भी उल्लेखनीय है, जिस पर कच्छप और उलूक जातक के कथानकों का दृश्यांकन है। मल्हार से संलग्न ग्राम जैतपुर से विविध बौद्ध प्रतिमाएं ज्ञात हैं। मल्हार के स्थानीय संग्रह तथा ग्राम में विभिन्न स्थानों पर भी बौद्ध प्रतिमाएं देखी जा सकती है। कला शैली के आधार पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि मल्हार सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी से बारहवीं सदी ईस्वी तक बौद्धों का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है और यहां हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों का जैन और बौद्ध सम्प्रदाय के साथ सह-अस्तित्व था। तत्कालीन यह वातावरण वर्तमान के लिये प्रेरक होकर अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
छत्तीसगढ़ अंचल के अन्य स्थलों, यथा-हथगढ़ा (रायगढ़), राजिम, आरंग, तुरतुरिया आदि से भी महत्वपूर्ण बौद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। एक विशेष प्रतिमा खैरागढ़ विश्वविद्यालय के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मानवाकार बुद्ध प्रतिमा के परिकर में बुद्ध के जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन तथा परिनिर्वाण का दृश्यांकन है। रतनपुर से प्राप्त बुद्ध की भूस्पर्श मुद्रा की एक प्रतिमा, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। छत्तीसगढ़ में बौद्ध पुरावशेषों के साथ अंचल की परम्परा का संक्षिप्त उल्लेख समीचीन होगा। जिला गजेटियर की सूचना के अनुसार तुरतुरिया में बौद्ध भिक्षुणियों का मठ था। सरगुजा के मैनपाट की आधुनिक संरचनाओं में विद्यमान वहां के धार्मिक वातावरण को आत्मसात करते ही बौद्ध धर्म की काल निरपेक्ष पवित्रता का आभास सहज सुलभ हो जाता है और अन्ततः बिलासपुर में भी वार्ड क्रमांक 33 में एक आधुनिक किन्तु उपेक्षित मंदिर है, जहां बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है।
बौद्ध पुरावशेषों की चर्चा करते हुए यह स्वाभाविक स्मरण होता है कि इस भूमि से प्रारंभ और विकसित यह धर्म देश में पुरावशेषों के अनुपात में अत्यल्प अवशिष्ट रह गया था। 1951 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 2487 बौद्ध मतावलम्बी थे, किन्तु 1961 की जनगणना में बौद्ध धर्मावलंबियों की संख्‍या 32,50,227 हो गई। निश्चय ही यह बौद्ध धर्म के पुनरूद्धार का दौर है। आज के इस वक्तव्य को रंजीत होसकोटे के उद्धरण से विराम देता हूं। धर्म-दर्शन विषय के टीकाकार होसकोटे ने हाल के वर्षों में बौद्ध धर्म के नैतिक एवं राजनैतिक पक्षों पर भारत के दलित वर्ग के विशेष संदर्भ में व्यापक कार्य किया है। होसकोटे का बुद्धवचन का निरूपण है- ”बुद्ध के लिये आनंद हमसे घृणा करने वालों से घृणा करने में नहीं अपितु ऐसी भावनाओं से दूषित होने के नकार में है- जो घातक सोच के दबाव से मुक्ति है।”

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