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मन में टहलती रहे यह जलधार

‘Miazhagan’ : बहुधा अपनी संवेदना को लेकर विचार आता रहता है कि क्या मैं व्यवहारिक दुनिया से बहुत अलग हो चुका हूँ? पर कभी कभी कोई कविता, लोग, कहानी या इस तरह की फ़िल्म मिल जाती है जिंदगी में तो लगता है, अकेला नहीं हूँ। संतुष्टि मिलती है कि जीवन में संवेदना का हरापन बचा रहेगा।

‘मियाझगन’ यह तमिल नाम है जो पूरी फिल्म में सिर्फ एक बार लिया जाता है और वह फ़िल्म का सबसे आखिरी शब्द है। यह कहानी परिवार में सम्पत्ति के बंटवारे (अन्य भाइयों के द्वारा हड़प लिए जाने) के बाद एक भाई के कस्बे को छोड़कर चेन्नई जा बसे एक परिवार की है जिसका बड़ा खुशमिजाज लड़का अरूल (अरविंद स्वामी) इस विस्थापन के बाद अंतर्मुखी और संयत स्वभाव का हो जाता है। बीस साल बाद उसे बहन (बुआ की लड़की) की शादी में उसे उस गांव में बेमन से जाना पड़ता है। यहां उसे मामा, बहन और एक दोस्त मिलती है और मिलता है ‘पोटेटो'( कार्थी)। पूरी फिल्म अरूल और कार्थी के बीच सद्भाव, स्नेह, रिश्ते और अपनी जड़ों को लेकर हुई बातचीत पर आधारित है। भारतीय सिनेमा में दो पुरुषों के बीच दोस्ती तो बहुत ड्रामेटिक रूप दिखाई जा चुकी है पर दो पुरुषों में इतना सहज यथार्थवादी स्नेह, सम्मान, अपत्व, समर्पण मैंने इस फ़िल्म से पहले कभी नहीं देखा।

फ़िल्म के निर्देशक प्रेम पहले सिनेमेटोग्राफर थे शायद इसलिए हर शॉट और फ्रेम किसी ऐसे रेट्रो स्टिल फ़ोटो की तरह लगते हैं जिसे देखते हुए हम अपने असल जीवन मे खो जाते हैं। बस और ट्रेन की यात्रा, शादी घर, रात के वक्त कस्बा, सब कितना सजीव है, बिल्कुल अपना। फ़िल्म देखने वाला दर्शक साइकिल देख अपनी साइकिल याद करने लगेगा या ग्रुप फ़ोटो देखते अपनी फोटो खोजने लगेगा, यह तय है। पूरी फिल्म के दृश्य, संवाद और भावनाएं आपको अपनी ही लगने लगती हैं।

इधर अरसे बाद अरविंद स्वामी को देखा। एक सरल, अंतर्मुखी और संजीदा व्यक्ति के किरदार में लगा ही नहीं कि वे एक्टिंग कर रहे हैं। उनके साथ कार्थी ने जो चरित्र जिया है, वैसे लोग भी कम या ज्यादा गुणों के साथ जीवन में मिल ही जाते हैं। उत्तर आधुनिक दौर में जब हर बात खराबतर होती जा रही है, जीवन समंदर में भटके जहाज की तरह बेचैन है, ऐसे में यह फ़िल्म प्रेम, संवेदना, सहअस्तित्व, नातों के कर्तव्य, उसके जुड़ाव, सम्मान और नेकदिली का एक लाइट हाउस की तरह नजर आती है। पूरी फिल्म बिना नाटकीय हुए आपको सहज ही मुस्कुराहट देती है, वहीं ज्यादातर जगह पलकों और मन में नमी बनाए रखती है।

हिंदी सिनेमा पता नहीं ऐसी पेशकश कब कर पायेगा। बहरहाल, यह फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर है, जरूर देखिये ताकि बची रहे वह गुम हो रही सरल तरल जलधार जो जिंदगी के लिए जरूरी है।

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