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यह बेचैन करने वाला समय है

Bangladesh : 1905 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने धर्म के आधार पर बंगाल को तोड़ा और उस समय उड़ीसा, झारखंड, असम, छत्तीसगढ़ तक विस्तृत बंगाल के टुकड़े किए, जिसे बंग-भंग के नाम से इतिहास में याद किया जाता है, तब उसके विरोध में पूरा देश उठ खड़ा हुआ था। साहित्य के लिए बाद में नोबेल पुरस्कार पाने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- कि आज अगस्त के महीने में जिस दिन बंगाल को हिंदू-मुसलमान की बुनियाद पर बाँटा गया, संयोग से यह दिन रक्षाबन्धन के त्यौहार का दिन है। उन्होंने हर अविभाजित बंगाली से, बिना धर्म की परवाह किये, एक-दूसरे की कलाई में राखी बांधने का आह्वान किया। यह बंग-भंग की साज़िश का सबसे बड़ा प्रतिरोध था। इसी का नतीजा था कि सिर्फ़ छह साल बाद ब्रिटेन के राजा (संभवतः जॉर्ज पंचम) ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ैसले को न सिर्फ़ पलट दिया, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की कमान कंपनी से छीन कर, अपने हाथ में ले ली। यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि टैगोर के गीत ही बांग्लादेश और हमारे राष्ट्रगीत रहे हैं। साहित्य जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
बाद में 1947 तक और फिर 1975 तक के बीच यह जो कुटिल ‘फूट डालो राज करो ‘ की हिंसाओं, पलायन, उत्पीड़न खेल चला, उसके गवाह मेरी उम्र के तमाम लोग हैं।

किसी भी तरह की कट्टरता हमेशा मानवता, परस्पर सौहार्द्र और विकासशील लोकतांत्रिक आधुनिकता की शत्रु होती है।

शेख़ हसीना ही नहीं, उनके पिता शेख़ मुजीबुर्रहमान, जिन्हें मज़हबी फ़िरक़ापरस्ती और कट्टरता के विरुद्ध खड़े होने वाले योद्धा –‘बंग-बंधु’ के रूप में, हमारी पीढ़ी के लोग याद करते हैं, के घर में अचानक दाखिल हो कर उनके पूरे परिवार को, जिनमें उनका दस साल का छोटा बेटा भी था, गोलियों से भून डाला गया। हसीना और उनकी छोटी बहन इसलिए जीवित बच सकीं क्योंकि तब वे जर्मनी में थीं और वहाँ से भारत आ गयीं थीं। वे भारत की पारंपरिक मित्र हैं और यही पारंपरिक परंपरा बंगाल की संस्कृति है, जिसने देश को इतनी बड़ी प्रतिभाएँ दीं, जिनके सामने तोड़-फोड़वादी, विभाजनकारी ताक़तें बहुत क्षुद्र और बौनी हैं।
आगे क्या होगा, पता नहीं, लेकिन इतना तो महसूस होता है कि बांग्लादेश की सेना और प्रशासन के अलावा वहाँ की सामान्य जनता का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी भारत या अपने संपूर्ण बंगाल से प्यार करता है। भारत और बांग्लादेश के बीच का क्रिकेट मैच चाहे कोलकाता में खेला जाय, या ढाका, मुंबई या राँची में, वह हमेशा उसी पारस्परिक सौहार्द्र से भरा हुआ होता है।


कल रात से सुनाई पड़ रहा है कि इकोनॉमिक्स के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बांग्लादेश के स्कॉलर और एक्टिविस्ट मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का प्रधान बनाने की संभावना है। अगर ऐसा है, तो यह बहुत अच्छी संभावना है। यूनुस ने अपनी अर्थनीति की नींव में महात्मा गांधी को रखा है। रूरल बैंकिंग और उसमें भी क़र्ज़ सिर्फ़ महिलाओं को देने की उनकी नीति किसी छोटी-मोटी जेंडर इकोनॉमिक सामाजिक क्रांति से कत्तई कम नहीं। उसी की बदौलत शेख़ हसीना के कार्यकाल में बांग्लादेश की जीडीपी पड़ोसी देशों से ऊपर निकल गई थी। ख़ुशहाली की जीडीपी भी हमसे ऊपर थी। वहाँ की नौजवान पीढ़ी उत्पादक कामों में जुटी हुई थी, फ़िरक़ापरस्ती और मज़हबी उन्माद के घोर अनुत्पादक कामों से वह दूरी बनाती जा रही थी।
मेरी राजनीतिक समझ लगभग नहीं के बराबर है, लेकिन लगता है कि मूलतः बंगाल से जुड़ी जो अन्य वैश्विक प्रतिभाएँ हैं, जिनका काम अर्थशास्त्र पर ही आधारित रहा है, और जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है, अगर बांग्लादेश की इस अंतरिम सरकार में किसी तरह उन्हें भी हमारी मौजूदा सरकार द्वारा जोड़ा जाय, उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाय, तो यह इस नये बंग-भंग का सबसे दबंग प्रतिरोध होगा।

वे दो नाम हैं – पहला, अमर्त्य सेन और दूसरा -अभिजीत बनर्जी।

लेकिन सिर्फ़ सत्ता और संपदा पर निगाह लगाये रखने वाली कौन-सी ताक़त ऐसा होने देगी?

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