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चरम घमंड-योग, संपादकों का

डॉ.शोभा जैन

by satat chhattisgarh
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extreme vanity of editors

अकादमियों की पुरस्कार शृंखला

लुगदी साहित्य हमारे बचे हुए समय को व्यस्त रखते रखते अब अकादमियों की पुरस्कार शृंखला को भी बेरोजगार नहीं रहने देता | साहित्य अकादमी हिंदी साहित्य की उस लाइलाज ग्रंथि की तरह है जिसने जनप्रिय साहित्य के मानक ही बदल दिए | हालांकि अब साहित्य भी वर्ग विभाजन की मांग उठाता है गंभीर साहित्य जो लोकप्रिय भले न हो लेकिन वह किसी आर्ट मूवी की तरह गहरा असर छोड़े /बांधे रखता है |

विचारधाराओं की गठरी को ढोने की परम्परा अब छोड़नी होगी क्योकि हर तरह की विचारधारा का मूल तो आदर्श ही हो सकता है |

व्यक्तित्व और कृतित्व

संपादकों का अतिश्योक्तिपूर्ण महिमामंडन करना भी साहित्य का मूल्य हास है। विशेषकर तब जब व्यक्तित्व और कृतित्व बिलकुल भी समायोजित न हो । आमतौर पर व्यक्तिपरक होना तब भी मजबूरी हो जाती है जब कोई सही या बेहतर विकल्प मौजूद न हो । वे संपादक (स्वयंभू) कुछ ऐसा दर्शाते हैं जैसी अपनी किसी काली कोठरी में बैठकर मौन साधना कर रहे हो । उनका चरम एकांत उनकी रचना प्रक्रिया और कथित कुशल संपादन कर्म का मुख्य हिस्सा है | जबकि भीतर से वे न सिर्फ असुरक्षित बल्कि घोर विचलित प्रवृत्ति में डूबे रहते हैं। आत्म प्रचार, संपर्क और तिकड़म उनके मौलिक औजार होते हैं। लेखकों को छापना उनका मूल दायित्व है इसके बिना किसी पत्रिका का अस्तित्व नहीं इसी दायित्व की पूर्ति में उनके कीर्ति -अर्जन में पगा साहित्य भी अपना मार्ग प्रशस्त करता है। स्थापित पत्रिका का संपादक होना आपकी वरिष्ठता का प्रमाण नहीं। और आपका वरिष्ठ होना आपकी श्रेष्ठता का परिचायक नहीं ।

कुछ कथित संपादक इस भ्रम में जीते हैं कि उनका ही प्रतिसाद है जो पत्रिकाएं फल फूल रही है। वे उदारता विनम्रता, तटस्थता और निष्पक्षता ओढ़े रहते हैं। उनके भीतर का नकली जमीनीपन (स्वदेशीपन) उनकी जीवन चर्या को करीब से जानने वाले बखूबी जानते हैं। कुछ लेखक उन पत्रिकाओं में छपने की (लगातार छपते रहने की ) आशा अथवा स्थापित पत्रिका के करीब पहुँचने की जदोजहद में आत्म-मुग्ध संपादक को इस सदी का महान संपादक घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते

कुछ सम्पादकों का कोई अस्तित्व नहीं अगर उनके नाम के साथ पत्रिका का विशेषण मिट जाए। लेखकों को अपने लेखन पर विश्वास करते हुए संपादकों की चापलूसी के चरम से बचना चाहिए। इन दिनों पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं सोशल मीडिया इस दिशा में बहुत उपयोगी हो सकता है ।

कैसा साहित्य चाहिए छापने के लिए , सम्पादकों को ?

पत्रिकाओं का भी वर्ग विभाजन है यहाँ लेखकों को उठाने वाली पत्रिका दूसरी लेखकों का परिचय कराने वाली पत्रिका (एकदम नवोदित )अप्रतिष्ठित, युवा छात्रों, बच्चों और स्त्रियों की रचना को प्राथमिकता तब तक नहीं मिलती जब तक वे कोईपहचान न बना लें कोई भी पुरानी पत्रिका उठाकर देख लें लगभग वही नाम फेर बदल के साथ नजर आते हैं कभी विधाएँ बदल जाती है कभी स्तम्भ (जरूरत पड़ने पर उस पर दस्तावेजी काम भी होगा )संपादकीय चुनौती यह होती है कि ऐसे रचनाकारों से निरन्तर संवाद के जरिए उनकी रचनात्मकता को दिशा और दृष्टि के साथ उत्कर्ष तक पहुंचाना होता है।उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची और दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ऐसे विरल संपादकों में थे। रचना लौटाने के साथ वे बार-बार प्रासंगिक सामग्री को रचना बनाने तक रचनाकार से लगातार संवाद करते थे।

उन्हें साहित्य चाहिए या पत्रिका को चलाने के लिए विज्ञापन प्रदाता /दान दाता

देश के दूर दराज के इलाकों में इन दोनों ने हर तबके में रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की थी| कुछ संपादकों ने कस्बों और महानगरों में अपने लोग तैयार जरूर किए, आंदोलन भी चलाए, वाणिज्यिक दृष्टि से पत्रिका को सफल भी बनाया। (अब ेलखक की समस्या है नया है तो उसे रचना की अस्वीकार्यता ‘हर्ट’ कर जाती है )ये बात उन पत्रिकाओं के लिए जिनके पास पूरा समूह है | साहित्य और पत्रकारिता में कारपोरेट युग की शुरुआत जरूर हुई थी लेकिन अब चरम पर है |

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