गजानन माधव मुक्तिबोध
पिताजी (गजानन माधव मुक्तिबोध) की आज जयंती है जिन्हें हम बाबू साहेब कहते थे। यों उन्हें याद करने किसी खास दिन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनकी व मां शांता जी की स्मृतियां इस जिंदगी में , इस जिंदगी तक ह्रदय में बसी हुई है, बसी रहेगी। फिर भी जन्मदिन अद्भुत तो होता ही है जो अपार खुशियां भी देता है और अपनों की यादें भी जीवंत करता है। बाबू साहेब के संदर्भ में आज ऐसा ही दिन हैं जिन्हें हमने 59 वर्ष पूर्व , 11 सितंबर 1964 में खो दिया था। अपनी किशोरावस्था तक उनकी छत्रछाया में रहते हुए उनके साथ जितना भी समय बीता वह अब स्मृतियों के रूप में है और जिन्हें मै अलग-अलग अवसरों पर शब्दों के जरिए व्यक्त करने की कोशिश करता रहा हूं। शब्दों का यह मुकम्मल सफ़र पूरा हुआ मेरी किताब ‘ एक सफ़र मुकम्मल ‘ में। संभावना प्रकाशन हापुड़ से संस्मरणों की यह पुस्तक पिछले वर्ष के अंत में प्रकाशित हुई थी। चूंकि आज बाबू साहेब का जन्मदिन है लिहाज़ा मैंने बेहतर समझा इस किताब में संकलित पिताजी पर स्मृति लेख जो कि पांच किस्तों में है, पोस्ट किया जाए विशेषकर उनके लिए जो अपने युगदृष्टा कवि के व्यक्तित्व के बारे में, उनके पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ जानना चाहते हैं। संस्मरण में मां का भी उल्लेख है अतः शीर्षक में पहले मां फिर पिताजी।
(5 किस्तों लिसमे 1,2,3 कड़ी👇🏻)
दिवाकर मुक्तिबोध
स्थान – नागपुर। वर्ष संभवतः 1954-55
नयी शुक्रवारी का कच्चा मकान। परछी। बैठक के नाम पर जमीन पर दरी बिछी हुई। पिताजी का लकडी का टेबल व मजबूत टीन की काली कुर्सी। भीतर के कमरे का भूगोल याद नहीं, गृहस्थी का सामान भी याद नहीं अलबत्ता पीछे कच्चा आंगन, शौचालय व नहानीघर। मेरी उम्र 5-6 बरस। घर में कुल पांच प्राणी। मैं, मां , पिताजी ,बडी बहन उषा व छोटी सरोज। बहुत प्यारे घुंघराले केश थे सरोज के। एकदम गुडिय़ा, प्यारी गुडिया। लेकिन हम क्या खेलते थे, कुछ भी याद नहीं। वो जल्दी चली गई पर आंखों के सामने से उसका चेहरा कभी ओझल नहीं होता।
प्रायः रोज का दृश्य। रात होने के पहले मां खाना वगैरह बनाकर , हमें खिलाकर, बाहरी दरवाजे के ऊंबरठे पर बैठे बैठे पिताजी की बाट जोहती। कभी घंटे, दो घंटे। हम सो जाते। पता नहीं पिताजी कब आते, कब खाना खाते। कब सोते। सुबह हम उठते तो देखते थे , वे कुर्सी या दरी पर पालथी मारकर बैठे हुए हैं। आगे-पीछे डोलते हुए कविताएं पढते या कुछ लिखते नजर आते। इस प्रक्रिया से मेरा कोई सरोकार नहीं था। बच्चा था। कोई समझ नहीं थी।
फिर मैं उन्हें पीतल की दो बाल्टियां लिए दूर कुएँ की ओर जाते देखता। उघडी छाती , चेहरे से टपकता व शरीर को भिगोता हुआ पसीना व तेज गति के कारण बाल्टियों से छलकता पानी घर तक पहुंचते पहुंचते कम हो जाता। कितने चक्कर होते होंगे, पता नहीं पर यह रोजमर्रा के कामों व पीने के पानी के लिए कसरत थी।
बबन काका यानी शरत्चन्द्र माधव मुक्तिबोध। पिताजी के छोटे भाई। परिवार सहित नागपुर मे ही थे। बाद में जाना वे भी कवि आलोचक थे। मराठी में लिखते थे। उनका निवास राम मंदिर गली मोहल्ले में था। हमारे घर से नजदीक ही। हमारा उनके यहां आना जाना था। पिताजी के एक मित्र थे। कामरेड मोटे। उनकी पत्नी वत्सला बाई मोटे। मां की एकमात्र नजदीकी मित्र। उनका घर भी पास में ही था। पैदल पांच मिनट का रास्ता। हम सभी उनके यहां जाया करते थे।
नयी शुक्रवारी मेंं जो व्यक्ति लगभग रोज , कभी सुबह कभी रात आया करते, वे थे शैलेंद्र कुमार किनारे वाले। दुबले पतले ,ऊंचे , एकदम सीधी लंबी नाकवाले। नागपुर नवभारत के संपादक। पिताजी के खास मित्र। उनका भी घर निकट ही था इसलिए पिताजी व शैलेन्द्र जी जुम्मा टैंक की सीढियों पर भी देखे जाते थे। बातचीत में मशगूल। हालांकि मैंने कभी कभार देखा होगा। पर कुछ याद नहीं। जब पिताजी को घर आने में देर होती तो मां कहती – दोनों वहीं होंगे।
जब मैं सात का हुआ तो स्कूल में दाखिले का चक्कर चला। श्री से शुरुआत। स्लेट पट्टी पर बडा सा श्री मां लिखकर देती थी। श्री को उसके भूगोल के अनुसार पैंसिल से घिसते रहो व जोर जोर से उच्चारण करते रहो श्री श्री श्री। उन दिनों श्री लिखना भी कितना कठिन था। वाकई बुद्धि के विकास की गति बहुत धीमी थी।
अब बारी आई स्कूल जाने की। उसी स्कूल में जहां बहन ऊषा तीसरी कक्षा में थी। स्कूल जाने के नाम पर मैं खुश था। पिताजी ने हाथ पकड़ा, झोला उठाया जिसमें स्लेट पट्टी थी। मां दरवाजे तक आई। पहली बार बच्चा स्कूल जा रहा था। वह प्रसन्न थी या चिंतातुर, कहना मुश्किल है। मुझे लगता है दोनों का मिला-जुला भाव रहता होगा। बहरहाल आनंद से उडता मन स्कूल के नजदीक आते ही भयातुर हो गया। मैंने पिता जी का हाथ कसकर पकड़ा। पिता जी समझ गए। बोले कुछ नहीं। बोलते तो शायद मैं रोना शुरू कर देता।
फिर भी मैं रोया। हुआ यों कि स्कूल पहुंचने के बाद पिताजी जी ने मास्टर जी से कुछ बातचीत की। मास्टर साहब ने भरी-पूरी कक्षा में मुझे भी फर्श पर बैठा दिया। पिताजी बिना मुझपर नजर डाले , लंबे लंबे डग भरते चले गए। वे गए तो मैंने रोना शुरू कर दिया और उनके पीछे भाग लिया। सडक पर मैं रोता जा रहा था, उनकी पीठ दिख रही थी। पता नहीं कब मेरे रोने की आवाज उनके कानों में पडी । इसका जैसे ही उन्हें अहसास हुआ, उन्होंने पलटकर देखा। आश्चर्यचकित हुए। फिर उन्होंने मुझे कंधे पर उठा लिया। घर वापस। स्कूल का भूत मेरे सिर से उतर गया। सामान्यतः पहली बार स्कूल जाने वाले हर बच्चे के साथ यही होता है। रोना धोना व धीरे धीरे शांत हो जाना। व स्कूल का एक आदत बन जाना। वह बनी पर सशर्त।
दरअसल मेरी स्थिति कुछ विकट थी। स्कूल नहीं जाऊँगा, मतलब नहीं जाऊँगा। भयानक जिद्द। इसका हल यह निकाला गया कि मेरी बहन को तीसरी से निकालकर मेरे साथ पहली में बैठा दिया गया। बहन का साथ मिलने से मेरा मनोबल बढा। उसकी अवनीति मेरे कारण हुई फिर वह ताउम्र मेरे पीछे ही रही। जीवन में कुछ ज्यादा सुख नहीं मिला उसे।
एक दिन हम दोनों स्कूल जाने निकले पर गए नहीं। किराना दुकान जहां उधारी चलती थी, वहां से एक पाव फल्लीदाना खरीदा व मजे से खाते हुए सडक नापते रहे। यथा समय घर पहुंच गए। घर मे किसी को हवा नहीं लगी। लगी रहती तो मार पडती। जो नहीं पडी यानी फल्लीदाना हजम हो गया।
एक दिन एक नया लडका घर में नजर आया। मां ने बताया तुम्हारा बडा भाई है – रमेश। मुझे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। कोई बडा भाई भी है ! मां ने कहा -उज्जैन में दादाजी के यहां रहता था। अब हमारे साथ नागपुर में ही रहेगा। पढेगा।
(5 किस्तों के लेख की 4 और 5 कड़ी)
स्थान – नागपुर। मोहल्ला गणेश पेठ। वर्ष अंदाजन 1956-57
नयी शुक्रवारी की तुलना में पक्का व सुघड़ मकान। बडा सा हाल व रसोईघर। बाडानुमा। आजूबाजू दो तीन किराएदार। साामने खुला मैदान और पास में ही मंदिर। बच्चे थे इसलिए पारिवारिक, आर्थिक तकलीफें क्या थीं, उसका अहसास नहीं हो सकता था। बचपन यानी दिनदुनिया से बेखबर। केवल अपने में मस्त। दो वक्त खाना मिल जाता था व खेलने के लिए भरपूर समय। हां शाम होने के पूर्व घर आओ। हाथ-पैर धोकर भगवान के सामने प्रार्थना के लिए बैठ जाओ। प्रार्थना के बाद पहाडों का जोर जोर से उच्चारण करो। सवा, अद्धा, पौना और पता नहीं क्या क्या। भोजन करने बैठो तो पहले ईश्वर की आराधना। खाना भरपूर नहीं मिलेगा। नपा-तुला। ओव्हर इटिंग नहीं होनी चाहिए। बहुत जिद्द की तो एकाध रोटी और। चलो उठो। हाथ मुंह धो व पढने बैठो। सोना नहीं। ये मां प्रायः कहा करती थीं।
अनुशासन में रहते थे, इसलिए मार-वार नहीं पडती थी। मां पिताजी कभी नहीं डांटते थे। पिटाई का तो प्रश्न ही नहीं। सिर्फ यह देखा जाता था पढने बैठे हैं कि नहीं। जब मैं कुछ बडा हुआ ,राजनांदगांव में कापी के भीतर जासूसी उपन्यास रखकर पढता था। शौचालय जाते समय हाफ पैंट में पेट में छिपाकर किताब ले जाता, पढता। जब देर हो जाती, मां चिल्लाती-जल्दी निकल। असल में पिताजी भी शौचालय में अंग्रेजी का अखबार ले जाते थे। उनकी देखादेखी मैं भी ऐसा करता था, ऐसा नहीं है। वस्तुतः जासूसी किताबें मुझे इस कदर प्रिय थी कि मैं कोई मौका छोडना नहीं चाहता था। नहीं छोडता था।
बहरहाल गणेश पेठ वाले मकान में ज्यादा मौज थी। खेलने के लिए रमेश भैया का साथ था। पतंगबाजी व कंच्चियां खेलने में आनंद ही आनंद था। नाली में कंच्ची गई तो हाथ डालकर कीचड से निकालते थे। तरह तरह की गंदगी से सनी हथेली देखकर जिसमें मैला भी लगा हुआ रहता था, कोई घिन नहीं आती थी , ऐसा कुछ भी महसूस नहीं होता था बल्कि कंच्ची ढूंढकर निकलने का आनंद अलग था। भैया भी ऐसा ही करते थे। दिन ढलने के बाद शाम को हम कंच्चियां गिनने बैठ जाते थे व जीतीं हुई कंच्चियों को गिनकर खुश होते। कांच की कंच्चियों के साथ ही हमारे खेलों में शुमार थे लपा छिपी , गिल्ली डंडा व पतंगबाजी। सबसे अधिक मजा व रोमांच पतंग उडाने, पेंच लडाने व कटी पतंगों को लूटने में आता था। मेरा काम था चक्री पकडना और भैया का पतंग उडाना, पेंच लडाना। जब पतंग न होती तो हम अपनी गच्ची पर पहुंच जाते व घंटों आकाश की ओर ताकते रहते , इस उम्मीद के साथ कि कोई पतंग कटकर हमारी छत पर आ जाए या धागे सहित छत से गुजरे और हम उसे पकड़ लें या नहीं तो मांझा ही लूट लें। ऐसे ही एक बार हमने छत से गुजर रही पतंग को पकडने की कोशिश की। नीचे हल्ला सुनाई दिया। गालियों की बौछार हुई। घबराकर पतंग छोड़ दी। कुछ लडके धमकियां देकर चले गए थे। एक दो घर के सामने रूके हुए थे। उनकी चिल्लाहट हमारे कानों में पड रही थी – ‘ नीचे आओ , देखते हैं, तुम दोनों को। ‘ दरअसल यह पूरा गैंग था जो अपनी कटी पतंगों व मांझे को लूटने से रोकने के लिए मारपीट पर उतारू हो जाता था। उनकी आवाजें सुनकर मां बाहर आई। जैसे तैसे उन लडकों को शांत कर दिया गया। मैं आतंकित था। नीचे आया। मेरी रोनी सूरत देखकर मां कुछ नहीं बोली। कुछ देर बाद भाई साहब मुझे गार्डन ले गये। भय कुछ कम हुआ और बाद में मैने छत से गुजरती कटी पतंगों व मांझे को लूटना छोड दिया।
1 नवंबर 1956 में नया मध्यप्रदेश बनने के बाद पिताजी का तबादला आकाशवाणी नागपुर से भोपाल हो गया। उनके भोपाल जाने की तैयारी हुई। फिलहाल हम लोग नहीं जा रहे थे। पिताजी बिस्तर बंधकर तैयार हो गया। टिन की पेटी भी तैयार। रेल्वे स्टेशन के लिए निकलने ही वाले थे कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता आ गए। उस दौर के तेजस्वी साप्ताहिक अखबार ‘ नया खून ‘के मालिक स्वामी जी घर आया करते थे। ऊंचे पूरे व खूब मोटे स्वामी कृष्णानंद सोख्ता जी के सिर पर केश नहीं थे। खोपड़ी एकदम सफाचट। आते ही सबसे पहले वे अनुज दिलीप जो उस समय करीब तीन साल का था, अपने कंधे या सिर पर बैठा लेते व मस्ती चलती रहती। जब वे आए तो पिताजी को रूकना पडा। पता नहीं दोनों के बीच क्या बातचीत हुई पर थोड़ी देर बाद मैंने देखा, रस्सी से बंधा बिस्तर खुल गया था और पेटी भीतर कमरे में पहुंचा दी गई थी। बाद में मां ने बताया पिता आकाशवाणी की नौकरी छोड़ देंगे व स्वामी कृष्णानंद सोख्ता जी के साथ नया खून में काम करेंगे।
थोड़ा बड़ा हुआ तो कुछ समझ भी बढी। लेकिन बचपना फिर भी था। पूरी बेफिक्री थी। मैं देखता था बाबू साहेब ‘ नया खून ‘ में और ज्यादा व्यस्त हो गए। सुबह उनकी थी पर बाकी पूरा दिन दफ्तर या दोस्तों के साथ। मां दिन भर काम में लगी रहतीं थीं। शाम होने के पूर्व जो समय बचता ,वह आसपड़ोस की स्त्रियों से बातचीत में निकल जाता। घनिष्ठता किसी से नहीं थीं अलबत्ता कभी कभार पिताजी अपने दोस्तों के घर ले जाया करते। नरेश मेहता जी व उनकी पत्नी महिमा जी तथा जीवन लाल वर्मा विद्रोही जी पत्नी से मां का दोस्ताना था। खासकर विद्रोही जी के परिवार का काफी आना जाना था। जो लोग प्रायः घर आया करते थे, और जो नाम मुझे याद है, वे हैं, चित्रकार भाऊ समर्थ , भीष्म आर्य, शैलेंद्र कुमार, स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, प्रभाग चन्द्र शर्मा व पिताजी के छोटे भाई यानी हमारे काका, बबन काका व उनका परिवार।
मैं देखता था जब बबन काका घर आते थे तो पारिवारिक बातें कम साहित्यिक बहसें अधिक हुआ करती थीं। काका भी मराठी के कवि , आलोचक व उपन्यासकार थे इसलिए विभिन्न मुद्दों पर चर्चा स्वाभाविक थी। हमें उनकी बातों से कोई लेना देना नहीं था। उनका बडा बेटा राजीव हमउम्र था लिहाजा हम खेलने में मग्न रहते थे। हममें गाढी दोस्ती थी जो अभी भी बनी हुई है और हमारे जीवन के अंतिम क्षणों तक रहेगी।
मां व पिताजी ने अपने जीवन में दो तीन बच्चों को खोया। कब कौन किस उम्र में गया पता नहीं , हालांकि मां बीच बीच में हमारे सामने उन्हें याद करती थीं। द्रवित होती थी। सिर्फ सरोज मुझे याद है। मुझसे छोटी, मेरे बाद की। उसे बुखार आया। दवाइयाँ दी गई होंगी। एक दिन वह बिस्तर पर नहीं दिखी तो खोजबीन शुरू हुई , कहाँ गई ? कहाँ गई ? घर में इधर उधर ढूंढने के बाद वह बाथरूम में मिली। पानी की टंकी के पास । दोनों पैर पेट से चिपका कर गठरी जैसी पडी हुई थी। शायद उसे तेज बुखार था, सहन नहीं हो रहा होगा इसलिए वह पानी की टंकी के पास लेट गई। मुझे नहीं मालूम आगे क्या हुआ । जन्म व मृत्यु पर हर्ष या विषाद की कोई भावना छोटे बच्चों को उद्वेलित नहीं करती, जोर नहीं मारती। वह एक घटना बनकर रह जाती है। इसलिए सरोज के बारे इतनी ही स्मृति है कि पिताजी उसे गोद में उठाकर कमरे में ले आए। वह जीवित थी या नहीं, या कब गई यह भी पता नहीं लेकिन जब ये पंक्तियाँ लिखने बैठा हूँ तो सहज कल्पना कर सकता हूँ कि मां और पिताजी की क्या हालत हुई होगी। किस तरह उन्होंने इस सदमे को बर्दाश्त किया होगा । अपनी कहानी ‘ काठ का सपना ‘ के एक पात्र का नाम उन्होंने सरोज रखा। इस कहानी में बेटी की दीनहीन स्थिति पर एक मजबूर पिता की मर्मांतक पीडा का चित्रण है। उसका एक पैराग्राफ है –
” उसके पिता अपनी बालिका को देखकर प्रसन्न नहीं होते हैं । विक्षुब्ध हो जाता है उनका मन।नन्हीं बालिका सरोज का पीला चेहरा, तन में फटा हुआ सिर्फ एक ‘ फ्राक ‘ और उसके दुबले हाथ उन्हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं, ऐसे कर्तव्य को जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेंगे , नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोझ से वे चिढ जाते हैं । और वे उस नन्हीं बालिका को डांटकर पूछते हैं, यहां क्यों बैठी हो ? अंदर क्यों नहीं जाती ? ”
पिताजी की इस कहानी का बेटी सरोज से भले ही कोई संबंध न हो पर उनके अचेतन मन में मेरी यह छोटी बहन बसी हुई थी , ऐसा मुझे महसूस होता है। वैसे भी परिवार के अजीवित सदस्य की छवियाँ मन में ताउम्र बनी रहती है। फिर वे तो बहुत संवेदनशील थे। पूरी जिंदगी में तरह तरह की तकलीफें झेलते रहे। सरोज का जाना व बाद में एक सडक दुर्घटना में स्वामी कृष्णानंद सोख्ता की मृत्यु बहुत विचलित करने वाली थी। यह जख्म गहरा था।
उनकी चिंता का सबसे बडा सबब मैं भी था। नागपुर की ही बात। सुबह की स्कूल थी। मैं घर आया। मैं और मां खाना खाने बैठे। अंगीठी पर दाल की पतेली चढी हुई थी। हमने दाल खाई। मैनें मां को कुछ और दाल परोसने कहा। इस बार उन्होंने बडे से चम्मच से जैसे ही दाल निकाली, उसके साथ उसमें एक फूली हुई छिपकली आ गई। पता नहीं वह कब बर्तन में गिरी व उबलती रही। उसे देखते ही मां को उबकाई आई और वह लगभग दौडते हुए बाथरूम की ओर भागी। उल्टियां करते हुए मुझे उसके गले से निकली आवाज़ें साफ सुनाई दे रही थी पर मैंने अपना हाथ नहीं रोका, खाना जारी रखा था। दाल में छिपकली देखकर मुझे अजीब सा कुछ भी महसूस नहीं हुआ और न ही उल्टी का सेंसेशन आया। उल्टियां करके मां आई , वह बदहवास थी, उसने मुझे पटिये से उठाया व बाथरूम ले गई। जब कोशिशों के बावजूद मुझे उल्टी नहीं हुई तो वह और भी घबरा गई। उसने घर को वैसे ही खुला छोड़ दिया व मुझे तुरंत ‘नया खून ‘ के दफ्तर ले आई। उन्होंने पिताजी को बाहर बुलाया और उन्हें पूरी कथा सुनाई।। पिताजी भी चिंतित हुए। फिर दोनों मुझे साथ लेकर मेयो हास्पीटल ले गए। मुझे भर्ती किया गया। मां को चूंकि उल्टियां हो गई थीं अतः उन पर विष का असर जाता रहा किंतु मेरा इलाज शुरू हुआ और शायद हफ्ते दस दिन मैं अस्पताल में में भर्ती रहा। कहना न होगा इस दौरान दोनों मेरी सेहत को लेकर बहुत व्याकुल रहे। विशेष रूप मां अधिक परेशान रहीं। उन्हें चैन तब आया जब मुझे अस्पताल से डिसचार्ज किया गया। हम घर आ गए। तब तो नहीं पर किशोरावस्था लांघने के बाद में दीवारों में छिपकली को देखकर घिन आने लगी। पर उसे मारने के बजाय भगाने का प्रयत्न करता हूं। दरअसल मैं उन्हें जिंदगी के हिस्से के रूप में देखता हूं। वे घटना की याद दिलाती हैं। यादें जो सुखद रहती हैं और त्रासद भी।
इस घटना का ज्योतिष से क्या संबंध हो सकता है ? कुछ भी नहीं। लेकिन आशंका मन में हो तो वह उपाय के बारे में सोचने लगता है। हालांकि मुझे बिल्कुल याद नहीं कि छिपकली वाली घटना पहले घटी या बाद में। बहरहाल जिस तरह फेरीवाले अपना सामान बेचने के लिए घर घर दस्तक देते हैं, उसी तरह भविष्य बताने वाले धंधेबाज भी मोहल्ले में मंडराते हैं। ऐसे ही एक दिन एक फेरीवाला भविष्य वक्ता घर के बाहर प्रगट हो गया। और आवाज देने लगा। मां बाहर आई और उसकी बातों में आकर अपना व मेरा भविष्य जानने उतावली हो गई। उसने मां को कितने रूपयों से उतारा, नहीं जानता पर मेरी उम्र ज्योतिषी ने 60 बरस बताई। साठ , सिर्फ साठ बरस सुनकर मां खुश नहीं हुई। वे सौ बरस चाहती होंगी। और पिताजी ! उन्हें इस बारे में कुछ मालूम न था। उस समय नहीं जानता था कि हमारे बाबू साहेब की ज्योतिष विद्या में रूचि थी अथवा नहीं। मैं लेकिन बाद में इसका ज्ञान राजनांदगांव में हुआ। राजनांदगांव में पिताजी को जब कभी वक्त मिलता, वे मेरी हथेली अपने हाथ में लेकर लकीरों का गणित समझने का प्रयत्न करते। वे छोटे भाई बहन का भी हाथ देखते थे लेकिन मेरी हथेली उनके लिए रहस्यमय थी। दरअसल मेरी हथेली पर उभरी हुई लकीरें आपस में इतनी कटी-पिटी थीं कि उसे बुझना किसी चुनौती से कम न था। और तब मैने जाना पिताजी को ज्योतिष विद्या का ज्ञान था। वे जब लकीरें पढते थे तो उनका चेहरा चमकता था, वह चिंतामग्न या गंभीर नजर नहीं आता था। महसूस होता था कि वे रेखाओं को समझकर अर्थ ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि वे बताते कुछ नहीं थे। मुझे भी जानने की उत्सुकता नहीं रहती थी। मुझे तो इसीमें आनंद आता था कि उनके हाथ में मेरा हाथ है, सुकूनभरा। और वे मेरे पास बैठे हुए हैं।
पिताजी के ‘नया खून ‘ में काम करते हुए उनकी पत्रकारीय प्रतिभा परवान चढ़ी। मै नहीं कहता कि वे खबरों पर काम न करते होंगे। पत्रकारिता की शुरुआत खबरों से होती है। और संपादक की नजरों से वे गुजरती ही हैं। वाम रूझान का ‘ नया खून ‘ मुख्यतः समाचार-विचार का साप्ताहिक पत्र था इसलिए रोजाना घटित घटनाओं से संपादक व संपादकीय सहयोगियों का , इतना ही सरोकार रहता होगा कि सप्ताह भर की खबरों में से अति महत्वपूर्ण खबरों का चयन कर पृष्ठ बनाए जाए। लिहाजा पिताजी की नजर उन पर रहती होगी। और इसी आधार पर संपादकीय टिप्पणी के साथ विचार पेज पर वे राजनीतिक व गैरराजनीतिक लेख वे लिखा करते थे। यदि वे ‘ नया खून ‘ में न रहते तो कहा नहीं जा सकता कि उनकी पत्रकारिता का तेजस्वी स्वरूप अन्य किस माध्यम से से सामने आता। यानि नया खून उनकी पत्रकारिता का आधार स्तंभ था हालांकि उस जमाने के ‘कर्मवीर’ व ‘सारथी ‘जैसे महत्वपूर्ण व वैचारिक पत्रों में कल्पित नामों से वे नियमित लेखन करते थे। उनकी राजनीतिक टिप्पणियां परिस्थितियों के सटीक आकलन के साथ भविष्य का भी संकेत देती थीं। हालांकि उनकी पत्रकारिता पर हिन्दी साहित्य जगत में अपेक्षाकृत कम चर्चा या पडताल हुई।
पिताजी के ‘ नया खून ‘ में रहते हुए उनके लिए उनके मित्र बेहतर नौकरी के लिए प्रयत्न कर रहे थे। राजनांदगांव से शरद कोठारी का नागपुर आना जाना शुरू हो गया था। वे मारेस कालेज के छात्र थे। घर आते थे। एकाधिक बार मैंने उन्हें अपने यहां देखा। अलबत्ता पिताजी से वे बाहर मिलते ही होंगे। उन्होंने राजनांदगांव में नये नये खुले दिग्विजय महाविद्यालय में लेक्चरर की नौकरी के लिए अपने प्रयत्न शुरू किए। वे तथा कन्हैया लाल अग्रवाल जी कालेज की मैनेजिंग कमेटी में थे। पिताजी को आवेदन भेजने कहा गया। और शायद उसी समय नयी दिल्ली में श्रीकांत वर्मा जी ने भी कोई प्रस्ताव भेजा। राजनांदगांव छोटा शहर था। अब दो शहरों में से किसी एक का चयन करना था। पिताजी ने दिल्ली का मोह छोडा व राजनांदगांव के निजी दिग्विजय महाविद्यालय को चुना। यकीनन यह बेहतरी की ओर एक कदम था। यहां उन्हें प्राध्यापक की नौकरी मिल गई और यहीं से परिवार के कुछ अच्छे दिनों, महीनों की शुरुआत हुई।
अलविदा नागपुर। राजनांदगांव जाने की तैयारी शुरू हो गई। पहले पिताजी व बडे भाई चले गए। कुछ दिनों बाद पिताजी हमें लेने आए। घर का साजोसामान पहले ही रवाना कर दिया गया था। दिन , तारीख या महीना याद नहीं। इतना याद है हम ट्रेन में बैठ गए थे और पिताजी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी देरी मां को बेचैन कर रही थी। ट्रेन रवाना होने के ठीक पहले पिताजी रेलवे ब्रिज की सीढी से नीचे उतरते नजर आए। मां की जान में जान आई। ट्रेन छूटी और इसके साथ ही यह दृश्य दिमाग में कुछ इस तरह कैद हुआ कि जब कभी मैं ट्रेन से नागपुर आता हूँ या नागपुर होकर गुजरता हूँ तो अनायास उस पुल पर कुछ पल के लिए नजर ठहर जाती है जहां पिताजी सीढी से नीचे उतरते मुझे दिखाई दिए थे। कभी न भूलने वाला नागपुर का अंतिम दृश्य।
स्थान – राजनांदगांव । वर्ष 1958-1964
कुल जमा छह साल। इसमें से बिमारी के छह-आठ महीनों को छोड़ दें तो पिताजी के जीवन के अंतिम करीब पांच वर्ष सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण, आनंददायक व सुकून भरे रहे। आर्थिक कष्ट कुछ कम हुए, नये व अच्छे मित्र मिले, अच्छा साहित्यिक वातावरण मिला, रहने के लिए बडे व हवादार मकान मिले और सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानसिक शांति व चिंता मुक्त होने की वजह से नया व अधूरा लेखन कार्य यहीं पूर्ण हुआ जिसमेँ कालजयी कविता ‘अंधेरे में ‘ भी शामिल हैं।
मुंबई- कोलकाता रेल मार्ग पर नागपुर से करीब ढाई सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा राजनांदगांव छत्तीसगढ़ का छोटा लेकिन व्यावसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर। उस काल में इस शहर की आबादी लगभग एक-डेढ लाख रही होगी। रात को नागपुर से निकली हमारी पैसेंजर ट्रेन अलस्सुबह राजनांदगांव पहुंची तो रात का अंधेरा पूरी तरह छटा नहीं था। शहर से लगभग पांच किलोमीटर फासले पर वसंतपुर में पिताजी जी ने किराए पर मकान ले रखा था। चितलांगिया जी का मकान था वह। आम तौर पर उन दिनों रेल के डिब्बे की तरह मकान बनते थे। खूब खुले व बडे। इस मकान में भी सामने बडा सा वरांडा, बाजू में कमरा, फिर भीतर दो लंबे व कम चौडे हालनुमा कक्ष, पीछे एक और कमरा, उससे लगा रसोई घर व वाशिंग प्लेस। और सर्वाधिक आल्हादकारी किचन के दरवाजे के पीछे, उससे लगी हुई बाडी व बहुत बडा बगीचा जिसमें अनेक फलदार वृक्ष थे। बाडी में सब्जियों के पौधे व लताएं झूम रही थीं। हम घर पहुंचे और पीछे का नजारा देखकर बहुत खुश हुए। एकसाथ इतने पेड पौधे विशेषकर सब्जी बाडी पहली बार देखी। हम स्वयं को रोक नहीं पाए और दो कदम चलकर ककडियां तोड लीं लेकिन दूसरे ही दिन चौकीदार ने चेतावनी दे दी कि फलों व सब्जियां तोडने से बाज आए। खैर उसकी चेतावनी तो अपनी जगह थी और हम बच्चे जब तक वसंतपुर के इस मकान में रहे पके, अधपके ,कच्चे आम , अमरूद, संतरे, अनार , बेर , गंगा ईमली व सीताफल चोरी छिपे तोडकर खाते रहे। इससे कम से मेरी सेहत बहुत सुधर गई। यहां का एकमात्र फोटो है जो बडे भैया ने खींचा था जिसमें मां , पिताजी ,बडी बहन ,छोटा भाई व दस साल का मैं ।
वसंतपुर के दिन बहुत अच्छे थे। पहली बार पिताजी को अपना कमरा मिला जो लिखने-पढने की दृष्टि से सुविधाजनक था। वे ऐसे पिता थे जो वक्त निकालकर बच्चों को समय देते थे, उन्हें पढाते थे व उनके साथ खेलते भी थे। मैं उनके साथ शतरंज़ खेलता था। उन्होंने ही मुझे शतरंज की चालें समझाईं, सीखाया। जैसा कि प्रत्येक पिताश्री करते हैं, मेरा उत्साह बढाने जानबूझकर एकाध गलत चाल चलते थे ताकि उनकी मात हो जाए। यह बात मुझे बाद में समझ में आई तब तक मैं इस खेल में पक्का हो चुका था।
हमारे यहां एक ही सायकिल थी, मार्शल। पिताजी कालेज के लिए पैदल निकलते थे जबकि बडे भैया सायकिल पर मुझे बैठाकर स्कूल ले जाते थे। राजनांदगांव नगर पालिका के प्रायमरी स्कूल जो गोल स्कूल कहलाता था, में मैं कक्षा चौथी का विद्यार्थी था और रमेश भैया इसी परिसर में स्थित सर्वेश्वर दास हायर सेकेंडरी स्कूल में प्री युनिवर्सिटी के छात्र थे। यह क्रम तब तक चला जब हम दिग्विजय कालेज परिसर के अंतिम छोर पर स्थित महलनुमा मकान में शिफ्ट हो गए।
वसंतपुर का गांव जैसा माहौल आनंददायक था। हमें खेलने की पूरी आजादी थी। ऐसे ही एक बार खुले मैदान में पतंग उडाते-उडाते पीछे हटने के दौरान मेरा बाएँ पैर का टखना एक बडे से पत्थर से टकरा गया। अंदरुनी चोट लगी, कुछ दर्द हुआ। मैं बेपरवाह बना रहा। पतंग उडाने में मस्त। रात आराम से निकल गई। किंतु धीरे धीरे धीरे पैर में सूजन आई। दर्द शुरू हो गया। पिताजी शहर के जिला चिकित्सालय ले गए। डॉक्टर ने परीक्षण के बाद बताया कि मवाद भर गया है, दवाओं से ठीक नहीं होगा, चीरा लगाना पडेगा।
वह दृश्य आंखों के सामने है। हास्पिटल में एडमिट किया गया। अलग कमरा मिला। मां साथ में थी । अगले दिन सर्जरी होनी थी। सुबह का समय। पिताजी घर से जल्दी आ गए। तब तक मैं डरा हुआ नहीं था पर जैसे ही आपरेशन टेबल पर लिटाया गया , मुझे समझ में आ गया। लोकल एनेस्थिया नहीं दिया गया। पिताजी ने दोनों पैर कसकर पकड़े। नर्स ने दोनों हाथ दबाकर रखें। मैनें गला फाडकर रोना शुरू कर दिया। जब डाक्टर ने चीरा लगाया व पस निकालने सूजन को दबाना प्रारंभ किया, तो कल्पना की जा सकती है कि मेरी हालत कैसी हुई होगी। वैसे भी किसी बच्चे को रोते देखकर बडों मन पिघलने लगता है फिर यह तो काट-पिट का मामला था। बहरहाल डॉक्टर ने अपना कार्य पूरा करने के बाद पट्टी कर दी। मैंने देखा पिताजी का चेहरा पसीने से तर-बतर था। टखने पर चीरे का बडा सा निशान बना हुआ है , उसे देखता हूँ तो पिताजी का चेहरा सामने आ जाता है । खैर जब मैं सोचने-समझने की स्थिति में आया तब मैंने महसूस किया मेरी पीडा से कहीं ज्यादा पिताजी की पीडा रही होगी। बेटे, अपने छोटे बच्चे को दर्द से बिलबिलाते देखकर एक पिता का कलेजा मुंह में आना स्वाभाविक है। अब सोचता हूँ कैसे उन्होंने उस घडी में अपने आप को संभाला होगा। किस कदर दर्द से वे गुजरे होंगे।