...

सतत् छत्तीसगढ़

Home Chhattisgarh News खल्लारी का ऐतिहासिक महत्व

खल्लारी का ऐतिहासिक महत्व

घना राम साहू

by satat chhattisgarh
0 comment
Khallari

रतनपुर के कलचुरियों का राजत्व काल 10वीं से 17वीं सदी के उत्तरार्ध तक, लगभग 600 वर्षों तक, 36 गढ़ों की समावेशी संस्कृति के लिए उत्कर्ष/परमवैभव का था। तब सभी मतों/पंथों को राजकीय संरक्षण मिला हुआ था। 14वीं सदी में इस राजवंश का दो शाखाओं में विभाजन से रायपुर शाखा का उदय हुआ था। रायपुर शाखा के राजा राय हरि ब्रह्मदेव ने कुछ वर्षों के लिए वर्तमान महासमुंद जिला के खल्लारी को राजधानी बनाया था।

खल्लारी का ऐतिहासिक महत्व

यहां से प्राप्त एक अभिलेख के अनुवाद में इसे खल्वाटिका कहा गया है, लेकिन इस स्थान नाम की संगति सामाजिक संरचना से नहीं बैठती है क्योंकि इस स्थान के समाज प्रमुख देवपाल मोची थे, जो नारायण के भक्त थे। किसी भी भगवद भक्त की नगरी को खल्वाटिका यानी दुष्टों की बगिया कहना उचित प्रतीत नहीं होता है। इसलिए, मेरे मतानुसार खालवाटिका कहना उचित है क्योंकि देवपाल शिल्पी थे और शिल्प कलाओं में चर्मशिल्प प्रतिष्ठित रहा है। देवपाल ने इस स्थान में नारायण का भव्य मंदिर बनवाया था। कहा जाता है कि इस मंदिर के लोकार्पण अवसर पर राजा हरि ब्रह्मदेव अपने पुरोहितों के साथ उपस्थित थे और पंडित दामोदर मिश्र ने इस मंदिर की प्रशस्ति लिखी है, जिसमें देवपाल के तीन पीढ़ियों का यशोगान है। वह शिलालेख वर्तमान में रायपुर के महंत घासीदास संग्रहालय में सुरक्षित है। वर्तमान में देवपाल द्वारा निर्मित नारायण मंदिर जगन्नाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है और नारायण याने विष्णु के स्थान पर जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की प्रतिमाएं स्थापित हैं ।

रतनपुर के राज दरबार की कहानी

दूसरा प्रसंग रतनपुर के राज दरबार से जुड़ा है, जिसके अनुसार दिल्ली के बादशाह जहांगीर के दरबार में जब 12 वर्ष के लिए राजा कल्याण साय को निरुद्ध किया गया था, तब उनके साथ गोपाल राय नामक पहलवान भी था, जिसे देवार जाति के लोग अपना पितृ पुरुष मानते हैं यद्यपि पुराने साहित्यों में इन्हें नागवंशी बिन्झीया याने बिंझवार क्षत्रिय लिखा गया है । उल्लेखनीय है कि वर्तमान में मोची और देवार जाति समाज व्यवस्था में नीचे है। इसी तरह बिलासा नामक केवट जाति की महिला की भी चर्चा होती है, जिसके नाम पर बिलासपुर शहर बसने का दावा भी किया जाता है। कहा जाता है कि बिलासा राजा के दरबार में दरबारी थी। अभी तक बिलासा से संबंधित कोई अभिलेख प्राप्त नहीं है जिससे लोकमान्यता की प्रमाणिकता सिद्ध हो सके ।

कलचुरी राजाओं के सामंत

कलचुरी राजाओं के सामंतों में बिंझवार, भैना, सबर, भूंजिया, कमार आदि शामिल हैं, जो गढ़ों के गढ़तिया/सामंत थे, जो अब अत्यंत पिछड़ी जनजातियों में गिने जाते हैं। दिल्ली दरबार के हस्तक्षेप के बाद रतनपुर राज्य कमजोर होता गया और अनेक गढ़ों में चौहान, गोंड़, कंवर आदि सामंतों का अधिपत्य स्थापित हुआ। अंततः वर्ष 1741 में यह राज्य मराठों से पराजित हो गया और लगभग 70 वर्ष बाद ईस्ट इंडिया कंपनी इस समृद्ध राज्य का मालिक बन गया।

सतनाम पंथ का उदय

मराठा राजा नागपुर में रहकर शासन चलाते थे (अंतिम मराठा राजा बिम्बा जी रतनपुर में रहते थे और उनकी मृत्यु महासमुंद जिला के नर्रा में हुई थी जो जमींदारी का मुख्यालय था) और उनके राजत्व में सद्गुरु घासीदास का उदय होकर सतनाम पंथ स्थापित हुआ। 16वीं सदी में संत कबीर के अनुयायियों की भी सार्थक उपस्थिति का प्रमाण मिलता है, लेकिन कहा जाता है कि गुरु घासीदास के काल में जातीय द्वेष चरम पर पहुंच गया था और उनके नेतृत्व में अनेक जातियों के लोगों ने सतनाम पंथ को अंगीकृत किया था।

समावेशी संस्कृति का पतन

अब बड़ा सवाल यह है कि 17वीं से 19वीं सदी के मध्य छत्तीसगढ़ की समावेशी संस्कृति के पतन के कारक तत्व क्या था जिससे गौरवशाली छत्तीसगढ़िया परंपरा को भ्रष्ट हुआ ? क्या हम लोग अब खल्लारी की गौरवशाली विरासत को पुनर्स्थापित करने में समर्थ नहीं हैं? छत्तीसगढ़ के वाशिंदों को छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक मूल्यों का पुनरावलोकन कर समाज के नवनिर्माण के लिए चिंतन करना चाहिए।

You may also like

managed by Nagendra dubey
Chief editor  Nagendra dubey

Subscribe

Subscribe our newsletter for latest news, service & promo. Let's stay updated!

Copyright © satatchhattisgarh.com by RSDP Technologies 

Translate »
Are you sure want to unlock this post?
Unlock left : 0
Are you sure want to cancel subscription?
-
00:00
00:00
Update Required Flash plugin
-
00:00
00:00
Verified by MonsterInsights