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झंडा पंडुम (पूनम वासम की कविता)

नाका के उस पार ‘सभ्यताएं’ बुढ़ा गई हैं
बुढ़ा गई सभ्यताओं ने कभी नहीं देखा
‘झंडा पंडुम’ मनाते
अपने किसी नेतृत्वकर्ता को!

एक तेरह साल के बच्चे ने अभी-अभी
चखा दोनी भर बूंदी का स्वाद
जाना तीन रंग क्यों होते हैं तिरंगे में
‘केसरिया’ रंग पहली दफा सुनकर वह थोड़ा चौक गया!

गुरुजी ने बताया यह आजादी का अमृत महोत्सव है
हम एक पूर्णतः आजाद देश के नागरिक हैं
जहाँ हमें अपनी मर्जी का जीवन चुनने की
पूरी आजादी है!

तेरह साल का बच्चा देखता है गौर से
तिरंगे के बीचों- बीच गोलचक्र
उसे बैलगाड़ी के पहिये याद आते हैं
वही बैलगाड़ी जिसमें उसके पिता ढोकर लाये थे
पुलिस जवानों की सड़ी हुई लाशें
उसके भाई की लाश के साथ!

उसकी पन्द्रह साल की बहन आई थी शहर के अस्पताल
एक दिन पड़ोसी कह रहा था किसी अखबार में उसने
हरी वर्दी पहनें खून से सनी हुई उसकी तस्वीर देखी है
सब कहते हैं वह लड़ाकू महिला थी मारी गई!

गुरूजी सुना रहे थे अमर शहीदों की कुर्बानियां
कैसे गुलामी की जंजीर तोड़कर हमें मिली है यह आजादी

तेरह साल का बच्चा झण्डे का सफेद रंग छूना चाहता है अपनी हथेलियों से
उसने अपनी आया, अपनी अत्ता
अपनी काकी को देखा था
सफेद चादर में एक साथ विदा होते हुये
जंगल मे भेड़ियों ने उन पर आक्रमण कर दिया था
ऐसा उसके बाप ने बताया!

गाँव के सारे मर्द एक दिन अचानक गायब हो गये

शहर जाकर पढ़ने वाले उसके दोस्त समलू की जुबान से पहली दफा जाना उसने सश्रम कारावास की सजा वाली जेल का पता
उसे यह पता है ‘बीज पंडुम’ मनाते हुये भीड़ में नहीं बदलना चाहिए गाँव को!

गाँव की हवा, गाँव का पानी, गाँव की हरियाली, गाँव का पेड़, गाँव का खेत, गाँव का दर्द विस्थापित नहीं किया जा सकता कहीं और!

‘कातिकार’ जानता है जंगल का दुःख सामूहिक दुःख है

तेरह साल का लड़का पूछना चाहता है गुरुजी से सवाल
जहां मृत्यु एक पर्व है, वहाँ ‘झंडा पंडुम’
के नाम पर एक दोनी बूंदी, दो बिस्कुट, दो समोसा से सजी हुई डिस्पोजल प्लेट का नाम ही आजादी है क्या?

 

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