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लौहण्डीगुडा गोलीकाण्ड की चुनावों पर छाया

राजीव रंजन प्रसाद

by satat chhattisgarh
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lok sabha election 2024

बस्तर केंद्रित; चुनाव श्रंखला (आलेख -4)

lok sabha election 2024 : वर्ष 1957 में प्रवीर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विजित हो कर विधानसभा पहुँचे। अनेक मतभेदों और कॉंग्रेस के स्थानी नेतृत्व से खीचातानी के फलस्वरूप वर्ष 1959 को उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट के तहत उन्हें नरसिंहपुर जेल ले जाया गया। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी। प्रवीर के छोटे भाई विजयचन्द्र भंजदेव को भूतपूर्व शासक होने के अधिकार दिये गये। प्रवीर की गिरफ्तारी से बस्तर में शोक और आक्रोश का माहौल हो गया। बस्तर की जनता को विजय चंद्र भंजदेव के लिये “महाराजा” की पदवी मान्य नहीं थी। आदिवासियों से उन्हें “सरकारी राजा” का व्यंग्य विशेषण अवश्य प्राप्त हुआ। इसके विरोध में लौहण्डीगुड़ा तथा सिरिसगुड़ा में आदिवासियों द्वारा व्यापक प्रदर्शन किया गया था। 31 मार्च 1961 को प्रवीर की गिरफ्तारी के विरोध में लौहण्डीगुड़ा के बेनियापाल मैदान में बीस हजार से अधिक ग्रामीणों की भीड़ एकत्रित हुई। ग्रामीणों ने थाने का घेराव कर दिया। थाना-भवन से सौ मीटर की दूरी पर पुलिस जीप खड़ी थी जिसपर लाउडस्पीकर लगाया गया था। रह रह कर घोषणा की जा रही थी – भारत सरकार द्वारा विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सब के महाराजा है।
भीड़ का अपना व्यवहार शास्त्र होता है। यह भीड़ आंदोलित नहीं उद्वेलित थी। इस भीड़ का कहीं आग लगाने या तोड़ फोड़ करने का इरादा नहीं था। यह भीड़ केवल अपने महाराजा प्रवीर चंद भंजदेव के लिये इकट्ठी हुई थी, विशेष कर उनका कुशलक्षेम जानने। कई युवक तीर-कमान लादे थे तो कई फरसे और कुल्हाडी के साथ थे, पर ये सारे अस्त्र-शस्त्र केवल आभूषण भर ही रहे। यह भीड़ यदि असंयमित हो जाती तो मुट्ठी भर सिपाही उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। लेकिन ‘हमारे महाराज को उपस्थित करो’ की एक सूत्रीय माँग के साथ खड़ी यह भीड़ किसी भी समय अराजक नहीं थी तथापि आश्चर्य कि सिपाहियों को गोली चलाने के आदेश मिल गये। बीस हजार की भीड़ को छटने में भी समय लगता। गोलियाँ चलायी जाती रहीं, लाशें बिछती रहीं। सोनधर, टांगरू, हडमा, अंतू, ठुरलू, रयतु, सुकदेव; हर मौत के साथ लौहण्डीगुड़ा का बेनियापाल मैदान खाली होता गया।
एक शब्द है, सेल्फ गोल; क्या कॉंग्रेस के लिए यही सिद्ध होने जा रहा था? वर्ष 1957 के लोकसभा चुनावों में और विधान सभा के चुनावों में यह स्पष्टता हो गई थी कि बस्तर अब राजतंत्र के प्रभाव से निकाल रहा है और मुख्यधारा की राजनीति के साथ कदमताल करने के लिए प्रस्तुत है। वर्ष 1957 के चुनावों में कॉंग्रेस को बड़ी जीत इस परिक्षेत्र से प्राप्त हुई थी। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ जैसे जैसे दुर्व्यवहार होने लगे, सहानुभूति की लहर उनके पक्ष में होने लगी थी। भले ही व्यवस्था बदल गई हो लेकिन महाराजा प्रवीर की लोकप्रियता असाधारण थी इसे समझने में वे स्थानीय छुटभैये नेता भू कर रहे थे जिन्हे सत्ता-शासन का नया नया नशा हुआ था। तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और महाराजा प्रवीर के बीच की संबंध तल्खियों से भरे हुए थे जिसका उल्लेख प्रवीर अपनी पुस्तकों ‘लौहण्डीगुड़ा तरंगिणी’ और ‘आई प्रवीर द आदिवासी गॉड’ में स्पष्टत: करते हैं। लौहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड ने पूर्ण रूप से जाना समर्थन महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के पक्ष में कर दिया था।
वही कॉंग्रेस जिसके सुरती क्रिस्टैया ने वर्ष 1957 के चुनाव में 77.28% मत हासिल कर जीत प्राप्त की थी, वर्ष 1962 का चुनाव बुरी तरह हारे, उन्हें केवल 12.82% मत ही मिल सके और वे चुनावी समर में तीसरे स्थान पर रहे। इन चुनावों में कॉंग्रेस का मुकाबला तीन अन्य निर्दलीय प्रत्याशी कर रहे थे। निर्दलीय लखमू भवानी को 87557 (46.66%) मत प्राप्त हुए, निर्दलीय बोध दादा को 61348 (32.69%) मत प्राप्त हुए, कॉंग्रेस के सुरती क्रिस्टैया को 24057 (12.82%) मत प्राप्त हुए तथा निर्दलीय सुधू लखन को 14694 (7.83%) मत प्राप्त हुए। इस तरह एक बड़ी जीत निर्दलीय प्रत्याशी लखमू भवानी ने हासिल की। यहाँ स्मरण करना होगा कि बोध दादा ने वर्ष 1957 का चुनाव भी लड़ा था और वे सुरती क्रिस्टैया से भारी मतों से पराजित हुए थे, इस बार न केवल उन्हे दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था बल्कि उन्हें कॉंग्रेस प्रत्याशी की तुलना में 19.87% अधिक मत भी प्राप्त हुए थे। यदि कॉंग्रेस के प्रतिपक्ष में केवल एक ही निर्दलीय प्रत्याशी होता तो सुरती क्रिस्टैया को रिकॉर्ड हार का सामना करना पड सकता था।
इस पराजय के पीछे निस्संदेह महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की लोकप्रियता थी। ये चुनाव एक तरह से उनका शक्तिपरीक्षण थे। यहाँ जोड़ना होगा कि कॉंग्रेस की विधानसभा चुनावों में भी भारी दुर्गति हुई थी। वर्ष 1962 के विधानसभा चुनावों मे बीजापुर को छोड सर्वत्र महाराजा पार्टी के निर्दलीय प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। इस विधानसभा चुनाव का एक और रोचक पक्ष है। कहते हैं कि राजनैतिक साजिश के तहत तत्कालीन जगदलपुर सीट को भी आरक्षित घोषित कर दिया गया जिससे कि प्रवीर बस्तर में स्वयं कहीं से भी चुनाव न लड़ सकें। उन्होंने कांकेर से पर्चा भरा और हार गये। कांकेर से वहाँ की रियासतकाल के भूतपूर्व महाराजा भानुप्रताप देव विजयी रहे थे।

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