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“पृथ्वी-दिवस” के बाद का सवेरा: क्या बदला?

डॉ. राजाराम त्रिपाठी

by satat chhattisgarh
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"Earth Day"

“हम ‘पृथ्वी’ के साथ ऐसा बर्ताव कर रहे हैं, मानो हमारे पास रहने के लिए इसके अलावा ऐसे ही
8-10 ग्रह और भी खाली पड़े हैं”

विश्व-पृथ्वी दिवस का दिन, 22 अप्रैल, आता है और जाता है। धरती के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को याद करने के लिए हम एक दिन पर्यावरण के बारे में चर्चाएँ करते हैं, पौधारोपण का दिखावा करते हैं, और सोशल मीडिया पर अपने हरे-भरे विचारों की बौछार करते हैं। क्या यह सबकुछ बस एक दिन की औपचारिकता बनकर रह जाता है? क्या अगले दिन सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है, या फिर उस दिन की जागरूकता का कोई वास्तविक असर होता है? यदि आप यही सोच रहे हैं, तो मैं आपको बता दूँ कि हमारी यह आदत बन चुकी है। बस कुछ हफ्तों बाद 5 जून को हम ‘पर्यावरण-दिवस’ पर एक बार फिर अपनी जिम्मेदारियों के एहसास का भरपूर दिखावा करेंगे और फिर अगले दिन की सूबह तक, हर बार की तरह, वह सब कुछ एक बार फिर भूल जाएंगे।

"Earth Day"
Dr. Rajaram Tripathi

जरा दिल्ली की सड़कों पर नज़र डालिए। दिल्ली का तापमान 416.3°C तक पहुंच गया, सड़कों पर आग बरस रही है। यह आंकड़ा हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह “पृथ्वी दिवस” की नौटंकी केवल एक वनडे-शो के जैसा है, न कि वास्तविक बदलाव की दिशा में कोई कदम। क्या यह नहीं दिखाता कि हम अपने पर्यावरण को लेकर कितने लापरवाह हैं? अगर हम इसे सच्ची चिंता समझते, तो क्या दिल्ली की सड़कों पर इतनी गर्मी और प्रदूषण होता? क्या यह समस्या उन नेताओं और जिम्मेदार संस्थाओं के लिए शर्म की बात नहीं होनी चाहिए जो हर साल अपनी भाषणबाजी से पर्यावरण दिवस मनाते हैं और फिर अगले ही दिन सब कुछ भूल जाते हैं?

आपने कभी गौर किया है कि ‘स्वच्छ आकाश’ और ‘स्वच्छ भारत’ जैसे अभियानों का क्या हुआ? सरकारी विभाग और संस्थान इन अभियानों में भाग लेकर अपने दफ्तर के दस्तावेजों में इनकी सफलता दर्ज कर देते हैं, बिल वाउचर बनते हैं और हमारे आपके जेब से गला दबाकर वह चले गए हमारी गाढ़ी कमाई के पैसे इन नौटंकियों में फूर्र हो जाते हैं। सच तो यह है कि इन अभियानों का कोई वास्तविक असर नहीं होता। यद्यपि एक दिन के लिए हम झूठी उम्मीदों का दामन थामते हैं, लेकिन अगले ही दिन प्रदूषण का स्तर वही रहता है। ऐसे में क्या यह नहीं लगता कि हम खुद को और अपनी धरती को, दोनों को धोखा दे रहे हैं?
पश्चिमी विद्वान एल्डो लियोपोल्ड का एक उद्धरण है, “हम भूमि का दुरुपयोग करते हैं क्योंकि हम इसे अपनी संपत्ति मानते हैं। जब हम भूमि को एक समुदाय के रूप में देखते हैं, जिसमें हम सदस्य हैं, तभी हम इसे प्रेम और सम्मान के साथ उपयोग करना शुरू करते हैं।” यह उद्धरण हमें यह याद दिलाता है कि जब तक हम अपनी भूमि और पर्यावरण को एक दूसरे से जुड़ी हुई इकाई के रूप में नहीं देखेंगे, तब तक हमारे कृत्य केवल दिखावा बनकर रहेंगे।

लेकिन अगर इस संदर्भ में कोई सच्ची जागरूकता और काम किया जा रहा है, तो वह बस्तर जैसे आदिवासी समुदायों द्वारा किया जा रहा है। बस्तर के आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से रहते हैं, वे प्रकृति की महिमा समझते हैं और उसकी रक्षा के लिए सच्चे कर्म करते हैं। उनका जीवन एक उदाहरण है कि कैसे जीवनशैली और पर्यावरण संरक्षण को एक साथ जोड़ा जा सकता है। फिर भी, हमारे महान नेता और जिम्मेदार अधिकारी इस प्रकार के उदाहरणों से सीखने के बजाय केवल कार्यक्रमों का आयोजन करके अपनी भूमिका पूरी कर लेते हैं।

अब बात करते हैं उस ख़ास दिन, यानी 22 अप्रैल की। क्या होता है? लोग कार्यक्रम करते हैं, समाज सेवा के नाम पर कुछ पौधे लगाए जाते हैं, सरकारी अधिकारियों के भाषण होते हैं और फिर अगले ही दिन सब कुछ सामान्य हो जाता है। इस दिन की कवायद को केवल एक कागज़ी कार्रवाई के रूप में देखा जाता है, जिसमें सरकारी विभाग अपने द्वारा किए गए कार्यों की लंबी लिस्ट तैयार करते हैं और मीडिया में बड़े-बड़े विज्ञापन दिखाए जाते हैं। लेकिन अगले दिन वही प्रदूषण, वही गर्मी, वही जलवायु परिवर्तन की समस्याएँ सामने आ जाती हैं।

यह कोई एकल उदाहरण नहीं है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ — हर जगह इसी तरह के कार्यक्रम होते हैं, जहां दिखावा किया जाता है कि हम पर्यावरण के लिए चिंतित हैं। और सच तो यह है कि इन कार्यक्रमों के बाद ना तो प्रदूषण कम होता है, और ना ही तापमान में कोई फर्क पड़ता है। यह सिर्फ हमारी ख़ुद की आँखों में धूल झोंकने का काम करता है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या इस सबका कोई हल है? क्या हमें सचमुच इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए? क्या हम उन आदिवासी समुदायों से कुछ सीख सकते हैं, जो हर दिन पर्यावरण की रक्षा करते हैं, अपनी परंपराओं को संजोते हैं और हर हाल में प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हैं?

“सत्यमेव जयते” — सत्य की ही विजय होती है, और सत्य यह है कि अगर हम इस दिखावे से बाहर नहीं निकलें और अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से नहीं लें, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं करेंगी।
दरअसल हम ‘पृथ्वी’ के साथ ऐसा बर्ताव कर रहे हैं, मानो हमारे पास रहने के लिए इसके अलावा ऐसे ही 8-10 ग्रह और भी खाली पड़े हैं।
हकीकत तो यह है कि हम जिस धरती पर रहते हैं, वह हमारी माता है, और हम उसे ही नष्ट करने पर तुले हुए हैं। क्या हम सचमुच इस धरती के प्रति अपने धत् कृत्यों की कीमत चुका सकते हैं?

अंत में, यह समझने की आवश्यकता है कि जब तक हम धरती और उसके संसाधनों को केवल ‘एक दिन के कार्यक्रम’ के रूप में देखेंगे, तब तक हमें कोई वास्तविक परिणाम नहीं मिलेगा। जब तक हम अपने दैनिक जीवन में बदलाव नहीं लाएंगे, तब तक हमारे पृथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस के कार्यक्रम बस एक ढोंग बनकर रहेंगे। इसलिए, हमें उस सत्य को स्वीकार करना होगा कि हमारी वर्तमान कार्यप्रणाली से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जब तक हम अपने दृष्टिकोण और कार्यों में बदलाव नहीं लाएंगे।

(लेखक:  ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ तथा राष्ट्रीय-संयोजक, “अखिल भारतीय किसान महासंघ” ‘आईफा’)

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