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नांदगाँव के वैभव का दर्शन करने वाले, इतिहासकार स्व. गणेश शंकर शर्मा

by satat chhattisgarh
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Ganesh Shankar Sharma, who saw the splendor of Nandgaon

अपने रहने वाली जगह में डूबे रहकर उनके इतिहास को पढ़ने और अगली पीढ़ी तक प्रसारित करने वाले लोग बिरले होते हैं. ऐसे ही बिरली शख्सियतों में से एक थे नांदगाँव नगर के ख्यातिनाम लेखक और इतिहासकार स्व. गणेश शंकर शर्मा. स्व. शर्मा ने नांदगाँव को जन्म से अंत तक अपनी कर्मस्थली बनाये रखा. वे कहते थे “मुझे मेरे लेखन से पहचानने से ज्यादा ज़रूरी है मेरे लेखन से मेरे शहर को पहचाना जाये.” कुछ लोग केवल जगह जानते हैं और कुछ लोग केवल लोग ही जानते हैं. पर वे नांदगाँव के साथ साथ उसे संस्कारवान बनाने वालों को भी जानते थे.

नांदगाँव का इतिहास अत्यंत समृद्धशाली और विस्तृत रहा है

नांदगाँव छत्तीसगढ़ में बैरागी वैष्णव राजाओं द्वारा संचालित की सबसे बड़ी रियासत थी जिसका वैभव प्रसिद्द था. धीरे धीरे नांदगाँव नगर के लोगों की सक्रियता और रूचि के चलते इसमें अन्यान्न आयाम जुड़ते चले गए. एक छोटा सा शहर विविधताओं से भरा शहर होता चला गया. विविधताएं जुड़तीं गयीं और विलुप्त भी होतीं गयीं. यही विविधताएं उनकी रूचि का विषय रहीं. नगर के इतिहास की हर नब्ज़ पर गहन दृष्टि रखने वाले और इतिहास-लेखन पर नितांत तथात्मकता के पक्षधर स्व. शर्मा ने अपने स्तम्भों और किताबों के माध्यम से इस  शहर की नई पीढ़ी को उसके इतिहास से जोड़ने का बिरला काम किया. लिखने की रूचि बचपन से थी. एक बार उन्होंने बताया की वे म्युनिस्पल स्कूल, नांदगाँव की कक्षा छठवीं में पढ़ते थे तब अपने गुरु के निर्देशन में एक ‘वाल-मैगज़ीन’ में लिखा करते थे. दीवार का कालिख पुता भाग ही वाल मैगज़ीन थी. उस मैगज़ीन पर बच्चे सुविचार कवितायेँ आदि लिखते थे. लिखने का यह सिलसिला चलता रहा. महू से स्नातक की पढाई के दौरान वे इंदौर से प्रकाशित ‘नई दुनिया’ के सम्पादकीय विभाग में नौकरी करने लगे. वापस लौटकर नांदगाँव आये तो अपना सबसे पहला स्तम्भ ‘मेरे नगर की डगर डगर’ लिखना शुरू किया. इस स्तम्भ ने नव निर्मित नांदगाँव जिले में काफी प्रशंसा बटोरी. जब पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय शुरू हुआ तो वे भूगोल में स्नातकोत्तर करने के लिए रायपुर गए. वहाँ भी पढाई के दौरान ही स्व. रमेश नैयर के साथ तत्कालीन प्रसिद्द अखबार “युगधर्म” में कार्य करने लगे. दिनभर पढाई और साँझ ढलते ही अखबारी लेखन.  “युगधर्म” में काम करने के साथ ही उन्होंने ‘भूगोल शोध पत्रिका’ का सम्पादन प्रकाशन शुरू किया. ‘भूगोल शोध पत्रिका’ तत्कालीन मध्यप्रदेश में भूगोल केंद्रित पहली शोध पत्रिका थी. यह सिलसिला चल ही रहा था कि नौकरी लगी रायपुर के पंडरी स्थित महावीर स्कूल में. यहाँ रहकर वे भूगोल के स्थापित व्याख्याताओं में जाने जाने लगे, पर मन तो नांदगाँव में ही लगा रहा.

हस्तलिखित पत्रिका ‘अनुभूति’

महावीर स्कूल में रहते हुए विद्यार्थियों से अपने सम्पादकत्व में एक हस्तलिखित पत्रिका ‘अनुभूति’ पर काम करवाया. यह अभूतपूर्व कार्य था. अच्छे किस्म के कागज पर हाथ से छात्रों और शिक्षकों ने सुन्दर लिखावट में रचनायें लिखीं. फिर  छात्र कलाकारों ने प्रत्येक पृष्ठ को बेल-बुतों अदि से सजाया. सीमित संसाधन और कठिन परिश्रम से तैयार ‘अनुभूति’ का विमोचन कराने की जिज्ञासा उनको नांदगाँव ले आयी. पत्रिका का विमोचन उनके प्रिय साहित्यकार साहित्य वाचस्पति पदुम लाल पुन्नालाल बक्शी जी ने किया जबकि रायपुर में कई व्यक्तित्व थे और शाला भी रायपुर की ही थी. शहर से प्रेम जनित संयोग कुछ ऐसा था कि तत्कालीन दुर्ग जिले के साजा में कुछ समय तक नौकरी करने के बाद वे अपने शहर नांदगाँव के स्टेट स्कूल के व्याख्याता के रूप में आ गए. उन्होंने बताया था कि स्थानांतरण हेतु उनसे तीन विकल्प मांगे गए थे. उन्होंने तीनों विकल्प नांदगाँव कि स्टेट हाई स्कूल ही लिख दिया दिया, जिसे देखकर भोपाल के अधिकारी भी सन्न थे.

नांदगाँव उनकी केवल कर्म स्थली नहीं थी बल्कि उनका जीवन चिंतन था. स्टेट स्कूल में रहकर शहर को खूब समय देने का मौका मिला. उन्होंने यह नहीं सोचा कि कि खुद को घर और स्कूल तक सीमित कर लिया जाये बल्कि इसके उलट इस विविधताओं भरे सलौने शहर को पढ़ने, समझने और उसकी गहराइयों तक विश्लेषण करने में पूरा समय खपा दिया. वर्षों की इसी सरस्वती साधना का परिणाम था उनका लोक्रपिय स्तम्भ ‘अपना नांदगाँव’. इस स्तम्भ ने पूरे क्षेत्र में अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की. यह स्तम्भ हर सोमवार को, जो की उनका सबसे प्रिय वार था, को प्रकाशित होता. इसमें नांदगाँव रियासत के साथ साथ नगर के कई अनछुये पहलू पर सरल और तथ्यात्मक शैली में आलेख होते. आलेखों की सरल शैली के साथ साथ तथ्य और पुराने फोटोग्राफ़ इसके आकर्षण होते. एक एक आलेख के लिए खूब मेहनत करते. सप्ताह भर या कभी पूरे पखवाड़े भर जगह जगह जाते, सम्पर्क करते और सामग्री जुटते तब एक आलेख निकल कर आता. तब न मोबाइल थे न रिकॉर्डिंग की सुविधा जो कुछ भी था वह नोट्स और स्मृति पर निर्भर था.

मां , पिताजी व मैं-दिवाकर मुक्तिबोध

वे खूब लिखते, खूब पढ़ते. इतना लिखते पढ़ते की हम उनको इस क्रिया में लगा देखकर थक जाते.  मुझे याद है उस समय वे व्याख्याता के अलावा स्टेट स्कूल के एनसीसी अफसर भी थे. इस नाते वे शालेय प्रतिबद्धताओं में बेहद व्यस्त भी रहते. दिन भर दौड़भाग के बाद देर रात तक अपने पसंदीदा लाइन वाले फुलस्केप कागज़ पर लिखना उनके सुकून का एकमात्र कारक  था. जब यह प्रसिद्द स्तम्भ सबेरा संकेत में प्रकाशित हो रहा था तब उनको एक माह की एनसीसी ट्रेनिंग के लिए कामठी स्थित ऑफिसर्स  ट्रेनिंग स्कूल में जाना पड़ा. वे जाने से पहले चार पांच आलेख छोड़ गए. निर्देश यह था की ‘इसको सुशील को या मुन्ना भैया को ही देना है वो जानते हैं कैसा [आलेख] जायेगा, तू साइकिल से दे आएगा न.’ वो मुस्कान और विश्वास भरा निर्देश था. इस लेखमाला काफी लम्बे समय तक ‘सबेरा संकेत’ में प्रकाशित होती रही. लेखमाला का हर आलेख पहले ही  बातों बातों में उनसे घर में ही सुन लिया जाता. आलेख जब प्रकाशित होता तो उसे वे फिर एक बार पढ़ते और हमको भी पढ़ने कहते ताकि कक्षागत पढाई के अलावा अपने शहर के बारे में भी पढ़ते रहे. चाहे मैं घंटों अखबार पढता रहूं उन्होंने मुझे इसके लिए टोका नहीं. ‘अपना नांदगाँव’ को लिखते पढ़ते वे कभी ऊबते या थकते  नहीं बल्कि उसके प्रकाशन के बाद अगले आलेख के लिए उर्जित हो जाते. अपने हर आलेख के प्रति ‘सबेरा’ के तत्कालीन सम्पादक स्व. शरद कोठरी, राजूलाल पांडे और नंदूलाल चोटिया की हर प्रतिक्रिया उन्हें लगभग कंठस्थ  थी. रियासत के विषयों के अलावा बीएनसी मिल और उससे जुड़े आंदोलन तथा ठाकुर प्यारेलाल सिंह की जानकारियां तो जैसे जुबान पर ही थीं.

दो किताबें लिखीं गयी

बहुत निवेदन के बाद भी वे न तो ‘मेरे शहर की डगर डगर’ और न ही ‘अपना नांदगाँव’ जैसी ख्यातिनाम आलेख श्रृंखलाओं को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने के लिए राजी हुए. उनका कहना था कि ‘यार जो लिख गया वो लिख गया, अब जो लिखना है नया लिखा जाये….वही वही क्यों. नया लिखा जाये… एक बार कि मेहनत को दस बार नहीं भुनाते.” इसी विचार के चलते दो किताबें लिखीं गयी- “डोंगरगढ़ क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत” और  “राजनांदगाँव जिले का सांस्कृतिक वैभव” .  २३ फरवरी २०२३ को देव होने के ठीक पहले तक यदि कोई अध्येता राजनाँदगाँव जिले से संबंधित कोई भी जानकारी लेने उनके पास पहुँच जाये तो वे रुचिपूर्वक घंटों उसे समय देते.

‘यार झरोखा लिख रहा हूँ

ऐसा नहीं है कि उन्होंने केवल अपने नगर पर ही लिखा हो, जितना अपने प्रिय नगर पर लिखा उतना ही अपने नगर के पाठकों को राष्ट्रीय और अंतरष्ट्रीय मुद्दों से जोड़ने के लिए लिखा. ‘सबेरा संकेत’ में ही प्रकाशित उनकी स्तम्भ/आलेखश्रृंखला “बैठ झरोखे जग का मुजरा देख” पूरे अंचल मैं सबसे चर्चित स्तम्भ था. यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित था और उस समय जब इंटरनेट जैसी सुविधाएं न थी तो यह स्तम्भ ‘सबेरा’ के पाठकों के लिए एक श्रोत हुआ करता था. वे इसे कहते ‘झरोखा’ . जब इस पर लिख रहे होते तो कहते  ‘यार झरोखा लिख रहा हूँ, थोड़ा….’ बस इशारा समझना होता कि ‘झरोखा’ लिखे जाने के बनिस्बत करना क्या है. इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय इतिहास से जुड़ी दो आलेख श्रृंखलाएं आयीं- पहले छपी “इस तरह आये अंग्रेज हिन्दुस्तान में” और जब ये समाप्त हुई तो दूसरी थी “इस तरह गए अँगरेज़ हिन्दुस्तान से.”

शहर के लोगों को शहर के बारे में जानना ज़रूरी है

वे मानते थे कि शहर के लोगों को शहर के बारे में जानना ज़रूरी है क्यों इससे वे अपने शहर के प्रति संवेदनशील बनते हैं. अपने शहर की विभूतियों  पर उन्होंने चार ग्रंथ लिखे दो पदुम लाल पुन्नालाल बक्शी जी पर, एक पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र जी पर, और एक अपने प्रिय अग्रज मित्र श्री शरद  कोठारी पर. मुक्तिबोध पर एक किताब उनकी लिखी अभी अप्रकाशित  है. उन्होंने किशोरी लाल शुक्ल और शरद कोठारी को नगर के स्वरुप का भागीरथी माना. रियासत के राजाओं ने जो स्वरुप नांदगाँव को दिया उस स्वरुप को और निखारने का काम शुक्ल जी और कोठरी जी ने किया. शुक्ल जी नहीं होते तो यह शहर वैसा न होता जैसा है.   वे कहते थे कि कोठरी जी न होते तो यहाँ हिंदी और पत्रकारिता  में जो नांदगाँव का यश है वो नहीं होता. इसी चिंतन के परिणाम स्वरुप कोठरी जी पर केंद्रित एक ग्रंथ की रचना कि ‘ बिसराये न बिसरे शरद कोठारी.’

यह उनके अध्य्यन का विस्तार ही था कि इतिहास के साथ साथ भूगोल, पुरातत्व, भारतीय दर्शन,  हिंदी साहित्य और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर भी उनकी पकड़ मजबूत थी. विषय कोई भी हो उनके पास उनसे जुड़े तथ्य  और तर्क दोनों होते. उनका एक कहानी संग्रह भी है. उनको घंटों सुनकर भी बोरियत महसूस न होती. लेखन के प्रति उनका समर्पण स्तुत्य था. दुःख यह है कि वे, जो खूब कहते और खूब बताते-  उनका यूँ बिना कुछ बताये छोड़ कर चले जाना एक अवाक कर देने वाली दुर्घटना ही है. उनके लिखे हुए का वजन आंकना मुश्किल है.

डॉ. चन्द्र शेखर शर्मा

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