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कितना बहुत है (कविता )

विनोद कुमार शुक्ल

by satat chhattisgarh
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How much is there (poem)

कितना बहुत है

परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं

एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ

अतिरिक्त एक पत्ती नहीं

एक कोंपल नहीं अतिरिक्त

एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद।

अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद

न उसका एक कलश गंगाजल,

बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्र

न उसका एक अंजुलि जल

और इतना सारा एक आकाश

न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक।

कितनी कमी है

तुम ही नहीं हो केवल बंधु

सब ही

परंतु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।

 

  • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 20)
  • रचनाकार : विनोद कुमार शुक्ल
  • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन 
  • संस्करण : 2012

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