...

सतत् छत्तीसगढ़

Home Chhattisgarh News Chhattisgarh : राजा की जान तोते में

Chhattisgarh : राजा की जान तोते में

राहुल सिंह

by satat chhattisgarh
0 comment
Chhattisgarh: King's life is in danger

जालिम राजा की कोई कमजोरी होती है

कहानी में राजा की जान तोते में होती है, अक्सर ऐसा (राक्षस, दैत्यरूपी) राजा क्रूर और आततायी होता है मगर जालिम राजा की कोई कमजोरी होती है, जिसमें उसके ‘प्राण बसते हैं‘, यहां कहानी इससे अलग है। ऐसा राजा, जिसने अपने प्रिय पालतू तोते के कारण, अपनी बात रखने के कारण अपनी जान दे दी। यह राजा प्रतापी, दयावान और लोकोपकारी भी था- गोवा का कदंबवंशी जयकेशी-प्रथम। जिस राजा की जान गई तोते के पीछे। जयकेशी की आकस्मिक मृत्यु की तिथि सन 1078, उनके पुत्र गुवालदेव के 1079 के अभिलेख के आधार पर अनुमानित है तथा प्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ में तोते वाली कहानी का उल्लेख है। वर्द्धमान, काठियावाड़ के आचार्य मेरुतुंग के 1306 में रचित संस्कृत ग्रंथ ‘प्रबन्धचिन्तामणि‘, जिसका हिन्दी अनुवाद 1932 में शांतिनिकेतन में रहते हुए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने, तथा सम्पादन जिन विजय मुनि ने किया। सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता द्वारा सन 1940 में प्रकाशित कराया गया। यद्यपि सी.एच. टावनी द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद ‘विशिंग-स्टोन आफ नैरेटिव्स‘, 1901 में प्रकाशित हो चुका था।

धारवाड़ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पुराशास्त्री शदाक्षरी सेत्तार ने मृत्यु के विभिन्न पक्षों- जैन-मृत्यु ‘सल्लेखना-कायोत्सर्ग‘ और भगवती सूत्र के मरण जैसे विषयों पर गंभीर शोधपूर्ण लेखन किया है। उनकी पुस्तकों का शीर्षक है- इनवाइटिंग डेथ (1986) तथा परसुइंग डेथ (1990)। इसी क्रम की आरंभिक पुस्तक 1982 में ‘मेमोरियल स्टोन्स‘ उनके सह-संपादन में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में सी.वी. रंगास्वामी का लेख ‘मेमोरियल्स फार पेट्स, एनिमल एंड हीरोज‘ है, जिसके अंत में तोते और उससे किए गए वादे की स्मारक शिला स्थापित किए जाने का उल्लेख है। लेख के अंत में आर.एन. गुरव के शोध प्रबंध का संदर्भ दिया गया है। इसी संग्रह में आर.एन. गुरव का लेख ‘हीरो-स्टोन्स ऑफ द कदम्ब्स ऑफ गोवा‘ शीर्षक से है, किंतु इसमें जयकेशी-तोते वाले किसी स्मारक खंड- हीरो-स्टोन का उल्लेख नहीं है। आर एन गुरव का शोध, कर्नाटक विश्वविद्यालय में ‘गोवा के कदंब और उनके अभिलेख‘ पर 1969 में किया गया है, उनके शोध प्रबंध के अध्याय-5 में जयकेशी प्रथम की चर्चा है। यहां भी ‘प्रबंधचिंतामणि‘ का संदर्भ तो है, मगर तोते-जयकेशी के किसी स्मारक शिला का नहीं। इसी ‘मेमोरियल स्टोन्स‘ पुस्तक में एक अन्य महत्वपूर्ण लेख है, जिसमें बस्तर के मृतक-स्तंभों पर विस्तार से चर्चा है। बस्तर अंचल के मृतक स्तंभ, उरसगट्टा और उरसकल आम है साथ ही, छत्तीसगढ़ के मुख्यतः धमतरी-बालोद क्षेत्र में बड़ी संख्या में और अन्य स्थलों में भी लौहयुग के महापाषाणीय शवाधान स्थल हैं। छत्तीसगढ़ के मल्हार (बिलासपुर), आतुरगांव (कांकेर) और छातागढ़ (दुर्ग) से ईसा की आरंभिक सदी के अभिलिखित पाषाण-खंड प्राप्त हुए हैं, जो स्मृति लेख हैं। इन्हें स्मरण-स्तंभ/शिला कहना उपयुक्त होगा, ‘स्मरण‘ में स्मृति भी है और मरण भी। नीचे छातागढ़ से प्राप्त, वर्तमान में महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में प्रदर्शित अभिलिखित दो शिलाओं के चित्र। स्थल का नाम ‘छातागढ़‘ ध्यातव्य है, क्योंकि छत्र, छाया, छाता आदि जैसे शब्द-भाव मृतक-शिलाओं के लिए प्रयुक्त होते थे।

निस छाया/सिधनेगमसरह घरनिय समि-निका छाया

Chhattisgarh: King's life is in dangerChhattisgarh: King's life is in danger

‘प्रबंधचिंतामणि‘ का परिचय मेरे लिए कुछ इस तरह का- बारहवीं सदी के ग्रंथ कल्हण की राजतरंगिणी इतिहास-दृष्टि से रचित आरंभिक कृति माना गया है, जिसमें प्राचीन अभिलेखों- शिलालेख, ताम्रपत्र, तालपत्र, भूर्जपत्र, दानपत्र, ग्रंथों, किवदंतियों, जनश्रुतियों जैसे सभी स्रोतों का इस्तेमाल है और इस ग्रंथ की तैयारी में देशाटन कर भूगोल की जानकारी सहित समकालीन परिस्थितियों से भी वे परिचित हुए। विक्रमांकदेवचरित, गौड़वहो, पृथ्वीराज दिग्विजय और कीर्तिकौमुदी जैसी कृतियों को इसी परंपरा का मान मिला है। इसके साथ इतिहास अध्ययन के तौर-तरीके और स्रोत-सामग्री पर विचार करते चलें। पुरातात्विक वस्तुएं व्याख्या निर्भर होती हैं। साहित्यिक स्रोतों में कल्पना, रूपक और प्रतीकों, लक्षणा-व्यंजना होती है। विश्वसनीय माने जाने वाले अभिलेखों में तिथि अंकित न होना, अतिशयोक्ति आदि के कारण उनकी भी तथ्यात्मक विश्वसनीयता कम हो जाती है। कई बार ऐसे भिन्न स्रोतों को मिलाने पर वंशक्रम, पूर्वज-वंशज, उत्तराधिकारियों की जानकारी में भी विसंगति होती है। ऐसी स्थिति में जिस काल से संबंधित राजवंशों, घटनाओं, समाज और लोगों के पर्याप्त इतिहास का अभाव हो, वहां कोई भी पूरक और समानांतर सूचना का स्रोत महत्वपूर्ण हो जाता है, बल्कि विश्वसनीय इतिहास-घटनाओं का परीक्षण और उससे जुड़ी स्थितियों की जानकारियों के लिए भी सहायक होता है। इस प्रकार का इतिहास लेखन-शोध कुछ-कुछ ललित निबंधों पूर्वज जैसा हो जाता है।

आधुनिक इतिहास अध्ययन में हीरानंद शास्त्री, राय बहादुर हीरालाल, पं. लोचन प्रसाद पांडेय जैसे विद्वान किसी स्थल, स्मारक अथवा पुरावशेष पर शोध-लेखन करते हुए, उससे संबंधित देश-काल, परिवेश और अन्य संबंधित रोचक संदर्भों की चर्चा को शामिल किया करते थे, जो न सिर्फ ऐसे अध्ययन के पूरे परिप्रेक्ष्य के लिए, बल्कि अन्य पक्षों की ओर खोज के लिए राह सुझाता है। इस दृष्टि से जैन आस्था के इस ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ को इतिहास-लेखन की पूर्वज शैली के महत्व सहित देखा जा सकता है।

इसके ग्रंथकार मेरुतुंग सूरि स्वयं स्पष्ट करते हैं- ‘बार-बार सुनी जाने के कारण पुरानी कथाएं बुद्धिमानों के मन को वैसा प्रसन्न नहीं कर पातीं। इसलिए मैं निकटवर्ती सत्पुरुषों के वृत्तांत से इस ग्रंथ की रचना कर रहा हूं।‘ तथा वे यह भी कहते हैं कि ‘बहुश्रुत और गुणवान ऐसे वृद्धजनों की प्राप्ति प्रायः दुर्लभ हो रही है और शिष्यों में भी प्रतिभा का वैसा योग न होने से शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं। इस कारण से तथा भावी बुद्धिमानों को उपकारक हो ऐसी परम इच्छा से, सुधासत्र के जैसा, सत्पुरुषों के प्रबंधों का संघटन रूप यह ग्रंथ मैंने बनाया है।‘ और यह भी कि ‘यद्यपि विद्वानों द्वारा अपनी बुद्धि से कहे गए प्रबंध भिन्न भिन्न भावों वाले अवश्य होते हैं, तथापि इस ग्रंथ की रचना सुसंप्रदाय के आधार पर की गई है, इसलिए चतुर जनों को वैसी चर्चा न करनी चाहिए।‘

किसी कृति के सम्मान के साथ उसके सम्यक मूल्यांकन की जिम्मेदारी निर्वाह का एक उल्लेख इस ग्रंथ के संपादन संबंधी ‘प्रास्ताविक वक्तव्य‘ से स्पष्ट किया जा सकता है, जहां एक ओर इस ग्रंथ के महत्व पर जोर दिया गया है, वहीं कहा गया है- ‘… न मालूम मेरुतुंग सूरि ने किस आधार पर, ऐसा भ्रान्तिपूर्ण यह वर्णन अपने इस महत्व के ग्रन्थ में ग्रंथित कर डाला है, सो समझ में नहीं आता।’ बहरहाल इस ग्रंथ में जैनधर्म, गुजरात के राष्ट्रीय इतिहास की कथाओं, श्लेष, रूपक-उपमा वाले अनमोल शब्दों और कहन के उदाहरण तथा उनका मोल बारंबार आया है।

जयकेशी प्रसंग की पृष्ठभूमि में उनके पिता शुभकेशी और जयकेशी की पुत्री मयणल्ला देवी का उल्लेख आवश्यक है। ‘प्रबंधचिंतामणि‘ से पता चलता है कि- ‘इधर, शुभकेशी नामक कर्नाट देश का राजा घोड़े से (जिसको अपने काबू में न रख सकने के कारण) उड़ाया जाकर किसी घने जंगल में जा पड़ा। वहां पत्र फलों से भरे भरे किसी वृक्ष की छाया का उसने आश्रय लिया। उसके पास ही दावाग्नि लगी। जिस वृक्ष ने (अपनी छाया में) विश्राम देकर उपकार किया था उसे, कृतज्ञता के कारण छोड़कर चले जाने की उसकी इच्छा न हुई। और इसलिए, उसी के साथ दावानल में उसने अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसके बाद, मंत्रियों ने उसके पुत्र जयकेशी को राजपद पर अभिषिक्त किया। क्रमशः उसके एक मयणल्ला देवी नाम की पुत्री पैदा हुई। … … … श्री कर्ण ने उससे विवाह कर लिया।‘

इस क्रम में आगे ‘मयणल्लादेवी के पिता की मृत्युवार्ता‘ आती है, जिसमें कथा इस प्रकार आई है-

‘किसी समय, कर्णाट देश से आये हुए सन्धिविग्रहिक से मयणल्ला देवी ने अपने पिता जयकेशी का कुशल समाचार पूछा तो उसने अश्रुपूर्ण आंखों से कहा कि- ‘स्वामिनि, प्रख्यातनामा महाराज श्री जयकेशी भोजन के समय पिंजरे में तोते को बुला रहे थे। उसके ‘मार्जार‘ (बिल्ली) बैठी है, ऐसी आशंका व्यक्त करने पर, राजा ने चारों ओर देख कर-किंतु अपने भोजन के पात्र के (चौकी के), नीचे छिपे हुए मार्जारको न देख कर प्रतिज्ञा पूर्वक बोल उठे कि- ‘यदि बिल्ली के हाथ तुम्हारी मृत्यु होगी तो मैं भी तुम्हारे ही साथ मरूंगा‘। वह तोता ज्यों ही पिंजडे से उड़ कर उस सोने के थाल पर आ कर बैठा त्यों ही उस बिल्ली ने (लपक कर) भेड़िये जैसे दाँतों से उसे मार डाला। राजा ने उसे मरा देख कर भोजन का ग्रास छोड़ दिया, और उक्ति-प्रत्युक्ति जानने वाले राजपुरुषों के (बहुत कुछ) निषेध करने पर भी कहा-

‘राज्यं यातु श्रियो यान्तु प्राणा अपि क्षणात्।
या मया स्वयमेवोक्ता वाचा मा यातु शाश्वती।।‘

‘राज्य चला जाय, श्री चली जाय, और क्षणभर में प्राण भी भले ही चले जांय, किन्तु जो बात मैंने स्वयं कही है वह शाश्वती वाणी न जाय।‘

इस प्रकार इष्ट देवता की भाँति इसी वाणी का जाप करता हुआ, काष्ठ की चिता बनवा कर, उस तोते को साथ ले, उसमें प्रवेश कर गया। इस वाक्य को सुन कर मयणल्ला देवी शोकसागर में डूब गई। विद्वज्जनों ने विशेष प्रकार के धर्मोपदेशरूपी हस्तावलंबन दे कर उसका उद्धार किया।‘

‘प्राण जाए पर वचन न जाई‘ और ‘तोता-राजा सहगमन‘ (सहगमन, सामान्यतः जीवनसाथी, पति के साथ पत्नी का सती हो कर परलोक गमन के लिए प्रयुक्त होता है।) के इस प्रसंग का विवरण कुछ अन्य स्रोतों में लगभग इन शब्दों में मिलता है-

गोवा कदंब राजवंश के राजा जयकेशी द्वारा एक तोते के लिए आत्मदाह का एक अनोखा उदाहरण मिलता है। जिन परिस्थितियों के कारण राजा की मृत्यु हुई वे इस प्रकार थीं- जब राजा जयकेशी भोजन करते थे तो तोते का प्रतिदिन उनके साथ देता था। एक दिन, तोते ने राज सिंहासन के नीचे एक बिल्ली को बैठे देखा। राजा के बार-बार पुकारने, स्नेह और धमकी के बावजूद, तोता खाने में साथ देने के लिए पिंजरे से बाहर नहीं आया और अपने आसन्न प्राण-संकट का संकेत देता रहा। अंत में, राजा ने कहा कि यदि तोते को किसी भी घातक स्थिति का सामना करना पड़ा तो वह अपनी जान भी जोखिम में डाल देगा। जाहिर तौर पर उन्होंने यह आश्वासन अपने आसन के नीचे बिल्ली की मौजूदगी को न जानते हुए दिया था। तोता राजा की बात पर, पिंजरे से बाहर आया, तो बिल्ली ने उस पर झपट्टा मारा और उसे मार डाला। दुखी राजा ने तोते के दुःख से, अपने वादे को पूरा करते हुए, तोते के साथ जलकर मर गया। किसी पालतू जीव से किए गए वादे की खातिर जान देने का यह एक दुर्लभ मामला है।

और कुछ बातें तोता, सुआ या मिट्ठू पर- ऐसा जान पड़ता है कि सूत, कुशीलव कथा रचने-गढ़ने और सुनाने वाले जबकि शुकदेव, कथा वाचक यानि कथा बांचने-दुहराने वाले होते थे, इसी से ‘तोता रटंत’ कथन चल पड़ा। तोते को बोलना सिखाया जाता है, ‘तपत्कुरु‘, पं. दानेश्वर शर्मा का प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी गीत है- ‘तपत कुरु भइ तपत कुरु, बोल रे मिट्ठू तपत कुरु‘। ऐसा जान पड़ता है कि गुरुकुल-आश्रमों में तोते रखे जाते थे, जिनको तपत्कुरु सिखाया जाता था कि वे दुहराते-रटते रहें ‘तप करो, तप करो‘। ऐसे ही तोता रटंत का प्रसंग मंडन मिश्र वाला है। मंडन मिश्र का शास्त्र-ज्ञान किताबी था, शंकराचार्य की तरह अनुभूत नहीं था फिर मंडन मिश्र की पत्नी भारती के सामने ‘अनुभूत‘ के सवाल पर ही शंकराचार्य लाजवाब होते हैं। ‘शुक सप्तति‘ की कहानी अब भी किस्सा तोता-मैना प्रचलित और लोकप्रिय है। देह पिंजर (पसली) में जान (आत्मा) कैद होती है, जैसे पिंजरे में तोता, इंतकाल में प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं, तोता-चश्म की तरह निरपेक्ष आत्मा, शरीर को छोड़कर प्रयाण कर जाती है। जयकेशी की मृत्यु-कथा, क्या ऐसा ही कोई रूपक है?

चलते-चलते, ‘प्रबंधचिंतामणि‘ के कुछ रोचक उद्धरण

तुम्हारे जीवित रहते बलि, कर्ण और दधीचि जीते हैं और हमारे जीवित रहते दारिद्र्य जीता है। हे जगदेव! हम नहीं जानते कि किसका हाथ थक जाएगा- दरिद्रों को रचते-रचते ब्रह्मा का या कृतार्थ करते करते तुम्हारा।

सौगत (बौद्ध) धर्म है सो तो सुनने लायक है (अर्थात् उसके सिद्धान्त सुनने में अच्छे हैं), और आर्हत (जैन) धर्म है सो करने लायक है। व्यवहार में वैदिक धर्म का अनुसरण करना योग्य है और परम पद की प्राप्ति के लिए शिव का ध्यान धरना उचित है।

यद्यपि कटे हुए ब्रह्मशिर को वह धारण करता है, यद्यपि प्रेतों से उसकी मित्रता है, यद्यपि रक्ताक्ष हो कर मातृकाओं के साथ वह क्रीड़ा करता है, यद्यपि स्मशान में वह प्रीति रखता है और यद्यपि सृष्टि करके वह उसका संहार कर देता है, तो भी, मैं उसमें मन लगा कर भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। क्योंकि त्रिलोक शून्य है और वह जगत का एकमात्र ईश्वर है।

जिसे विष्णु दो आँखों से, शिव तीन से, ब्रह्मा आठ से, कार्तिकेय बारह से, रावण बीस से, इंद्र दस सौ से ओर जनता असंख्य नेत्रों से भी नहीं देख पाती, बुद्धिमान पुरुष उसी को एक प्रज्ञा (बुद्धि) रूपी नेत्र से स्पष्ट देख लेता है।

ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।

You may also like

managed by Nagendra dubey
Chief editor  Nagendra dubey

Subscribe

Subscribe our newsletter for latest news, service & promo. Let's stay updated!

Copyright © satatchhattisgarh.com by RSDP Technologies 

Translate »
Are you sure want to unlock this post?
Unlock left : 0
Are you sure want to cancel subscription?
-
00:00
00:00
Update Required Flash plugin
-
00:00
00:00
Verified by MonsterInsights