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मां , पिताजी व मैं-दिवाकर मुक्तिबोध

by satat chhattisgarh
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गजानन माधव मुक्तिबोध

पिताजी (गजानन माधव मुक्तिबोध) की आज जयंती है जिन्हें हम बाबू साहेब कहते थे। यों उन्हें याद करने किसी खास दिन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनकी व मां शांता जी की स्मृतियां इस जिंदगी में , इस जिंदगी तक ह्रदय में बसी हुई है, बसी रहेगी। फिर भी जन्मदिन अद्भुत तो होता ही है जो अपार खुशियां भी देता है और अपनों की यादें भी जीवंत करता है। बाबू साहेब के संदर्भ में आज ऐसा ही दिन हैं जिन्हें हमने 59 वर्ष पूर्व , 11 सितंबर 1964 में खो दिया था। अपनी किशोरावस्था तक उनकी छत्रछाया में रहते हुए उनके साथ जितना भी समय बीता वह अब स्मृतियों के रूप में है और जिन्हें मै अलग-अलग अवसरों पर शब्दों के जरिए  व्यक्त करने की कोशिश करता रहा हूं। शब्दों का यह मुकम्मल सफ़र पूरा हुआ मेरी किताब ‘ एक सफ़र मुकम्मल ‘ में। संभावना प्रकाशन हापुड़ से संस्मरणों की यह पुस्तक पिछले वर्ष के अंत में प्रकाशित हुई थी। चूंकि आज बाबू साहेब का जन्मदिन है लिहाज़ा मैंने बेहतर समझा इस किताब में संकलित पिताजी पर स्मृति लेख जो कि पांच किस्तों में है, पोस्ट किया जाए विशेषकर उनके लिए जो अपने युगदृष्टा कवि के व्यक्तित्व के बारे में, उनके पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ जानना चाहते हैं। संस्मरण में मां का भी उल्लेख है अतः शीर्षक में पहले मां फिर पिताजी।

(5 किस्तों की 4 और 5  कड़ी👇🏻)

दिवाकर मुक्तिबोध

स्थान – दिग्विजय कालेज , राजनांदगांव । वर्ष 1959 -64

वसंतपुर के बाद दिग्विजय कालेज परिसर में स्थित हमारा नया ठिकाना भव्य व विशाल था। आखिर होता क्यों नहीं अंतत: वह राजा दिग्विजय सिंह का महल ही था जो समय के थपेड़े व देखरेख के अभाव में काफी जर्जर हो गया था। दरअसल यह राजमहल का आखरी बुलंद दरवाजा था जहां पहली मंजिल आवासीय थी। बुलंद दरवाजे पर भालेनुमा बडे-बडे कीलें गडे हुए थे। कम से कम बीस फीट चौडे व चालीस फीट ऊंचे बुलंद दरवाजे के आजूबाजू दो तीन कमरे बने हुए थे। बाएं वाले कमरे से उपर जाने के लिए सीढियां थीं। यही नीचे के कक्ष में दादा जी का पलंग बिछ गया। उनके कमरे से लगा नहानीघर व संडास था। दोनों आकार प्रकार में बडे थे। कमरे जैसे। दूसरे छोर का कमरा बडे भैया के हवाले किया गया। वे इसी कालेज में बीएससी कर रहे थे। पढाई के लिए उन्हें अलग रूम मिल गया। और हम लोगोँ के लिए पहली मंजिल पर कमरे थे। उनका हल्का खाका खींच दूं। सीढियों से उपर आते ही हाल, फिर बाईं ओर उससे लगा हुआ बडा सा रसोई घर व बालकनी। सीढी वाले हाल से दाहिनी तरफ बडा सा कमरा और उसके बाद एक और हाल। इसी हाल में छत पर जाने के लिए चक्करदार सीढियां। इसी महाकक्ष में पिताजी की टेबल कुर्सी रखी गई। दादाजी के लिए यहां भी पलंग और दादी के लिए नीचे फर्श पर बिछौना। दादाजी के लिए दोहरी व्यवस्था थी। चाहे तो उपर रहे या नीचे। उन्होंने दोनों सुविधाओं का इस्तेमाल किया। इस मकान की एक और महत्वपूर्ण बात थी सभी जगह बडी बडी खिडकियां। इतनी चौडी कि हम आराम से बैठ सकते थे, बैठते थे। भीतर के सभी दरवाजे व खिडकियों के उपरी हिस्से रंगबिरंगी कांच से सजे हुए थे। कुल मिलाकर बडी भव्यता थी इस घर-महल में।

पहली कड़ी

मां,पिताजी व मैं -दिवाकर मुक्तिबोध

राजनांदगांव काफी छोटी रियासत थी। इस दृष्टि से अनुमान लगाया जा सकता है कि राजा का महल कैसा रहा होगा। इसे हम विशाल मकान कह सकते हैं। बडे महलों की परिभाषा में यह नहीं आता। दरअसल कालेज प्रबंधन प्राध्यापकों के लिए परिसर में ही जरूरत के मुताबिक निवास स्थान की व्यवस्था कर रहा था। कुछ नये मकान बनाए गए तो कुछ पुराने निर्माण को ठीक किया गया। इस दायरे में रंग महल, हां वह सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र ही था, भी आया जिसे पिताजी को किराए पर आवंटित करने का निर्णय लिया गया था। इसलिए भीतर रंग रोगन व मरम्मत करके इसे रहने लायक बना दिया गया। यहां रहने का अनुभव आल्हादकारी था। वसंतपुर में मकान के पीछे जिस तरह हरियाली थी, वैसी ही यहां भी। नीचे के रूम की खिडक़ी खोलने पर बेंत की झाडियां थीं। उपर किचन की बालकनी से नीचे झांके तो बगीचा भुलन बाग जिसका यह आखिरी छोर था , नजर आता था। और इससे लगा हुआ रानी सागर , काफी बडा तालाब। दूसरी तरफ बूढा सागर। यानि इस भव्य इमारत के दोनों तरफ बडे तालाब। कुल मिलाकर प्रकृति का विहंगम दृश्य। बहुत मजेदार बीता यहां समय।

वसंतपुर से हम लोग यहां सन 1959 में शिफ्ट हुए। उस समय नीचे बगल में नये मकान बनाए जा रहे थे। इनके पूर्ण होने के बाद प्रोफेसर एम एन शर्मा, प्रो. शरद गुप्ता , प्रो लुनावत व प्रो. कन्नोजे रहने आ गए। इनके आने से खासी चहल पहल हो गई। आगे गली में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी व अन्य प्राध्यापक रहते थे। कुल मिलाकर कालेज का काफी स्टाफ यहां रहने लग गया था। लेकिन जब ये मकान नहीं बने थे तब रात होते ही कम से कम मुझे घर से बाहर निकलने में डर लगता था। पूरे इलाके में सन्नाटा पसरा रहता था तथा झिंगुरों की सीटी जैसी आवाजें मन में भय पैदा करती थी। मुझे याद है जब कभी रात में घर के किसी काम के लिए बाहर निकलना जरूरी हो जाता ,तब मैं आंखें बंद करके सायकिल चलाता और तभी खोलता था जब कालेज के प्रवेश द्वार के पार हो जाता। हालांकि प्रोफेसर परिवारों के आने के बाद चहलपहल बढ गई तथा सन्नाटा टूटने लग गया।

अब परिवार की जिंदगी थोड़े आराम से चलने लग गई थी। चूंकि मकान बडा था, जगह की कोई समस्या नहीं थी लिहाजा दादा दादी, बबन काका व उनका परिवार बीच बीच में राजनांदगांव आने लगा था। दादा-दादी आते तो तीन चार महीने रूकते थे। पिताजी के लिए ये दिन हसीन हुआ करते थे। मां बाप साथ में रहे तो इससे अधिक संतोष की बात और क्या हो सकती थी? पिताजी रोज सुबह अपने पिता के पास बैठते थे। उनसे बातचीत करते थे और उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया या फ्री प्रेस जर्नल अथवा अंग्रेजी के अन्य किसी अखबार की खबरें पढकर सुनाया करते थे। शाम को भी कालेज से लौटने के बाद वे सबसे पहले उनके पास कुछ देर बैठते थे। इधर उधर की बातें होतीं। दादी तो उनकी मां थीं। वे उनके पास भी बैठते थे। उनके लिए कालेज की लायब्रेरी से उपन्यास लेकर आया करते थे। दादी को पढने का बहुत शौक था। वे खूब पढती थीं। उस समय के महान उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री, वृंदावन लाल वर्मा, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रविंद्र नाथ टैगोर, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, प्रेमचन्द, विमल मित्र , मुल्कराज आनंद तथा अन्य जिनके दर्जनों उपन्यास थे , पिताजी रोज दो तीन किताबें लेकर आते और दादी को दे देते। दादी का काफी समय इन्हें पढने में गुजरता था। मुझे भी पढने का चस्का दादी को पढते देखकर लगा जबकि मैं मिडिल क्लास का छात्र था। खत्री बाबू की चंद्रकांता व भूतनाथ ने मुझे इस कदर अपने मोहपाश में जकडा कि ऐय्यारी की किताबें खोजने लग गया और मेरे हाथ में जासूसी किताबें आ गई। पहले मनोहर कहानियां हाथ में आई जिसमें अपराध की कहानियां रहती थीं। फिर मशहूर इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया, रहस्य, जासूसी पंजा, गुप्तचर ,जेबी जासूस , नीलम जासूस, जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा , वेद प्रकाश कांबोज, आर्थर कानन डायल आदि के उपन्यास पढऩे लग गया जिन्हें लुगदी साहित्य कहा जाता है। लेकिन यह किशोर मन को मोहित करता है। शहर के सदर मार्ग पर स्थित मोहन पान की एक दुकान से ये किताबें मुफ्त में पढऩे के लिए मिल जाया करती थीं। पिताजी जानते थे कि मैं जासूसी किताबें पढता हूं पर उन्होंने कभी रोका टोका नहीं बल्कि जब कभी वे लिखते-लिखते थक जाया करते थे तो तनाव ढीला करने मुझसे ये किताबें मांगा करते थे। इब्ने सफी के नावेल जासूसी दुनिया के प्रमुख पात्र कर्नल विनोद व केप्टन हमीद उनके भी प्रिय पात्र थे और मुझसे जब किताब मांगते थे तो इन्हीं का नाम लेते थे। हालांकि वे हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी के भी सस्पेंस व इनवेस्टिगेटिव उपन्यास भी खूब पढते थे।

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ

पिताजी जब कभी अच्छे व हल्के मूड में होते थे तो वे हफीज जालंधरी के शेर की दो लाइनें गुनगुनाया करते थे। ‘अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं ‘ अपने कमरे में चलते-फिरते हुए इन पंक्तियों को बार बार गुनगुनाते मैंने कई बार देखा सुना। उनकी ऐसी मन:स्थिति शायद तब बनती होगी जब उन्हें अपने लिखे पर संतोष होता होगा। चूंकि हम छोटे थे इसलिए समझ नहीं सकते थे कि वे किस बात से प्रसन्नचित्त हैं। पर लिखते-लिखते एकाएक कुर्सी सरकाकर वे टहलने लगते थे। इसलिए यह अनुमान स्वाभाविक है कि या तो वे गहन चिंतन की प्रक्रिया से गुजरते थे या उन्हें अपने लिखे पर आत्म संतोष होता होगा। वैसे भी प्रायः यही देखा गया है कि कवि या लेखक को जब अपना कुछ लिखा हुआ संतोषजनक महसूस होता है तो उसका मन तनाव मुक्त व हल्का हो जाता है। और अलग तरह की प्रतिक्रियाएं करने लगता है। पिताजी की एक और क्रिया इस रूप में थी कि वे कविताओं का सस्वर पाठ करते थे। पालथी मारकर बैठना व आगे-पीछे डोलते हुए कविताओं को उच्चारित करते देखना हमारे लिए प्राय: रोज की बात थी। अनेक बार तो हम में से किसी न किसी को गोद में लेकर कविता पाठ करते थे। कभी वे कहानी भी सुनाया करते थे। एक बार उन्होंने ब्रम्हराक्षस की कहानी जिस हावभाव के साथ सुनाई कि हम एक अलग दुनिया में पहुंच गए, खो से गए। उस समय हमें मालूम नहीं था और न उन्होंने बताया कि यह उनकी लिखी कहानी ‘ ब्रम्हराक्षस का शिष्य ‘ है।

पिताजी बहुत सरल स्वभाव के थे। खुशमिजाज। कितनी व कैसी भी तकलीफ हो, प्रसन्न रहने कोशिश करते थे और रहते भी थे। मैंने उन्हें किसी पर गुस्सा करते कभी नहीं देखा। हम बच्चों पर भी नहीं। हमेशा शांत रहते थे। जैसा मैंने पहले बताया वे थोड़ा थोड़ा समय सभी को देते थे। अलबत्ता मां चूंकि दिन भर किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थीं अत: मैंने उन दोनों को एक साथ समय बिताते , आराम से लंबी बातचीत करते या घर से बाहर घुमने के लिए जाते नहीं देखा। कालेज से लौटने के बाद पिताजी का शाम का अधिकतर समय मेलजोल में निकल जाता था। कोई न कोई मिलने आ ही जाता था। कोई आया मतलब दो तीन घंटे की फुर्सत। शरद कोठारी, कन्हैया लाल अग्रवाल, यशराज जैन , प्रो. पार्थ सारथी, विनोद कुमार शुक्ल, रायपुर से निरंजन महावर ,कालेज के प्रोफेसर व अन्य लोगों का आना जाना लगा रहता था। कभी कभार महफिल भी जमती थी जिसमें प्रिंसिपल किशोरीलाल शुक्ल भी मौजूद रहते थे। ऐसे वक्त मां खान पान के मामले में मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं करती थीं। वैसे भी मेहमानों के स्वागत सत्कार में उन्हें आनंद आता था। और चाय तो खैर बिना इसके जिदंगी चल नहीं सकती थी। बीडी व चाय ये दोनों पिताजी के गहरे दोस्त ही थे।

हमारे दादा जी अपने चारों लडकों के यहाँ अपनी इच्छानुसार तीन-चार महीने रहने के लिए जब कभी जाते तो शिवलिंग साथ में रहता ही था। असाधारण चमक वाले इस शिवलिंग की कथा यह है कि हमारे परदादा के पिताश्री को एक दिन सपना आया कि घूरे पर शिवलिंग पडा हुआ है, उसे घर ले आएं व विधिवत उसकी स्थापना करें। अगले दिन सुबह सपने की सचाई का जानने जब वे इंगित स्थान पर गए तो वाकई कचरे के ढेर पर उन्हें शिवलिंग नजर आया। वे आश्चर्यचकित हुए और श्रद्धाभाव से वे उसे घर ले आए व पूजा अर्चना के साथ उसकी स्थापना की। तब से परिवार में पीढी दर पीढी शिवलिंग की पूजा विशेष रूप से की जाती रही है। दादा जी के बाद शिवलिंग उनके सबसे छोटे बेटे स्वर्गीय चन्द्रकांत मुक्तिबोध के परिवार के यहां हैं।

मां,पिताजी व मैं -दिवाकर मुक्तिबोध

दादाजी के राजनांदगांव आने पर पूजा वे ही करते थे पर किसी कारणवश न कर पाए तो दादी अथवा कभी कभी पिताजी विधि विधान के साथ पूजा किया करते थे। उन्हें पारिवारिक परंपराओं , धार्मिक अनुष्ठानों से कोई दुराव नहीं था। आवश्यकता होने पर वे इसमें भागीदारी करते थे । होली की पूजा भी इसमें शामिल है जो घर के आंगन में की जाती है। दरअसल अपनी वैचारिकता को उन्होंने धार्मिकता से अलग रखा और धार्मिकता को कभी वैचारिकता पर हावी नहीं होने नहीं दिया। एक मध्यम वर्गीय परिवार की मान्यताएं, परम्पराएं ,रीति रिवाज अर्थात जीवन शैली का उन्होंने सम्मान किया लेकिन किया वहीं जो उन्हें ठीक लगा। उस कालखंड में माता पिता की मर्जी के खिलाफ प्रेम विवाह के बारे में कल्पना करना भी कठिन था पर पिताजी ने यहां एक जंजीर तोडी। यह अलग बात है कि बाद में उदार भाव से उनके माता पिता ने बेटे की खुशी में अपनी खुशी देखी व इस विवाह को स्वीकार किया।

पिताजी का लेखन सतत चलता था। शायद ही कोई दिन ऐसा रहता होगा जब वे लिखने न बैठे हों। पढते भी खूब थे। सुबह जल्दी, पौ फटने के काफी पहले उठ जाते थे। अपनी चाय खुद बनाते व लिखने या पढने बैठ जाते। कुछ समय बाद पढाई के लिए हमें भी उठा देते थे। गर्मी के दिनों में सुबह के समय रानी सागर तालाब ले जाते। हमें तैरना नहीं आता था। पिताजी सिखाते थे। कभी कभी मां को भी साथ ले आते। उन्हें भी तैरना नहीं आता था। अतः उन्हें सिखाने टायर की व्यवस्था की गई। पर तैराकी प्रशिक्षण का सिलसिला अधिक नहीं चला। पिताजी जी तो खैर अच्छे तैराक थे ही। प्रवाह के विपरीत तैरने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। उज्जैन की क्षिप्रा जो थी । इस नदी के तट पर उनका बचपन बीता, किशोरावस्था बीती।

मेरे लिए यह खुशी की बात थी कि वे दो तीन काम मुझसे कराते थे। पहला था उनके कपडों की इस्त्री करना । पायजामे-कुर्ते जो लंबाई – चौडाई में अच्छे खासे रहते थे ,को प्रेस करना मेहनत का काम था और मुझ जैसे 12 -13 साल के लडके के लिए धैर्य का भी। कभी कभी कोफ्त भी होती थी। दूसरा काम था ,उनकी कविताओं की कापी करना। मेरी हस्तलिपि कुछ ठीक थी। इसलिए जरूरत पडने पर यह काम मुझे देते थे। और तीसरा काम था उनके हाथ पैर व पीठ को दबाना। जब शरीर दर्द करने लगता था तब हमें आवाज देकर बुलाते थे और हाथ पैर दबाने कहते। हाथों से नहीं, शरीर पर खडे होकर पैरों से। और तो और पेट भी इसी तरह दबवाते थे। हमारे लिए यह काम खेल की तरह ही था, आनंददायक। दीवार का सहारा लेकर या संतुलन साधकर। एक तरह से जिमनास्टिक। ऐसी जिमनास्टिक हम भाई बहन बारी बारी से करते थे।

यकीनन राजनांदगाँव उनकी सृजन यात्रा का स्वर्णिम काल था। जीवन में कुछ निश्चिंतता थी, कुछ सुख थे पर दुर्भाग्य से यह अवधि अत्यल्प रही। महज 6-7 वर्ष। इस शहर के प्रति, छत्तीसगढ़ के प्रति वे कितने कृतज्ञ थे, इसकी झलक श्री श्रीकांत वर्मा को लिखे गए उनके पत्र से मिलती है। 14 नवंबर 1964 के पत्र में उन्होंने लिखा था – ” उस छत्तीसगढ़ का मैं ऋणी हूं जिसने मुझे और मेरे बाल बच्चों को शांति पूर्वक जीने का क्षेत्र दिया। उस छत्तीसगढ़ में जहां मुझे मेरे प्यारे छोटे छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे बाहों में समेट लिया और बडे भी मिले , जिन्होंने मुझे सम्मान व सत्कार प्रदान करके, संकटों से बचाया। ”

पिताजी कभी बीमार नहीं पडे

नागपुर हो या राजनांदगांव , मेरी स्मृति में पिताजी कभी बीमार नहीं पडे। न कभी बुखार आया और न ही खांसी। लेकिन मैं ? गांव जैसे वसंतपुर के खुले वातावरण व ताजी हवा ने मुझे स्वस्थ रखा तो यहां कालेज के मकान में, विशेषकर गर्मी के दिनों में दोनों बडे तालाबों रानी सागर व बूढा सागर से उठती वाष्पीकृत हवाओं ने मुझे दमे का मरीज बना दिया। यह मेरा अनुमान है कि जलवायु का मुझ पर बुरा प्रभाव पडा। मुझे दमे के अटैक आने लगे। मां व पिताजी दोनों परेशान। जब अटैक आते तो दोनों रात भर मेरे पास बैठे रहते। जोर -जोर से धौंकनी की तरह चलती सांसें व उपर नीचे होती मेरी छाती उन्हें बेचैन करती। मां तरह-तरह के घरेलू उपाय करती थीं। छाती सेंकना, फिटकरी या कोई और चाटन खिलाना। डाक्टर तो खैर आते ही थे। थोडा आराम लगता फिर वहीं स्थिति हो जाती थी। क्रिश्चियन हास्पीटल के डॉक्टर अब्राहम , आयुर्वेदिक डॉक्टर श्रीवास्तव, एलोपैथिक डॉक्टर महोबे से इलाज चलता रहा। बाद में तय किया गया कि मुझे इस वातावरण से दूर रखा जाए। सो पिताजी ने शहर से काफी दूर जैन हाईस्कूल में मेरे रहने की व्यवस्था की। चूंकि छुट्टियां चल रही थी लिहाजा स्कूल बंद था। अत: मेरे लिए एक क्लासरूम में फर्श पर बिस्तर लगा दिया गया। मां व मैं करीब दस दिन यहां रहे। घर से कभी बडे भाई तो कभी पिताजी भोजन का टिफिन लेकर आते थे। धीरे-धीरे सांस की तकलीफ कम होती चली गई। इससे यह समझ में आया कि उमस भरा वातावरण मेरे लिए अनुकूल नहीं है लिहाजा बाद में मेरे लिए कालेज के निकटस्थ लेबर कालोनी में एक रूम, किचन वाला मकान किराए पर लिया गया जहां मैं व बडे भैया रहने लगे। पिताजी रोज शाम को अकेले या अपने किसी न किसी मित्र के साथ मुझे देखने आया करते थे। निरंजन महावर जी का स्मरण है। रायपुर से वे पिताजी से मिलने आते थे और फिर दोनों पैदल ही लेबर कालोनी आते और कुछ देर बैठकर चले जाते। समय मिलने पर शाम के समय मां भी आ जाती थी। कहना न होगा कि वहां रहने से दमा करीब करीब खत्म हो गया। मैं व भैया घर आ गए। मैं ठीक हो गया लेकिन दुर्भाग्य से पिताजी बीमार पड गए। एकाएक उन्हें पैरेलिसिस ने जकड लिया। उनके शरीर का आधा भाग चपेट में आया, संवेदनाशून्य हुआ। पिताजी न तो घबराए और न विचलित हुए। पर उनकी पीडा थी वे लिख-पढ नहीं पा रहे थे। यह स्थिति अंंत तक बनी रही।

पलंग पर शिथिल पडे बाबू साहेब को देखकर मन उदास हो जाता था। भले ही हम छोटे थे पर पिता को बीमार देखकर चिंता स्वाभाविक थी। अनायास मुझे इतिहास का वह किस्सा याद आने लगा कि कैसे मुगल बादशाह बाबर ने अपने बीमार बेटे हुमायूं की जिंदगी बचाने के लिए अल्लाह से दुआ मांगी, प्रार्थना की जो अंततः कुबूल हुई। उन्होंने कहा होगा ईश्वर मेरे प्राण ले ले पर बेटे को जीवन बख्श दे। इतिहास गवाह है कि इस घटना के बाद हुमायूं धीरे धीरे ठीक हो गए लेकिन बादशाह बीमार पड़ गए और आखिरकार चल बसे।

क्या मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ ? यह बात भले ही तर्कसंगत न लगे पर मेरे अवचेतन मन में यह बात बैठी हुई है। अतः इतिहास के इस किस्से को अपने साथ जोड़ ही सकता हूं। दरअसल एक दिन मैं घर की विशाल खिडकी के चबूतरे पर बैठा था। रात हो चली थी। पिताजी कही बाहर गए हुए थे। उसी समय लौटे। मुझे देखकर उन्होंने अपने जाकिट से फोटो निकाल और मुझे दिया। यह उनका अंतिम फोटो था जो पता नहीं क्यों और किसलिए बाहर किसी से खिंचवाया था। फोटो में वे प्रफुल्लित नजर आ रहे थे। मुझे खुश होना चाहिए था लेकिन पता नहीं क्यों मन भीग सा गया। क्या यह भविष्य की ओर कोई संकेत था ?

खैर उनकी बीमारी की खबर लगते ही उनके मित्र गण उनके बेहतर इलाज की व्यवस्था करने में जुट गए। प्रारंभ में राजनांदगांव में ही इलाज चला पर उनकी स्थिति में कोई फर्क नहीं पडा। उस समय द्वारका प्रसाद मिश्र मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। सर्वश्री हरिशंकर परसाई, शरद जोशी , शरद कोठारी तथा अन्य साहित्यिक मित्रो की मदद के फलस्वरूप सरकारी खर्चे पर हमीदिया हास्पीटल में इलाज की व्यवस्था हुई तथा प्रायवेट वार्ड में पिताजी को शिफ्ट कर दिया गया। साथ में मां थी ही। बाद में बडे भैया के साथ हम लोग भी भोपाल पहुंच गए। एक दिन दादी भी पहुंची। कुछ दिन रहने के बाद वे नागपुर चली गईं।

पिताजी की स्थिति गंभीर है, इसका हमें अहसास नहीं था। दरअसल प्रारंभ में उन्हें दवाओं से फायदा हो रहा था। हमने देखा था बिस्तर से उठकर वे लोगों का सहारा लेकर दो चार कदम चलने लगे थे। लेकिन फिर बिस्तर से लग गए। उनकी स्थिति दिन ब दिन बिगडती चली गयी। अतः यह तय हुआ कि उन्हें दिल्ली ले जाना चाहिए। दिल्ली में श्रीकांत वर्मा ,अशोक वाजपेयी व अन्य मित्रो ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी से बातचीत की लिहाजा पिताजी को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स में भर्ती करने हरि झंडी मिल गई। पिताजी को भोपाल से दिल्ली शिफ्ट करने की तैयारी शुरू हो गई। करीब आठ-नौ महीने तक पिताजी की बीमारी के दौरान तमाम मित्रो व प्रेमी साहित्यिकों ने उनकी जिस तरह मदद की , जिस तरह साथ दिया , वह अद्भुत है, बेमिसाल है। भोपाल के हमीदिया अस्पताल में वे जब तक रहे दोस्तों का आना जाना सतत चलता रहा। किसी दोस्त ने उन्हें अकेला नहीं छोडा। परसाई जी ने एक तरह से तो भोपाल में ही डेरा डाल दिया। वे काफी दिन रहे। महत्वपूर्ण बात यह है कि मित्र की सलामती के लिए, बेहतर से बेहतर इलाज के लिए जो सामूहिक प्रयत्न उनके दोस्तों व आत्मीयजनों ने उस दौर में किए , मुझे नहीं लगता कि इस दौर में कोई मित्र मंडली भरपूर आत्मीयता के साथ ऐसा कर सकती है। अब तो कन्नी काटकर पतली गली से निकल जाने का जमाना है, हालांकि अपवाद तो हर जगह होते ही हैं।

बहरहाल भोपाल रेलवे स्टेशन का वह अंतिम दृश्य आंखों के सामने है। जब पिताजी को ट्रेन की बर्थ पर लिटाया गया तो वे अर्द्ध बेहोशी की हालत में थे। बहुत दुबले हो गए थे। गाल पिचक गए थे। हम उनके पास बैठ गए थे। चुपचाप उन्हें देखते रहे। मन कुछ भरा हुआ था पर जरा भी ख्याल नहीं आया कि आगे हम उन्हें कभी नही देख पाएंगे। पर यही सच था। सच। यह उनका अंतिम जीवित दर्शन ही था।

पिताजी के साथ मां और बडे भैया दिल्ली गए। हमारी जिम्मेदारी पिताजी के अनन्य मित्र प्रमोद वर्मा जी ने उठा ली थी। वे हमें ट्रेन से भोपाल से भिलाई ले आए। वे दुर्ग के सरकारी महाविद्यालय में प्रोफेसर थे। उनके छोटे भाई भिलाई स्टील प्लांट में अफसर थे। उइस नाते उन्हें बडा सा क्वार्टर मिला हुआ था। उनका संयुक्त परिवार था जिसमें हम भी शामिल हो गए।

11 सितंबर 1964। रेडियो पर खबर चली। हमने नहीं सुनी। बस प्रमोद जी ने हमें पास बुला लिया। एकदम पास। बोले कुछ नहीं। हम समझ गए, पिताजी नहीं रहे।

 

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