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1967 चुनावों में ध्वस्त हुई कॉंग्रेस

राजीव रंजन प्रसाद

by satat chhattisgarh
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बस्तर महाराजा की हत्या के बाद (आलेख – 6 )

वर्ष 1961 के लौहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड का परिणाम था कि वर्ष 1962 के विधानसभा चुनावों मे बीजापुर को छोड सर्वत्र महाराजा पार्टी के निर्दलीय प्रत्याशी विजयी रहे थे। इसके बाद भी बस्तर में खूनी खेल जारी रहा। वर्ष 1966 मे महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की नृशंस हत्या के बाद निश्चय ही बस्तर का आमजन लोकतान्त्रिक उत्तर देने के लिए प्रतिबद्ध था। परिणाम क्या रहे उस विवेचना से पहले यदि हम आरंभिक सभी चुनावों को देखते हैं तो पाते हैं कि लोकतंत्र ने नैतिकता की चादर ओड़ कर उस तरह ही व्यवस्था परिवर्तन का प्रतिपादन किया था जैसे कोई साम्राज्यवादी अपने उपनिवेश के साथ करता है। अन्यथा तो व्यावहारिक रूप से राजतन्त्र वैसे भी अप्रासंगिक हो चला था, राजा की प्रसिद्धि को लोक कल्याणकारी कार्यों से कमतर किया जा सकता था, लेकिन हो उलट रहा था। देश भर में चावल की कमी थी, हाहाकार था और सरकार उत्पादक किसानों से ली जाने वाली लेव्ही बढ़ा रही थी। आश्चर्य यह कि राजपरिसर के अहाते में उचित मूल्य की दूकाने लगा कर बढ़ती महंगाई को कम करने का प्रयास भूतपूर्व राजा के द्वारा किया जा रहा था। इस समय के जनप्रतिनिधि जोश में भरे, होश विहीन थे और यह समझ ही नहीं सके कि हर परिक्षेत्र का अपना इतिहास, संस्कृति और समाजशास्त्र होता है।
आम जनमानस के मन में महाराजा की हत्या का आक्रोश था, जो चुनाव में साफ साफ दिखाई पडा। कॉंग्रेस प्रत्याशी काड़ी बोंगा को केवल 19914 मत (10.31%) प्राप्त हुए। चुनाव में दुर्दशा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उस समय की सबसे प्रभावशाली राजनैतिक पार्टी चौथे स्थान पर रही थी। दो अन्य दल पहली बार बस्तर के चुनाव में पैठ कर रहे थे, इनमे पहली थी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) जिसके प्रत्याशी टाँगरू राम चुले को 30582 मत (15.83%) मिले और यह तीसरे नंबर की पार्टी बन कर उभरी, दूसरे स्थान की पार्टी बन कर जनसंघ ने अपना बस्तर में प्रभाव प्रदर्शित किया। जनसंघ के प्रत्याशी रतिराम झगड़ू को 36531 मत (18.91%) प्राप्त हुए थे। इन चुनावों में विजेता थे निर्दलीय प्रत्याशी झाड़ू सुंदरलाल जिन्हे 53578 मत (27.87%) प्राप्त हुए।
इन आंकड़ों में निर्दलीय प्रत्याशियों को मिला जनसमर्थन चौंकाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार महाराजा से संलिप्तता प्रभावशाली आदिवासियों ने लोकतंत्र का हाथ थामा, वे विघटित हो कर लड़े लेकिन फिर भी परिणाम कॉंग्रेस के लिए करारी पराजय था। इससे पूर्व के चुनाव दोतरफा हुआ करते थे, एक या दो निर्दलीय और भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के बीच सीधा मुकाबला। स्वतंत्रता पश्चात यह पहली बार था जबकि आठ प्रत्याशी मुकाबले में थे। यदि सभी निर्दलियों का मत जोड़ दिया जाये तो यह संख्या 106155 (55%) हो जाती है। यह भी संज्ञान में लेना होगा कि इसी वर्ष विधान सभा के चुनावों में भी कांकेर, चित्रकोट और कोण्टा सीत छोड़ कर शेष सभी स्थानों पर कॉंग्रेस की पराजय हुई थी।

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