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विमर्शवाद की सीमाएँ – अजय तिवारी

स्त्रियाँ जन्म से ही असमान पैदा हुई हैँ

कवयित्री सविता सिंह ने कहा है कि “स्त्रियाँ जन्म से ही असमान पैदा हुई हैँ।” उनके साक्षात्कार में यह सुनकर मेँ सोचने लगा कि अगर यह असमानता केवल सामाजिक सम्बन्धों और सांस्कृतिक बोध से सम्बद्ध होती तो उसके प्रतिकार का तरीका अलग होता। अगर यह असमानता “जन्म” से है तो संघर्ष बिल्कुल अलग धरातल का होगा।

इस समझ का एक नतीजा यह होगा कि जन्म की असमानता से निकलने के लिए ईश्वर या प्रकृति के विरुद्ध लड़ना होगा.

दूसरा नतीजा यह निकलेगा कि सामाजिक सम्बन्धों मेँ स्त्रियों के प्रति असमानता का व्यवहार प्रकृति की रचना को ही वैध बनाने का उपक्रम है। इसके लिए सामाजिक संबंधों का दोष ज्यादा नहीं है.

तीसरा नतीजा यह होगा कि सांस्कृतिक बोध के स्तर पर इस असमानता को अंगीकार करना प्रकृति की रचना और समाज के सम्बन्धों का ही औचित्य या आदर्शीकरण है।

इसमेँ अस्वाभाविक क्या है? संस्कृति हमेशा प्रकृति और समाज के परिवेश पर आधारित होती है। प्रकृति ने जलवायु की विभिन्नता के आधार पर पूरी धरती मेँ चार रंग के मनुष्य विकसित किये हैं: काले, गोरे, भूरे और पीले। इनमें रंग के आधार पर भेदभाव होता रहा है।

ऐसा भेदभाव तब शुरू हुआ जब गोरी जातियों ने दूसरे मनुष्यों को गुलाम बनाकर अपने स्वार्थ साधे। ज़ाहिर है कि ऐसा भेदभाव सामाजिक विषमता का परिणाम है जिसे नैसर्गिक बनाकर पेश करना प्रभुत्वशाली और उत्पीड़क समुदायों (वर्गों) का स्वभाव होता है. लेकिन प्रकृति ने मनुष्य को समान गुणों से विभूषित किया था। इसलिए रंगभेदवाद के विरुद्ध सारी मानवता लड़ती आयी है। यहाँ एक बात याद रखना ज़रूरी है कि प्राचीन मिस्र, यूनान और रोम की दासता सामाजिक विषमता का द्योतक अवश्य थी लेकिन उसमें नस्लवाद और रंगभेदवाद नहीं था. ये दोनों नए युग की व्याधियाँ हैं.

दूसरे शब्दों में, प्रकृति ने भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणी और मनुष्य उत्पन्न किये लेकिन उनमें भेदभाव एक विशेष ऐतिहासिक अवस्था में, सामाजिक सम्बन्धों के विशेष स्वरुप के चलते प्रचलित हुआ. यही बात स्त्रियों के बारे में कहनी चाहिए. प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को पूरक और सहयोगी के रूप में जन्म दिया था. उनमें असमानता का आविर्भाव व्यक्तिगत संपत्ति के चलन के बाद हुआ. जब समाज नाम की सत्ता का अस्तित्व सामने आया तब पहले मातृसत्ताएँ ही प्रकट हुई थीं. लेकिन श्रम विभाजन के आदिम रूप से विकास में जो गतिरोध आता था, उससे निकलने के क्रम में पितृसत्ता का आविर्भाव हुआ. यहाँ हमें इस बारे में चर्चा नहीं करनी करनी है क्योंकि सविता सिंह इस इतिहास से परिचित होंगी. हम यह भी नहीं पूछते कि अगर मातृसत्तात्मक प्रणाली सार्वकालिक, सक्षम और प्रगतिशील थी तो वह लुप्त क्यों हुई? इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उसका स्थान लेने वाली पितृसत्ता न्यायसंगत है. यदि ऐसा होता तो समाज में स्त्रियों के उत्पीड़न के नानारूप सदियों से चले न आ रहे होते. इन रूपों का विरोध भी मानवतावादी लोगों ने किया है. प्रारंभिक आधुनिकता के लोकजागरण के दौर में हिन्दिक्षेत्र की मीरा ही नहीं, तुलसीदास भी स्त्री की दासता का तीव्र प्रतिवाद करते हैं; हिंदीप्रदेश के बाहर तमिक में अंदाल, कन्नड़ मवी अक्क महदेवी और कश्मीरी मई ललद्यद महँ कवयित्रियाँ हुई हैं. इनमें तुलसीदास का महत्व यह है कि नारीविरोधी कहे जाने के बावजूद अकेले उन्होंने जिस तरह स्त्री की पराधीनता को समझा, उस तरह योरोप में भी तब तक किसी ने नहीं समझा था—‘कत विधि सृजी नारि जग माहीं. पराधीन सपनेहु सुख नाहीं..’ नारी परधीन है और पराधीन मनुष्य को सपने में भी सुख नहीं मिलता—यह असाधारण करुणाजनित चेतना है.

इसी प्रकार भारतीय समाज मेँ वर्ण व्यवस्था प्रकृति ने नहीं बनायी थी, वह सामाजिक विकास की एक मंज़िल पर विकसित हुई है। इसलिए मध्यकालीन सामंती वातावरण में भी इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था का विरोध सुबुद्ध लोगोँ ने बराबर किया। आधुनिक जीवन और तद्नुरूप चेतना के प्रसार के साथ जातिगत भेदों के उन्मूलन का संघर्ष तेज़ होने लगा। खुद डॉ. अंबेडकर ने जाति निर्मूलन का विचार प्रस्तुत किया। वास्तव में, एक तरफ अगर वर्ण व्यवस्था के रक्षक निहित स्वार्थ उसे दृढ़ करने के उपाय करते रहे हैं तो दूसरी तरफ चार्वाक से लेकर डॉ. आंबेडकर तक यथार्थवादी दार्शनिक और समाज सुधारक उसे मिटाने का संघर्ष भी करते आये हैं. विवेकवादी चिंतन कहता है कि जो प्रथा इतिहास की एक मंजिल पर उत्पन्न हुई है, वह दूसरी मंजिल पर विलीन भी हो जाएगी.

लेकिन जब से “विमर्शों” का दौर आया है, तब से इतिहास और समाज व्यर्थ हो गए हैं, मनोगत भावना प्रमुख हो उठी है। सच तो यह है कि इन उत्पीड़नकारी प्रथाओं और प्रणालियों को मिटाने का संघर्ष कमज़ोर पड़ा है, उसकी जगह उत्पीड़ित पहचान के आधार पर लाभ और अवसर बटोरने का प्रयास तीव्र हुआ है. स्वभावतः जातिगत विमर्श ने उपजातीय विमर्शों का रूप ले लिया है. सभी उत्पीडित एकजुट होकर संघर्ष करें—‘धोबी-पासी-चमार-तेली/ खोलेंगे अँधेरे का ताला/ एक पाठ पढेंगे,–इसके बजाय सभी अलग-अलग अपने लिए सुविधाओं की माँग करेंगे! अकेले चने के भाड़ फोड़ने के हौसले से उत्पीड़नकारी व्यवस्था को नुकसान पहुँचने की आशंका नहीं है. इसके बजाय उत्पीड़ितों को तोड़ने, मिलाने और कुचलने में आसानी होती है.

यह बात इसलिए कहनी पड़ती है कि स्त्री हो या अश्वेत अथवा दलित, इनके सवाल पर सही दृष्टिकोण तभी अपनाया जा सकता है जब यथार्थ से भावना की ओर चलें, भावना को यथार्थ पर आरोपित करने से कुछ नहीं होगा—सिवा कुछ लोगोँ को पुरस्कार/फेलोशिप प्राप्त होने के!

जैसे, स्त्री अगर जन्म से ही असमान पैदा हुई है तो उसमेँ पुरूष का क्या दोष? पुरूष करे क्या!??

स्त्री ‘असमान’ है तो किसकी तुलना में? अवश्य पुरुष की तुलना में. ज़ाहिर है, स्त्री-पुरुष “समान” नहीं हैं. इसलिए यह कहना ज्यादा सही है कि सामाजिक संबंधों में असमानता है इसलिए स्त्री स्वाधीन नहीं है. स्वभावतः सामाजिक संबंधों की यह असमानता संघर्ष का क्षेत्र होगा. जहाँ इस प्रकार के ‘सामाजिक सम्बन्ध’ नहीं हैं, वहाँ कार्यक्षेत्र का बंटवारा और भिन्नता चाहे जितनी हो, असमानता हैं है.

अगर हम द्वंद्वात्मकता के विचार को मानते हों तो यह समझाने की ज़रूरत नहीं है कि मनुष्यों में ही नहीं, अन्य प्राणियों में भी, यहाँ तक कि वनस्पतियों मेँ भी नर और मादा होते हैं। पराग देने वाले वृक्ष और फल उगाने वाले वृक्ष अलग-अलग होते हैं। क्या इन वनस्पतियों मेँ भी ‘मादा’ वनस्पतियाँ “असमान” पैदा हुई हैं?? वास्तव में यह यह असमानता और विरोध का नहीं, पूरक और सहयोगी का सम्बन्ध है. इससे दोनों का भेद मिट नहीं जाता. साथ ही, दोनों की भिन्नता शत्रुता में या एक की अधीनता एवं दूसरे के वर्चस्व में परिणत भी नहीं हो जाती.

मनुष्येतर प्राणियों में कुछ ऐसे हैँ जिनमें नर की प्रधानता है और कुछ ऐसे हैँ जिनमे मादा की प्रधानता है। जिसकी प्रधानता होती है, प्रकृति ने उसे सुंदर और मजबूत बनाया है। शेर से मोर तक, बकरे से मुर्गे तक अनेक प्राणी पुरूष प्रधान हैँ। यानी, नर की प्रधानता वाले। लेकिन मधुमक्खी की प्रजाति स्त्री प्रधान है। यानी मादा की प्रधानता वाली। वहाँ ‘क्वीन बी’ (रानी मक्खी) होती है, बाकी सब उसके इर्दगिर्द छत्ता बनाते हैं।

मेरा विश्वास है कि अत्यंत सुपठित और समझदार होने के कारण सविता सिंह इन सभी बातों को जानती हैं। फिर भी नारीवाद की सिद्धांतकार बनने के जोश में उन्होंने यह “मौलिक” वक्तव्य दिया है कि  “स्त्रियाँ जन्म से ही असमान पैदा हुई हैँ।”

अगर उनका मंतव्य यह है कि लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण स्त्री जन्म से ही असमान है, जैसा कि अपने एक समर्थक के कहने पर उन्होंने स्वीकार किया है, तो भी “लैंगिक पूर्वाग्रह” सामाजिक-सांस्कृतिक परिघटना है, उसे “जन्म” पर लागू नहीं किया जा सकता. सच कहा जाय तो इन पूर्वाग्रहों के कारण स्त्री भ्रूण की अवस्था से ही भेदभाव का शिकार बनती है. अनेक स्थानों पर सामंती परिवेश में उसे जन्म लेते ही मार देने का रिवाज़ था. पूँजीवादी युग में उसे गर्भ में आते ही ख़त्म कर देने का प्रचलन देखा जाता है. परिवार में, आस-पड़ोस में उसे हर कदम पर ‘लड़की’ बनाया जाता है. जोर से हँसना, जोर से बोलना या तेज़ कदमों से चलना वर्जित किया जाता है. सविता सिंह अगर इस ओर संकेत करना चाहती हैं तो जन्म और परिवेश में उन्हें अंतर करना चाहिए था. किसी बौद्धिक मनुष्य के लिए इस तरह के सामान्यीकृत और असावधान वक्तव्य उचित नहीं प्रतीत होते. इन सभी भेदभावों का समबन्ध ‘जन्म’ से नहीं, सामाजिक व्यवस्था और तज्जन्य सांस्कृतिक परिवेश से है. मान्यताएँ इसी व्यवस्था और परिवेश की द्योतक हैं.

श्रेष्ठ कवि और कश्मीरी जनसंहार की पीड़ा झेलकर भी अपने को सहज बनाये रखने वाले मित्र महाराज कृष्ण संतोषी ने ध्यान दिलाया है कि “लद्दाख क्षेत्र में औरतें पुरुष से हमेशा आगे-आगे रही हैं. वे किसी हीनभाव से व्यथित नहीं हैं और सामाजिक प्रगति में पुरुषों से अधिक योगदान देती हैं.” अपनी इस जानकारी के आधार पर संतोषी यह मानते हैं कि स्त्रियों को प्रकृति ने अधिक सक्षम बनाया है.

ज़ाहिर है, सविता सिंह की मान्यता या तो अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त है या पश्चिमी नारीवाद का भारतीय अनुवाद करने के क्रम में न केवल नैसर्गिक और सामाजिक के फर्क को धुंधला कर दिया गया है बल्कि भारतीय समाज की ही वैविध्यपूर्ण सचाइयों को ओझल कर दिया गया है. वे जिस परिवेश के आधार पर अपनी बात कह रही हैं, लद्दाख की सच्चाई उससे पृथक है. वहाँ न भेदभाव है, न तज्जन्य ‘हीनभाव’. उत्तरपूर्व भारत में मणिपुर हो या दक्षिण में केरल, वहाँ आज भी मातृसत्तातमक व्यवस्था के मज़बूत प्रभाव देखे जा सकते हैं. क्या लद्दाख, केरल और मणिपुर में भी स्त्री जन्म से “असमान” है?

क्या समानता और असमानता का विचार भी सामाजिक-ऐतिहासिक परिवेश की देन नहीं है? ऋग्वेद की नारियों को असमानता का बोध नहीं था क्योंकि श्रम विभाजन ने अभी प्रभुत्व और दासता की शृंखला को जन्म नहीं दिया था. महाभारत के वर्णन में जहाँ यह असमानता परिलक्षित होती है—पति द्वारा जुए में दाँव पर पत्नी को लगा देना—वहीँ स्त्री पूरी तरह स्वेच्छारहित, पति की आज्ञा या समाज के नियमों की दासी नहीं है—कुंती भिन्न-भिन्न पुरुषों से पाँच पुत्र पाती है और द्रौपदी एक ही समय में पाँच पुरुषों की पत्नी है!

सविता सिंह के कथन से एक समस्या यह पैदा होती है कि ‘स्त्री’ को केवल सामाजिक अवधारणा मानें या जैविक अवधारणा भी? स्त्री-पुरुष में पूर्वाग्रह के कारण असमानता केवल समाज में है जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ; ऐसी असमानता अन्य प्राणियों में नहीं है, बल्कि तथाकथित ‘सभ्यता’ से जो जातियाँ जितनी दूर हैं, उनमें यह असमानता उतनी ही कम है. सभ्य समाजों में भी भद्र घरों में यह असमानता ज्यादा है, साथ-साथ श्रम करने वाले परिवारों में कम. इसलिए जन्म से स्त्री असमान है, यह अतिरंजित कथन है; यह असमानता उन सामाजिक संबंधों पर आधारित है जिनकी नींव व्यक्तिगत संपत्ति है.

यदि थोड़ा व्यापक दृष्टि से देखें तो स्त्री-पुरुष का यानी ‘जेंडर’ का अंतर मानव समाज तक सीमित नहीं है लेकिन असमानता केवल मानव समाज में प्रचलित है. सृष्टि ने वनस्पतियों मेँ, मनुष्येतर प्राणियों में और मानव समाज में नर एवं मादा—स्त्री-पुरूष—का अंतर बनाया तो वह “असमानता” के उद्देश्य से नहीं किया। सृष्टि की रचना में “उद्देश्य” की खोज या प्रतिष्ठा वास्तव मेँ अवैज्ञानिक भाववाद है। इस विचार की आलोचना विवेकानंद ने भी की थी—वेदांत और सांख्य के सम्बन्धों का विवेचन करते हुए।

अगर उसमेँ प्रकृति का कोई उद्देश्य है तो इतना ही कि हर प्रजाति अपने जीवन की रक्षा के लिए स्वयं अपने सदस्यों का उत्पादन और पुनरुत्पादन करे। पपीते के फूल से पराग लेकर दूसरा वृक्ष पपीता पैदा करता है, उन्हीं पपीतों के बीज से आगे नये वृक्ष लगते हैं। पराग देने वाला वृक्ष नर है, फूल या फल देने वाला वृक्ष मादा. यही बात सचल प्राणियों मेँ भी है। सन्तान को जन्म देना नर और मादा के सहयोग से ही सम्भव होता है। नये सदस्य का जन्म किसी प्राणी के जीवित रहने की शर्त है। इसीलिए मनुष्य अपनी सन्तान मेँ अपना पुनर्जन्म देखता है। सच तो यह है कि अपनी प्रजाति को जीवित रखने के लिए प्राणी आत्मक्षय करता है, वह भी स्वेच्छा से और इस आत्मक्षय में सबसे ज्यादा सुख (आनंद) की अनुभूति करता है. इसीलिए इस प्रकार के सुख को ब्रह्मसुख के समान कहा गया है, इस सुख के प्रति नैतिक दृष्टिकोण भी सर्वाधिक विकसित हुई है. दूसरे शब्दों में, स्त्री और पुरुष का सहयोग दोनों की समकक्षता का द्योतक है, इसका नैसर्गिक आधार अपनी प्रजाति का पुनर्जीवन है और इस सम्बन्ध को न केवल सौन्दर्य (आनंद) का चरम माना गया है बल्कि उसके प्रति नैतिक बोध सर्वोच्च स्तर पर है.

जिस पूँजी ने नैसर्गिक संबंधों को असमानता के सम्बन्ध बनाया है, उसी पूँजी की निरंकुश सत्ता ‘उदारीकरण’ के साथ एक ओर विमर्शों के ज़रिये सम्बन्ध की अवधारणा को ही संदिग्ध बनाती है, दूसरी ओर उन संबंधों पर आधारित नैतिक और सौन्दर्यात्मक बोध को भी अप्रासंगिक बनाती है. एक विमर्शवादी चिन्तक ने इस परिघटना की प्रशंसा में ‘देह के आखेट’ पर पाँच-छह लेख लिखे थे!

संक्षेप में, प्रकृति के इस अनवरत क्रम को “समानता-असमानता” की कसौटी पर कसना वास्तव में सृष्टि की सहज लीला पर अपनी भावना का आरोपण है, सामाजिक विधान का प्रकृति में स्थानान्तरण है। इसीलिए मुझे लगता है कि विमर्शवादी सिद्धांत कृत्रिम, भाववादी और अस्वाभाविक हैँ।

आगे बढ़ने से पहले एक स्पष्टीकरण.

असमान का अर्थ अगर विषम है तो यह सरलीकरण है, सामाजिक खाई को प्रकृति पर प्रक्षेपित करना है. अगर उसका अर्थ भिन्न या पृथक है तो उसपर एक सन्दर्भ में ऊपर थोड़ी चर्चा की गयी है. भिन्नता प्रकृति की रचना का गुण है, एकरूपता यांत्रिक रचना का. संस्कृति एक तरफ प्रकृति से मनुष्य की स्वतंत्रता का उद्घोष है, दूसरी तरफ वह प्रकृति का परिष्कार है. इसीलिए (1) संस्कृति हमारी प्राकृतिक विभिन्नता की रक्षा करते हुए हमारे बीच एकसूत्रता स्थापित करती है; (२) खेतिहर समाज की संस्कृति अपने तमाम पिछड़ेपन के बावजूद प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष का रूप नहीं लेती; (3) पहली बार पश्चिम की ‘वैज्ञानिक’ क्रांति ने—जिसका आधार यंत्र था—उसने ‘प्रकृति पर मनुष्य की विजय’ का सिद्धांत दिया. यह बात अजमाकर देखी जा सकती है कि दस्तकारी के उत्पादन अपना वैविध्य और वैशिष्ट्य बनाये हुए थे, यांत्रिक उत्पादन ने एकरूपता का साम्राज्य खड़ा कर दिया है. आवारा पूँजी के साथ जितना ही एकरूपता का वैश्विक बाज़ार विकसित हुआ है, मानव समाज में उतना ही भिन्नता और अलगाव का सिद्धांत प्रचारित किया है. नए विमर्शों का यह सारतत्व है. जो विचारक पूँजीवाद के प्रारंभिक उत्थान में भी ‘वैज्ञानिक’ क्रांति के एकरूपीकरण वाले सारतत्व को समझते थे, उन्होंने एंगेल्स की भाँति यह कहा कि विज्ञान की सहायता से मनुष्य ने प्रकृति की आत्मचेतना का रूप लिया है. इस प्रकार, ‘प्रकृति पर विजय’ वाला विज्ञान और ‘प्रकृति की आत्मचेतना’ वाला विज्ञान एक दूसरे से टकराते हुए लगभग साथ-साथ विकसित हुए. विमर्शवादी सिद्धात विजय-पराजय के पूँजीवादी दृष्टिकोण पर आधारित है.

मुझे आश्चर्य होता है कि नैसर्गिक भिन्नता को ‘असमानता’ बताकर विमर्श को नया स्वरुप देनेवाले बुद्धिजीवी सारे वैभिन्न्य को सपाट एकरूपता में बदल देने के लिए बाजारवाद की आलोचना इस सन्दर्भ में नहीं करते. जबकि यह बात आज़मा कर देखी जा सकती है कि असमानता से—यानि विषमता से—मुक्ति सामाजिक संबंधों में ही होगी, बाजारू वातावरण में नहीं. कम-से-कम स्त्री के प्रश्न पर तो यह निश्चित है कि बाज़ार में वह मुक्त नहीं होती. बल्कि बिकाऊ माल बनती है. बाज़ार पर पितृसत्ता का क़ब्ज़ा है. अधिक सीधी भाषा में, वहाँ पुरुष मालिक है. बाज़ार का साधन पूँजी है और संसार की ९८ प्रतिशत संपत्ति पर पुरुष का स्वामित्व है. २ प्रतिशत भागीदारी के साथ स्त्री बाज़ार में ‘स्वेच्छा’ से उन नियमों का अनुसरण करती है जो पितृसत्ता ने बनाये हैं.

यही नहीं, मुक्ति की कामना से बाज़ार में हिस्सेदारी करने वाली यह स्त्री आम तौर पर संपन्न या खाते-पीते घर की है. वह निर्धन और श्रमिक स्त्री की प्रवक्ता चाहे हो लेकिन उसकी समस्याओं और आवश्यकताओ का प्रतिनिधित्व नहीं करती. क्या यह भी एक प्रकार की ‘असमानता’ नहीं है जो स्त्रियों के बीच ही है?

संपन्न और संभ्रांत घरों की स्त्रियाँ जो बाज़ार में ‘मुक्त’ होती हैं, उसका स्वरुप एक उदहारण से देखा जा सकता है. पुरुषों की आँख से स्त्री के ‘सौंदर्य’ के कुछ मानदंड निर्धारी किये जाते हैं. वे ज़्यादातर शारीर के नाप-तोल से जाँचनेके लिए सवाल-जवाब जोड़ दिए जाते हैं. फिर साडी दुनिया का सौंदर्य उद्योग इस मानदंडों पर एक नारी शरीर को ‘सुन्दर’ की उपाधि देता है. अगले दिन से वह नारी शरीर दुनिया भर के उद्योगों के माल का विज्ञापन करते हुए मुस्कराहट बिखेरने लगती है. क्या इसे स्त्री की स्वेच्छा, समानता या मुक्ति कह सकते हैं?

एक बात वर्ण व्यवस्था के बारे मे कहकर चर्चा खत्म करना चाहिए। मनुष्य सकर्मक प्राणी है। इसलिए उसका विकास और प्राणियों की तुलना में बहुत अधिक हुआ है। वह समाज में संगठित हुआ है। इस विकास के क्रम में वह शिकार की अवस्था से कृषि की अवस्था मेँ आया। तब जीने के साधन काफ़ी बढ़ गए। जीने के तौर-तरीकों मेँ भी बदलाव आना स्वाभाविक था। बाहर शिकार करना पहले पुरूष का काम था, खान-पान और बाल-बच्चों की देखभाल स्त्री का। लेकिन कृषि के बाद यह श्रम विभाजन नाकाफ़ी हो गया। दुनिया के सभी समाजों में इस दौर के श्रम विभाजन का रूप एक न एक प्रकार की वर्ण व्यवस्था है। भारत मेँ उसका आविर्भाव किसी दैवी प्रकोप का नतीजा नहीं है। इस समस्या पर विस्तार से फिर कभी।

दूसरी बात यह कि जब हम पहले से एक आग्रह लेकर जीवन या प्रकृति को देखते हैं तो किसी परिघटना का विश्लेषण नहीं करते, हर घटना को पूर्वनिर्धारित खाँचे में फिट करते हैं, हर समस्या पर पूर्वनिश्चित मान्यता आरोपित करते हैं। यह सब समस्या को सुलझाने वाला दृष्टिकोण नहीं है बल्कि समस्या को सामने रखकर लाभ उठाने वाला तरीका है।

प्रकृति की गतिविधियों मेँ “उद्देश्य” हो या न हो, इस तरीके में उद्देश्य निहित होता है: “देखो, देखो! इस बारे में इतना भेदभाव है; हम इस भेदभाव के शिकार हैं; हमपर ध्यान दो!!”

यह निष्कर्ष किसी व्यक्ति के बारे में नहीं है, विमर्शवादी सिद्धांतों और उनके अनुयायियों के बारे में सामान्य रूप में है।

बहरहाल, मेँ होशोहवास मेँ यह कह रहा हूँ कि स्त्रियाँ जन्म से आसमान नहीं पैदा हुई हैं। असमानता सामाजिक घटना (Phenomenon) है। विमर्शवाद की दिक्कत यह है कि उसमेँ नैसर्गिक और सामाजिक परिघटनाओं को या तो मिटा दिया जाता है या झुठला दिया जाता है।

अजय तिवारी, बी-३०, श्रीराम अपार्टमेंट्स, प्लाट-३२, सेक्टर-4, द्वारका, नय९ दिल्ली.११००७८;

मो. 971710693.

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