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उपचुनाव : विकल्प के उभरने के संकेत

by satat chhattisgarh
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सात विधानसभाई सीटों के उपचुनाव

जी-20 के अनुपातहीन तमाशे की चकाचौंध से मोदीराज ने जिन बहुत-सी अप्रिय सच्चाईयों को एक हद तक कामयाबी के साथ छुपाया है, उनमें एक सच्चाई प्रधानमंत्री मोदी और उनके नेतृत्व में चल रही संघ-भाजपा की जोड़ी के घटते जन-समर्थन की है। इसी सच्चाई का एक और सबूत, जी-20 के शुरू होने से ऐन पहले आए, छ: अलग-अलग राज्यों में हुए सात विधानसभाई सीटों के उपचुनाव के रूप में सामने आया है। बेशक, सभी जानते हैं कि आम तौर पर उपचुनावों में और खासतौर पर विधानसभाई उपचुनावों में, सत्ताधारी दलों के लिए अनुकूल स्थिति रहती है और इसलिए उप-चुनावों के नतीजों में बहुत ज्यादा अर्थ नहीं पढ़ा जाना चाहिए। फिर भी, देश के छ: अलग-अलग राज्यों में एक साथ हुए उपचुनावों के संकेतों को, महज स्थानीय मामला मानकर अनदेखा करना किसी भी तरह से तार्किक नहीं होगा। इन नतीजों के वृहत्तर संकेतों को पढ़ने से तब इंकार करना तो और बेतुका होगा, जब ये चुनाव देश के पैमाने पर बढ़ते तथा तीखे होते हुए राजनीतिक ध्रुवीकरण के संदर्भ में हो रहे थे, जिसकी अभिव्यक्ति विपक्षी मंच इंडिया के गठन के रूप में हो रही है।उपचुनाव : विकल्प के उभरने के संकेत

इंडिया की मुंबई बैठक में, जो हाल के विधानसभाई उप-चुनावों से ठीक पहले, 31 अगस्त तथा 1 सितंबर को हुई थी, 28 राजनीतिक पार्टियों ने हिस्सा लिया था। बेशक, इस बैठक में आने वाले लोकसभा चुनाव में ही ”मिलकर लड़ने” का संकल्प लिया गया था और वह भी, जहां तक बन पड़े एकजुट होने का ही निश्चय किया गया था और अगले चंद महीनों में होने जा रहे चार राज्यों के महत्वपूर्ण विधानसभाई चुनावों तक की चर्चा नहीं की गई थी, तब विधानसभाई उपचुनावों के लिए औपचारिक रूप से एकजुट होने का तो सवाल ही कहां उठता है। इसके बावजूद, विधानसभाई चुनावों या उपचुनावों की चर्चा नहीं होना या आम चुनाव में भी ”जहां तक बन पड़े…एकजुट होने” की ही बात करना भी, सत्ताधारी मोदी निजाम की ज्यादा-से-ज्यादा उजागर होती सांप्रदायिक तानाशाही के खिलाफ, विपक्ष के ज्यादा-से-ज्यादा एकजुट होने के प्रवाह को नकारता नहीं है, बल्कि उसकी जटिलताओं को पहचान कर, उनके बीच से अधिकतम एकता हासिल करने के प्रयास की, यथार्थवादिता को ही दिखाता है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि छ: राज्यों में नतीजों ही नहीं, जमीन पर राजनीतिक कतारबंदियों की सारी भिन्नता के बावजूद, इन उपचुनावों के नतीजों से एक वृहत्तर हैडलाइन, जी-20 के शोर के नीचे मीडिया में बहुत हद तक दब जाने के बावजूद, ”इंडिया 4, एनडीए 3” यानी इंडिया के भारी पड़ने की ही बनी है। दूसरी ओर एनडीए के लिए सबसे अनुकूल हैडलाइन भी इसका दावा करने से आगे नहीं जा सकी है कि, ‘एनडीए ने अपना स्कोर बनाए रखा’ यानी मुकाबला बराबरी पर छूटा! कहने की जरूरत नहीं है कि यह भी मोदीराज के लिए इंडिया की उपस्थिति से गंभीर चुनौती आने को तो दिखाता ही है, जबकि अभी तक इंडिया की तीन बैठकें ही हुई हैं और जनता के मुद्दों पर जन अभियान का सिलसिला तो अभी शुरू भी नहीं हुआ है।

उपचुनाव से पहले, इन सात में से तीन सीटों पर ही भाजपा का कब्जा था

सभी जानते हैं कि इन उप-चुनावों में उत्तर प्रदेश, झारखंड, बंगाल तथा केरल की एक-एक सीट यानी कुल चार सीटें भाजपा-विरोधी पार्टियों के खाते में गई हैं, जबकि त्रिपुरा की दो और उत्तराखंड की एक सीट भाजपा ने अपनी झोली में डाल ली है, हालांकि त्रिपुरा में उसने जिस खुल्लमखुल्ला धांधली से इन सीटों पर कब्जा किया है, इसकी हम जरा बाद में चर्चा करेंगे। यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि सभी सात सीटों पर, भाजपा या उसके सहयोगी दल के उम्मीदवार मैदान में थे और उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद, इस उपचुनाव में नतीजा वाकई 4 बनाम 3 का रहा है। फिर भी ‘एनडीए ने अपना स्कोर बनाए रखा’ की हैडलाइन का इस सीमित अर्थ में कुछ औचित्य माना जा सकता है कि उपचुनाव से पहले, इन सात में से तीन सीटों पर ही भाजपा का कब्जा था, जबकि चार सीटों पर भाजपा-विरोधी दलों का कब्जा था और उपचुनाव के बाद भी स्कोर जस का तस रहा है! वैसे यह भी अर्द्घ-सत्य ही है, क्योंकि उत्तर प्रदेश की घोसी सीट का विधायक, दलबदल करा के भाजपा के अपनी झोली में डाल लेने से ही, उस सीट पर उपचुनाव हो रहा था।

जैसा कि हमने पीछे कहा, इन उपचुनावों के नतीजों के वृहत्तर संकेतों को समझने के लिए, इस तीन के तीन और चार के चार के स्कोर का अर्थ सीमित ही है। जाहिर है कि इसका पहला कारण तो यही है कि भाजपा का तीन की तीन सीटें रहने का आंकड़ा भी धांधली से बना आंकड़ा है यानी जनमत को नहीं दिखाता है। त्रिपुरा की दोनों सीटों पर, सत्ताधारी भाजपा ने, पुलिस समेत समूची सरकारी मशीनरी की मदद से और चुनाव आयोग के आंखें मूंदने के सहारे, इतनी भारी धांंधली की थी कि भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी, सीपीआई (एम) को दोनों सीटों पर चुनाव निरस्त करने की मांग करनी पड़ी थी और चुनाव आयोग द्वारा सुनवाई ही नहीं किए जाने पर, उसे मतगणना के बहिष्कार का भी ऐलान करना पड़ा था। मतदान के पहले और मतदान के दिन, सत्ताधारी दल के पालतू गुंडों के आतंक, हिंसा तथा अपने प्रतिस्पर्द्घियों के कार्यकर्ताओं व पोलिंग एजेंटों पर हमलों की भीषणता का अंदाजा, एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि बॉक्सानगर में सीपीआई (एम) के सिर्फ 16 और धनपुर में 19 पोलिंग एजेंट ही, अपने मतदान केंद्रों तक पहुंच पाए थे और जल्द ही उन्हें भी मार-पीट कर तथा डरा-धमकाकर मतदान केंद्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। वोट की इस खुली लूट के बाद, भाजपा ने खुद को बॉक्सानगर विधानसभाई क्षेत्र में कुल 89 फीसद वोट लेकर विजयी घोषित करा लिया, जबकि इसी फरवरी में हुए विधानसभाई चुनाव में इस सीट पर भाजपा को सीपीआई (एम) उम्मीदवार ने ठीक-ठाक अंतर से हराया था।

 

दूसरी विधानसभाई सीट, धनपुर पर हालांकि भाजपा की ओर से लड़ते हुए केंद्रीय मंत्री, प्रतिमा भौमिक ने फरवरी के चुनाव में जीत हासिल कर ली थी और बाद में उनके इस्तीफा देने के बाद ही यह सीट खाली हुई थी, इस सीट पर भाजपा का 71 फीसद वोट लेकर जीतना भी, अब तक के चुनावों के इतिहास में अभूतपूर्व है। ये नतीजे, बड़े पैमाने पर धांधली का ही संकेत करते हैं। और त्रिपुरा में सत्तारूढ़ भाजपा के चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली और वोट की लूट का यह पहला मामला भी नहीं है। वास्तव में 2018 के आरंभ में भाजपा के इस राज्य में सत्ता में आने के बाद से, हरेक चुनाव में यही कहानी दोहराई जाती रही है। इस फरवरी में हुए विधानसभाई चुनाव में जरूर, तब चुनाव आयोग की सख्ती की वजह से, इस धांधली तथा लूट पर एक हद तक अंकुश लगा था और इसके नतीजे में भाजपा का गठजोड़ साधारण बहुमत के आंकड़े से नीचे फिसलते-फिसलते बचा था। सत्तारूढ़ भाजपा ने इसका बदला, चुनाव नतीजे आने के फौरन बाद, विपक्ष तथा खासतौर पर सीपीआई (एम) के खिलाफ हिंसा व आतंक की भयावह मुहिम से लिया था और अब उप-चुनाव में उसी का विस्तार देखने को मिला। विडंबना यह है कि सत्ता के सहारे, विपक्षी कम्युनिस्टों को कुचलने के लिए हिंसा, आतंक तथा दमन और खुली चुनाव धांधली का यह खेल, भाजपा ने बंगाल के ममता राज से सीखा लगता है।

चंदा मामा से भी वोट की आस श्रेय की चोरी का इल्जाम (व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)

शेष पांच विधानसभाई सीटों में से केरल की पुथपल्ली सीट पर, जो परंपरागत रूप से कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे यूडीएफ के पूर्व-मुख्यमंत्री, ओमन चांडी की परंपरागत सीट रही थी और उनके निधन से खाली हुई थी, उनके बेटे ने यूडीएफ की ओर से सबसे बढ़कर सहानुभूति के वोट के बल पर प्रभावशाली जीत दर्ज कराई है, जबकि राज्य में उसके प्रतिद्वंद्वी, सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले, एलडीएफ का उम्मीदवार मुकाबले में रहा है। यहां भाजपा वास्तविक मुकाबले से बाहर ही थी और उसका उम्मीदवार बहुत पीछे तीसरे नंबर पर रहा है, जहां वह अपनी जमानत भी जब्त करा बैठा। इसके विपरीत, प. बंगाल में धूपघुड़ी के उपचुनाव में, तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई है, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस सीट पर जीत हासिल की थी। यहां भाजपा अगर संतोष हासिल कर सकती है, तो इसी बात का कि इससे पहले हुए सागरदीघी के उपचुनाव के विपरीत, यह चुनाव भाजपा के उत्तरी बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के लिए मुख्य चेलेंजर के बने रहने को दिखाता है। सागरदीघी उपचुनाव में वाम मोर्चा समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार ने, तृणमूल कांग्रेस से सीट छीन ली थी और भाजपा काफी दूर तीसरे स्थान पर खिसक गई थी।

तीन सीटों विपक्षी गठबंधन इंडिया और सत्ताधारी गठजोड़ एनडीए के बीच रहा

शेष तीन सीटों का चुनाव व्यावहारिक माने में विपक्षी गठबंधन इंडिया और सत्ताधारी गठजोड़ एनडीए के बीच रहा था। इनमें से उत्तराखंड में, सत्तारूढ़ भाजपा ढाई हजार से कम वोट के अंतर से बागेश्वर सीट पर, अपने दिवंगत मंत्री की पत्नी को उम्मीदवार बनाकर, सबसे बढ़कर सहानुभूति के वोट और प्रशासन के दुरुपयोग के सहारे, किसी तरह से सीट बचाने में कामयाब रही। दूसरी ओर, उसे मुख्य चुनौती दे रहे कांग्रेस उम्मीदवार को, लगभग सारा भाजपा-विरोधी वोट मिला। समाजवादी पार्टी समेत अन्य पार्टियां कुछ सौ वोट तक ही सिमट गईं। इसकी उल्टी तस्वीर झारखंड मेें देखने को मिली, जहां डुमरी सीट पर झारखंड मुक्ति मोर्चा की उम्मीदवार ने, भाजपा-समर्थित आजसू उम्मीदवार को 17,513 हजार से ज्यादा वोट से करारी शिकस्त दी। झामुमो उम्मीदवार को समूचे विपक्ष का समर्थन हासिल था और सहानुभूति का लाभ भी मिला।

बहरहाल, इस चक्र में सबसे दिलचस्प और मानीखेज नतीजा, उत्तर प्रदेश में घोसी सीट का रहा। यह सीट, पिछले विधानसभाई चुनाव में प्रभावशाली अंतर से समाजवादी पार्टी के निशान पर जीते, दारासिंह चौहान के दलबदल कर भाजपा में शामिल हो जाने पर, विधानसभा से इस्तीफा देने से खाली हुई थी। भाजपा ने चुनाव के बाद मंत्री बनाने की मंशा जताने के साथ, दारासिंह चौहान को अपने निशान पर चुनाव में उतारा था और मुख्यमंत्री योगी समेत, अनेक मंत्रियों, सांसदों, विधायकों को चुनाव प्रचार में उतारकर, एक प्रकार से अपनी पूरी ताकत चौहान को जिताने के लिए लगा दी थी। ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभसपा) और संजय निषाद के नेतृत्व में निषाद पार्टी को अपने पाले में कर के भाजपा, अपने परंपरागत वोट के साथ राजभर व निषाद जैसे पिछड़े समुदायों का वोट जोड़ने और दूसरी ओर अल्पसंख्यक मतदाताओं को आतंकित करने के सहारे, अपनी जीत पक्की मानकर चल रही थी। लेकिन, समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की, 42,759 वोट से जीत ने दिखा दिया कि मोदी-योगी के डबल इंजन राज की पकड़ से, उत्तर प्रदेश का जन-मानस, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की उसकी सारी तिकड़मों के बावजूद, तेजी से फिसलता जा रहा है। याद रहे कि यह सिलसिला 2019 के आम चुनाव से ही जारी है, जिसका 2022 के चुनाव में भाजपा के फिर से सत्ता में आने के बावजूद, समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन की सीटों व वोट में उल्लेखनीय बढ़ोतरी के रूप में काफी असर दिखाई दिया था। साफ है कि विपक्षी एकता की तमाम सीमाओं के बावजूद, जनता इंडिया के गिर्द विकल्प गढ़ने की ओर बढ़ रही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)

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