बस्तर केंद्रित; चुनाव श्रंखला (आलेख – 9 )
लोकसभा के दृष्टिगत हम देखते हैं कि बस्तर के चुनाव मुद्दा आधारित रहे हैं। कॉंग्रेस की आरंभिक पराजयों के पीछे अगर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव एक बड़ा कारक रहे तो धीरे धीरे और दशकों की मेहनत के बाद इस राष्ट्रीय दल ने अपनी पैंठ बस्तर के भीतर बना ही ली। लोकसभा चुनावों में कॉंग्रेस को पहली जीत दिलाने का श्रेय जाता है सुरती क्रिस्टैया को, जिन्होंने वर्ष 1957 के चुनाव में 77.28% मत हासिल कर जीत प्राप्त की थी। अगले ही चुनावों में क्रिस्टैया बुरी तरह हारे, उन्हें केवल 12.82% मत ही मिल सके और वे चुनावी समर में तीसरे स्थान पर रहे। इसके बाद तो वर्ष 1977 तक कॉंग्रेस सभी चुनावों में पराजित ही हुई।
लोकसभा चुनावों के परिणामों को एस साथ रख कर देखा जाये तो कॉंग्रेस की जीत और हार का एक निश्चित पैटर्न रहा है। उदाहरण के लिए बस्तर में निर्दलियों का वर्चस्व कॉंग्रेस ने नहीं बल्कि दृगपाल केसरी ने तोड़ा था जोकि तब भारतीय लोकदल के उम्मीदवार थे। इस परिपाटी को इसी वर्ष के विधानसभा चुनावों में भी साफ साफ देखा जा सकता है। सोच कर देखिए कि बस्तर के जनजातीय जन कितने जागरूक हैं कि वे राष्ट्रीय मुद्दों को खूब पहचानते हैं और उसपर अपने मत के माध्यम से राय भी व्यक्त करते रहे हैं, यदि ऐसा नहीं होतय तो वर्ष 1977 के विधानसभा चुनावों में क्षेत्रवार भिन्न भिन्न परिणाम आने चाहिये थे। आपातकाल के बाद चुनावों का दौर आया; बस्तर में भी विधानसभा के चुनाव होने थे। यह समय देश भर में इन्दिरा गाँधी के विरोध का था। यह जनता पार्टी के उत्थान का काल भी था; कई विचारधाराओं और छोटे-बड़े दलों को जोड़कर यह पार्टी बनी थी। यह बस्तर में संकर काल था जो व्यक्ति आधारित राजनीति से बाहर आ कर नयी दिशायें तलाश रहा था। अब आंचलिक समस्याओं के लिये मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य की राजधानी भोपाल तक बस्तरियो का पहुँचना वैसा ही था जितना कि दिल्ली दूर थी। इसी कारण क्या बस्तर देश की राजनीति से सीधे प्रभावित हो रहा था? क्या बस्तर की आदिवासी जनता ने भी राष्ट्रीय राजनीति के नायक जयप्रकाश नारायण के साथ अपनी सहभागिता दर्शाई थी? वर्ष 1977 के विधानसभा चुनाव तो यही कहते हैं। कोण्डागाँव को छोड कर शेष बस्तर की सभी सीटे जनता पार्टी के हिस्से में आयी थीं।
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वर्ष 1977 का चुनाव बस्तर की राजनीति को पूरी तरह बदल देने वाला सिद्ध हुआ। जनता दल और मिली जुली सरकारों के दौर से जल्दी ही जनमानस उकताने लगा था। वर्ष 1980 में चुनाव हुए और इस बार कॉंग्रेस के प्रत्याशी लक्ष्मण कर्मा (62014 मत, 35.66 वोट %) ने जनता पार्टी के उम्मीदवार समारु राम परगनिया (46964 मत, 27.00 वोट %) को पराजित कर लोकसभा में अपना स्थान सुनिश्चित किया। इसके बाद कोंग्रेस के प्रभावशाली नेता मानकूराम सोढ़ी का दौर आया। मानकूराम सोढ़ी ने लगातार वर्ष 1984, 1989 और 1991 के चुनावों में क्रमिकता से 54.66 वोट %, 41.87 वोट % तथा 44.87 वोट % दर्ज कर जीत हासिल की। अब तक के चुनावों में यह रिकॉर्ड था कि एक ही नेता ने लगातार तीन चुनावों में जीत दर्ज की है। बाद में भारतीय जनता पार्टी के बलीराम कश्यप ने यह रिकॉर्ड लगातार चार चुनावों में जीत हासिल कर अपने नाम किया था। इसके बाद कॉंग्रेस पार्टी लगातार सभी लोकसभा चुनावों में पराजित ही हुई है। यह सिलसिला वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में जा कर टूटा जबकि कांग्रेस के प्रत्याशी दीपक बैज ने चुनावों में सफलता अर्जित की थी। कॉंग्रेस के आरंभिक चुनावों को हारने, मध्य के चुनावों में अपनी पकड़ बनाने और फिर सतत पकड़ खो देने के बाद वर्ष 2019 का चुनाव जीतना आगामी वर्ष 2024 के चुनावों को रोचक बना रहा है।