क्या ‘मांसाहारी-दूध’ (FBS) के लिए मजबूर है भारत ?
” गाय की कोषिकाओं से संवर्धित लैब-मेड दूध का वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मूल्यांकन तथा
जैविक इंजीनियरिंग से बने इस दूध के पीछे की वैश्विक राजनीति, बाजार के मंसूबों और भारतीय ग्राम्य समाज के मूल्य व आस्था पर संभावित प्रभावों की पड़ताल। “
[बाक्स: ] 👉 चौंकाने वाले तथ्य, जो हर भारतीय को जानने चाहिए!
- 🔴 यह ‘दूध’ नहीं, मांसाहारी उत्पाद है।
गाय के भ्रूण से निकाले गए रक्त (FBS – Foetal Bovine Serum) से तैयार, न वैज्ञानिक रूप से शाकाहारी, न नैतिक रूप से स्वीकार्य। इसे “लेबोरेटरी मिल्क” कहना छल है। - 🔴 भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक, विश्व के कुल दूध उत्पादन का 24% से अधिक का योगदान। पूरी तरह ग्राम्य अर्थव्यवस्था और छोटे किसानों पर आधारित है।
- 🔴 भारत की जनसंख्या 140 करोड की 70% आबादी परंपरा से जुड़ी हुई है व दूध का दैनिक उपभोग करती है और दूध से इनकी धार्मिक, सांस्कृतिक और पोषण संबंधी मान्यताएँ गहराई से जुड़ी हैं।
- 🔴 देश के 10 करोड़ से अधिक किसान परिवारों की रोज़ी-रोटी चलती है – जिनमें अधिकतर महिलाएं, भूमिहीन और छोटे किसान हैं।
- 🔴 अगर ‘गाय रहित दूध’ का चलन बढ़ा, तो देसी नस्लें, गोबर आधारित जैविक खेती, साहिवाल,गीर तथा राठी जैसी देशी गायों की अनमोल नस्लें और स्थानीय दुग्ध सहकारिता मॉडल खत्म हो जाएंगे।
- 🔴 भारतीय आस्था पर बाज़ार का हमला। जहां गाय को माता कहा जाता है, वहां गो-कोशिकाओं (FBS) से तैयार कृत्रिम दूध क्या स्वीकार्य होगा?
- 🔴 जलवायु Climate change या cruelty-free का बहाना बनाकर दानवी बहुराष्ट्रीय कंपनियां पेटेंट और बाज़ार पर कब्ज़ा चाहती हैं, जबकि असली मकसद नैतिकता नहीं, मुनाफा है।
जिस देश में गाय मात्र एक पशु नहीं, बल्कि आस्था, अर्थव्यवस्था और कृषि जीवन-धारा की प्रतीक रही है; जहां “गोमाता” को साक्षात धरती पर देवत्व के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है; उस देश में यदि गाय की कोषिकाओं से संवर्धित प्रयोगशाला निर्मित कृत्रिम दूध को सरकारी अनुमति देने की कवायद चल रही हो, तो यह केवल एक खाद्य तकनीकी या व्यापारिक निर्णय नहीं है , यह एक सांस्कृतिक, नैतिक और आर्थिक संकट का संकेत भी है।
हाल ही में भारत सरकार की संस्था फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (FSSAI) ने “लेबोरेटरी ग्रोथ मिल्क” को मान्यता देने के विषय में विचार-विमर्श शुरू किया है। यह दूध सीधे गाय से नहीं, बल्कि गाय की जीवित कोशिकाओं को प्रयोगशाला में लेकर बायोरिएक्टर में संवर्धित करके उत्पादित किया जाता है। इसे “क्लीन मिल्क” या “कल्टीवेटेड मिल्क” जैसे आकर्षक नामों से प्रचारित किया जा रहा है, किंतु इसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझें तो यह जीवित प्राणी की biopsy यानी ऊतक (tissue) निकाल कर, उसे कृत्रिम रूप से विकसित करने की जैव-प्रौद्योगिकीय प्रक्रिया है ।
जिसकी जड़ में ‘मांस’ की धारणा अंतर्निहित है
यह कोई वनस्पति स्रोत से तैयार प्लांट-बेस्ड विकल्प नहीं है। यह पशु-कोशिका आधारित उत्पाद है, जो प्रयोगशाला में मांस के ही तरीकों से विकसित होता है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या इसे शुद्ध शाकाहार की परंपरा में शामिल किया जा सकता है? स्पष्ट उत्तर है , नहीं, कदापि नहीं। यह शुद्ध रूप से मांसाहारी उत्पत्ति का उत्पाद है, भले ही इसे दूध कहें या गंगाजल कहा जाए।
भारत की लगभग 80% से अधिक आबादी या तो शुद्ध शाकाहारी है या सांस्कृतिक रूप से मांसाहार से परहेज़ करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी संवेदनशील है। गाय के दूध को मात्र पोषण का स्रोत नहीं, बल्कि ‘पंचगव्य’ के अंग, औषधि और धार्मिक कर्मकांड का अविभाज्य तत्व माना जाता है। ऐसे में “गो-कोशिका आधारित संवर्धित दूध” को बाजार में लाने का अर्थ है, करोड़ों भारतीयों की भावनाओं, परंपराओं और नैतिक मान्यताओं को अनदेखा करना।
शाकाहारी व्यक्ति मांस मछली पकाए गए बर्तन को हजार बार साफ करने है
जिस समाज में शाकाहारी व्यक्ति मांस मछली पकाए गए बर्तन को हजार बार साफ करने के बाद भी उसमें अपना शाकाहारी भोजन बनाने के लिए तैयार नहीं है, और उस बर्तन में तैयार भोजन खाने को तैयार नहीं है। किसी बर्तन में अगर एक बार मांसाहार पका लिया गया तो वो सभी बर्तन चम्मच तक शाकाहारी व्यक्ति के लिए अस्पृश्य हो जाते हैं, वहां गाय के भ्रूण के खून यानी Foetal Bovine Serum (FBS ) का प्रयोगशाला में कोशिका वृद्धि के लिए उपयोग करके तैयार नैतिक तथा धार्मिक रूप से आपत्तिजनक दूध को शाकाहारी भारतीय कैसे पचा पाएंगा? अभी लाख टके का सवाल है।
यदि कोई यह कहे कि यह केवल भविष्य की तकनीक है, या जलवायु संकट का समाधान है, तो हमें पूछना चाहिए जनाब किस कीमत पर? भारत की परंपरागत ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गाय केवल दूध देने वाली मशीन नहीं है। वह खेत की उर्वरता की जननी है, वह जैविक खेती की रीढ़ है, वह पर्यावरण की संरक्षक है, और वह ग्रामीण भारत की आत्मनिर्भरता का मूल आधार है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है।
भारत अकेला विश्व के कुल दूध उत्पादन का 24% से अधिक योगदान देता है, और यह पूरी तरह ग्राम्य अर्थव्यवस्था और छोटे किसानों पर आधारित है।
भारत की 70% से अधिक आबादी पारंपरिक रूप से दूध उपभोग करती है, और इसकी धार्मिक, सांस्कृतिक और पोषण संबंधी मान्यताएँ गहराई से जुड़ी हैं।
देश के 10 करोड़ ग्रामीण परिवारों की आजीविका
दूध उत्पादन से चलती है । इनमें अधिकतर 70% महिलाएं हैं तथा भूमिहीन और छोटे किसानों की सहभागिता लगभग 80 प्रतिशत हैं।
हमारे गांवों की इस बहुआयामी अति उपयोगी गो-आधारित अर्थव्यवस्था को नष्ट कर हम शहरी प्रयोगशालाओं में तैयार नकली दूध को बढ़ावा दें, तो यह केवल गोहत्या नहीं, बल्कि गो-संस्कृति की भी हत्या होगी।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी, ‘कल्टीवेटेड मिल्क’ का स्वास्थ्य व पर्यावरण पर प्रभाव अब तक पूरी तरह से परीक्षण से नहीं गुजरा है। अमेरिका में FDA ने इसे सीमित प्रयोग की अनुमति दी है, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर संशय बना हुआ है। Centre for Food Safety, Cornell Alliance for Science, जैसे संस्थानों ने चेतावनी दी है कि “Cultivated meat or milk may carry unknown risks due to the use of growth hormones, genetic engineering, and cell mutation.” ऐसे उत्पादों के दीर्घकालिक उपभोग से मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव हो सकते हैं।
इसके अतिरिक्त, ये प्रयोगशाला उत्पाद आमतौर पर GMOs, सिंथेटिक हार्मोन, और high-energy bioreactor processes पर आधारित होते हैं — जो प्रकृति और पारिस्थितिकी के लिए खतरनाक हो सकते हैं। क्या हम ऐसी चीज़ को उस भारत में स्वीकार कर सकते हैं, जहां ‘अन्नदाता’ खेत में गाय की गोबर से जैविक खेती करता है और वही दूध-गोमूत्र से औषधि बनाता है?
मांस आधारित अर्थव्यवस्था को जलवायु संकट से जूझना
अमेरिका, सिंगापुर और इज़राइल जैसे देशों में इस तकनीक को इसलिए विकसित किया गया क्योंकि वहां की मांस आधारित अर्थव्यवस्था को जलवायु संकट से जूझना पड़ रहा था। वहां ‘सस्टेनेबिलिटी’ के नाम पर यह प्रयोग किया जा रहा है, किंतु भारत में जहां हर घर के बाहर एक गाय पालना अभी भी संभव है, वहां क्यों इस तकनीक को आयातित किया जा रहा है?
भारत के पास पहले से ही दुनिया की सबसे समृद्ध पशुपालन परंपरा है। यदि सरकार डेयरी सेक्टर को सशक्त करना चाहती है, तो वह स्थानीय नस्लों की गायों के संरक्षण, देशज चारे की पुनर्बहाली, और जैविक दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा दे। Operation Flood जैसी योजनाओं ने भारत को विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बनाया था। अब उसी भारत में ‘गाय-मुक्त दूध’ को बढ़ावा देना, हमारी कृषि व संस्कृति दोनों के लिए विनाशकारी होगा।
यहां यह भी जानना आवश्यक है कि ऐसे ‘लेबोरेटरी दूध’ को प्रमोट करने वाली अधिकांश कंपनियां बहुराष्ट्रीय निगम हैं, जिनका असली उद्देश्य भारत जैसे विशाल बाज़ार में अपनी पेटेंट टेक्नोलॉजी बेचना है। वे न केवल दूध, बल्कि उसकी प्रक्रिया को पेटेंट करवाकर भारतीय डेयरी को नियंत्रित करना चाहती हैं। अगर एक बार ऐसा दूध मान्यता पा गया, तो आगे चलकर वही कंपनियां कहेंगी कि ‘गाय रखने की क्या आवश्यकता? हम आपको पैकेज में बिना गाय वाला दूध देंगे।’
तकनीक वही श्रेष्ठ है जो जीवन और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को बढ़ावा दे
हमारे देश के नीति-निर्माताओं को यह समझना होगा कि “तकनीक वही श्रेष्ठ है जो जीवन और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को बढ़ावा दे।” भारत का ग्राम और ग्राम की गाय ,, केवल उत्पादक इकाई नहीं, वह सभ्यता का आधार है। जहां ‘गऊ’ है, वहां ‘ग्राम’ है। और जहां ग्राम है, वहीं से देश की आत्मा बोलती है।
आज विश्व व्यापार संगठन, WTO, IPEF, FTA,s (Free Trade Agreements) और द्विपक्षीय व्यापार समझौतों के ज़रिए दबाव डाला जा रहा है कि भारत इसे “वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सुरक्षित” मानकर अनुमति दे। किंतु भारत ने अब तक इसे मंजूरी नहीं दी है जोकि उचित ही है।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि:-
अभी तक इस दूध के लंबे समय तक सेवन से होने वाले प्रभावों पर पर्याप्त शोध नहीं हुए हैं।
* इसमें प्राकृतिक एंज़ाइम, प्रोबायोटिक तत्व, रोग प्रतिरोधक इम्युनोग्लोब्युलिन आदि नहीं होते, जो असली दूध में पाए जाते हैं।
• यह दूध गाय के भ्रूण से निकाले गए रक्त से निर्मित होता है, इसलिए हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्मों में पूरी तरह वर्जित है।
आईफा तथा साथी किसान संगठनों का यह स्पष्ट मत है कि ऐसे उत्पादों को भारत में न केवल ‘मांसाहारी’ श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए, बल्कि इन पर स्पष्ट चेतावनी भी होनी चाहिए कि यह गाय की कोशिका FBS से संवर्धित है तथा यह ‘प्राकृतिक दूध नहीं है’ । साथ ही इनकी traceability, उत्पादन प्रक्रिया की पारदर्शिता, और धार्मिक-सांस्कृतिक आस्था का सम्मान सुनिश्चित किया जाए।
कहीं ऐसा न हो कि बहुराष्ट्रीय दबाव में आकर हम अपने देसी गायों की परंपरा, ग्रामीण आजीविका, और शाकाहार की मूल अवधारणा को खो बैठें। यह लड़ाई केवल दूध की नहीं, यह लड़ाई संस्कृति और सामर्थ्य की है।
अतः हम भारत सरकार से अपील करते हैं कि वह किसी भी निर्णय से पूर्व देश के किसानों, उपभोक्ताओं, आचार्यजनों, वैज्ञानिकों और नीति-विशेषज्ञों से व्यापक संवाद करे। ऐसा कोई निर्णय न हो जो भारत की ग्राम-आधारित अर्थव्यवस्था, हमारी धार्मिक आस्थाओं और लाखों पशुपालकों की आजीविका को हानि पहुंचाए।
क्योंकि प्रश्न केवल आस्था का नहीं, अस्तित्व का है।
(लेखक : , कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ एवं देश के किसान संगठनों के सबसे बड़े महासंघ, ‘अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक हैं।)