ग़ज़ल “शिज्जु शकूर”

वो कहा उसने यहाँ जिसका कोई चर्चा न था
दर-हकीकत उसको सच कहना न था सुनना न था

 

भीड़ में बे-पैरहन तो वो थे उर्यां तू हुआ
शर्म का फिर भी तेरी आंखों में इक कतरा न था

 

हर तरफ़ क़ातिल नज़र आने लगे हैं आजकल
वो मैं ही था जो कभी सच कहने से डरता न था

 

इतनी तो मुबहम न थी आवाज़ मेरे दर्द की
जो ये कहते हो तुम्हें शिद्दत का अंदाज़ा न था

 

झूठ के माहौल ने उनको बदलकर रख दिया
वरना मेरा दोस्त कोई ऐसा या वैसा न था

 

देख अम्न-ओ-चैन लुटते भी न उठती थी नज़र
और कहते हैं निगहबां हमने कुछ देखा न था

शिज्जु शकूर
रायपुर, छत्तीसगढ़

बे-पैरहन – बे-लिबास, उर्यां – नग्न, मुबहम – अस्पष्ट
शिद्दत – तीव्रता, निगहबां – रखवाला

 

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