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अब नगीने अशआर सुनना नसीब नहीं होगा 

ख़ाक़ में मिल जायेगा जब मेरी हस्ती का जमाल
ताज़ा होगी यादगार-ए-जीस्त इस तस्वीर से

Mirza Masood : ये शे’र अभी थोड़े समय पहले ही मिर्ज़ा सर ने सुनाया था. दरअसल मैं एक पत्रिका के लिए उन पर केन्द्रित आलेख लिख रहा था, जिसके लिए मुझे उनकी कुछेक तस्वीरें चाहिए थीं. तब सर ने कुछ तस्वीरें निकाली और कहा -”सब रख लो. मैं तो पका हुआ आम हूँ. कभी भी टपक सकता हूँ. तब मेरी तस्वीर से ही तुम मेरी जिंदगी को याद करोगे.” मैंने कहा, ”नहीं सर, अभी मुझे आपके कम से कम 25 साल और चाहिए. तब तक मै थोड़ा और बड़ा हो जाऊँ.”

Mirza Masood: हालाँकि बेहतरीन शे’र सुनाना और लाजवाब कर देना- मिर्ज़ा सर का सिर्फ यही एकमात्र परिचय नहीं है. उनके बारे में सभी लोग बहुत अच्छी तरफ से वाकिफ हैं. वे छत्त्तीसगढ़ के जाने माने रंग-निर्देशक, अंतरराष्ट्रीय खेल कमेंटेटर, साहित्य-संस्कृति के मर्मज्ञ सहित अनेक विषयों के विशद जानकार रहे. उन्होंने पकिस्तान में हुई विश्व कप हॉकी चैम्पियनशिप के अलावा, सिओल ओलम्पिक और एशियन गेम्स सहित अनेक अंतर राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कमेंट्री की. उन्हें राज्य सरकार का चक्रधर सम्मान और चिन्हारी सम्मान भी प्राप्त हुआ. दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी उनका विशिष्ट सम्मान हुआ, और भी अनेक सम्मान उनके खाते में रहे. बेशक, यह सब उनके जीनियस के सामने कोई बड़ी बात नहीं थी.उनका व्यक्तित्व अपने आप में उनका सबसे बड़ा सम्मान था. किसी जगह पर उनका मौजूद होना ही बड़ी बात होती थी.

जिस वर्ष सर को नवम्बर में चक्रधर सम्मान मिला, उसके करीब महीने भर पहले सर ने रात करीब 8 बजे फोन किया और कहा – “विभाष, तुमने सेन्ट्रल जेल के भीतर किये गए मेरे थियेटर वर्कशॉप पर 1997 में क्रॉनिकल और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया जो आर्टिकल लिखे थे, उसकी कॉपी मुझे अभी लाकर दे सकते हो क्या?” अब मैं चिंतित हुआ कि करीब 25 वर्ष पुराना मामला है. क्या किया जाये? इस बीच मेरी सब फाइलें भी अस्त व्यक्त हो गई थीं. लेकिन तीन से चार फ़ाइल में लेखों की कटिंग रखी हुई हैं- यह ध्यान था. संयोग से रात दस बजे तक वो सभी आलेख मिल गए. लेकिन तब तक फोटो कॉपी की दुकाने बंद हो गई थीं. और बहुत तेज बारिश भी हो रही थी. मैंने अपनी बस्ती में परिचित दुकान वाले से कहा कि किसी तरह घर के भीतर से ही फोटोकॉपी कर दो. मैंने पांच सेट बनवाए और भीगने से बचाने के लिए मोटी-मोटी पॉलीथिन में रखकर रेन कोट लगाए हुए, सर के घर पहुंचा करीब रात 11 बजे. सर को तीन सेट दिए और उसी पांव घर लौट आया. सर का काम बन गया था, इस बात का भीतर से बहुत संतोष था.फिर जब पुरस्कार की घोषणा हुई, तो इतनी तसल्ली हुई कि बयान नहीं कर सकता. लौटते समय मैं, कैफ़ी आज़मी के उस नगीने शे’र को शिद्दत से याद कर रहा था, जो कभी क्लास में मिर्ज़ा सर ने ही सुनाया था. और उसी अशआर को तेज बारिश में मंत्र की तरह दोहराते हुए मैं घर पहुँच गया.

तू बादल है,बिजली गिराना न छोड़
तू सूरज है मुझको जलाना न छोड़
अभी मेरे इश्क ने हार मानी नहीं
अभी इश्क को आज़माना न छोड़

कुछ साल पहले जब पद्मश्री में अनुशंसा की शर्त ख़त्म हुई और यह प्रक्रिया पूरी तरह से ‘ओपन’ कर दी गई कि कोई भी व्यक्ति किसी के लिए भी आवेदन भेज सकता है तो मैंने एक दिन उनके घर में डरते-डरते पूछा- ‘सर मैं आपका परिचय भेज सकता हूँ क्या? इस पर सर ने मुझे डांटते हुए कहा- “इस चक्कर में तुम मत पड़ो.” आकाशवाणी में युववाणी कम्पीयर रहते हुए, सर जब कांच की दीवार के उस पार दूसरे कमरे में एनाउंसर की भूमिका में रहते थे, तब भी सर से डर लगता था कि कोई गलती हुई, तो प्रोग्राम के बाद डांट पड़ना एकदम पक्का है. बाद में सर से थोड़ी ढील मिलने लगी तो बराबरी से बात करने का अधिकार भी वे खुद देने लगे. उनके साथ के अनगिनत प्रसंग हैं, जिस पर बात लम्बी हो जाने का डर है.

खामोश हो गई इक पुरअसर आवाज़

वे कितने बड़े और प्रभावशाली व्यक्तित्व के मालिक थे, उनका यह जलवा-जलाल भी मैंने बरसों तक अपनी आँखों से देखा है. शायरी उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक रंगीन और दिलकश पहलू था, जो उनकी बेहतरीन शख्शियत को और उभारने का काम करता था. ठीक मौके पर एकदम मौजूं शे’र कहना उनकी गजब की याददाश्त का कमाल होता था. एक बार उन्होंने महंत कॉलेज से क्लास ख़त्म करने के बाद का वाकया बताया कि उनके बहुत ही अनन्य और अभिन्न मित्र श्रद्धेय पंडित गुणवंत व्यास सर कॉलेज के सामने ही रंग मंदिर से निकलते हुए मिल गए और बात होते-होते दोनों वहीँ कमलादेवी संगीत महाविद्यालय के ऑफिस में बैठ गए. फिर ‘ग़ज़ल’ की रचना, बहर और अरकान (छंद) पर बात होने लगी. सर ने मुझे बताया कि – “आज मित्र ने छेड़ दिया तो बरसों के बाद मुझे ऐसी-ऐसी नज़्में और अशआर याद आये कि मुझे खुद हैरत होने लगी. वो सब जो मैंने कोई पचास बरस पहले नशिश्त और मुशायरे के संचालन में सुनाये थे, वो सब ताज़ा होते गए. तुम चूक गए विभाष. मैंने “ग़ज़ल” लफ्ज़ पर ही मुश्तमिल कोई पचास से ज़्यादा शे’र सुनाए. तुम्हें वहां होना चाहिए था.” अब वो दोबारा कैसे और कब होगा- मै इसी उधेड़ बन में लगा रहा. फिर टुकड़े टुकड़े में ही कभी-कभी कुछ नगीना मिलता गया. बशर्ते, सर को छेड़ दिया जाए. हर एक बात पर मौजूं शे’र सुनाने का थोड़ा-बहुत हुनर जो प्रसाद-स्वरुप मिला,उसमें तत्क्षण कविता लिखने और बोलने वाले मेरे पापाजी की हाजिर-जवाबी और मिर्ज़ा सर की सोहबत और आशीर्वाद का असर ही ज्यादा है, अपना कुछ भी नहीं. बड़े लोग अपनी संगति में कैसे किसी को निखारते हैं, यह मिर्ज़ा सर से देखने-सीखने को मिला. उन्होंने कितने ही लोगों को संवारा है, जिनकी कोई गिनती नहीं है.

“मिर्ज़ा” की आवाज ही उनकी पहचान थी

सिओल ओलम्पिक का एक यादगार वाकया सर अक्सर बताया करते थे, जिस वजह से पूरे भारतीय प्रसारण दल ने उनका लोहा माना था. रोज़ के 15-15 मिनट के प्रसारण में पहले अंग्रेजी और हिंदी में दिन भर के खेलों का सारांश सीधे सिओल से रिकार्ड होता था- भारतीय समय के अनुसार रात 8 बजे से साढ़े 8 बजे तक. एक दिन ऐसी गलती हुई कि 8 बजे से सवा 8 बजे के लिए जो अंग्रेजी प्रसारण रिकार्ड हुआ वही टेप दोबारा भी रिकार्ड करा दिया गया. टीम के सदस्य भी रोज करते-करते अभ्यस्त हो गए थे. तो उन्होंने गौर से टेप को सुनकर चेक नहीं किया था. प्रसारण के ठीक 10 मिनट पहले दिल्ली स्टूडियो से एक अधिकारी ने फोन पर सिओल की टीम को बताया कि हिंदी का टेप ही नहीं आया है और अभी अंग्रेजी टेप के खत्म होने में दस मिनट हैं. 5 मिनट का टेप चल चुका है. सिओल में मौजूद अधिकारियों के हाथ पांव फूलने लगे. इस बातचीत के बाद, अब सिर्फ 7 मिनट बाकी थे. मिर्ज़ा सर ने तुरंत टीम लीडर से कहा मै हिंदी में लाइव बोल देता हूँ, सवा 8 से साढ़े 8 बजे तक. किसी को खबर नहीं होगी कि रिकार्ड नहीं हुआ है. टीम के करीब 30 लोगों की सांस में थोड़ी सांस आई. सर ने कहा सिर्फ आज के खेलों की पदक सूची मुझे दीजिये. दिल्ली टीम को कहा गया कि अंग्रेजी के टेप को ही सवा 8 बजे फिर से प्ले कर दें, जिसमें सिग्नेचर ट्यून डबिंग की हुई है, जैसे ही ट्यून ख़त्म होगी सिओल से मिर्ज़ा मसूद बोलना शुरू कर देंगे और तब अंग्रेजी नरेशन के ऊपर हिंदी आवाज़ अपने आप सुपर-इम्पोज होती जाएगी आखिरी में टेप ख़त्म होने से 30 सेकण्ड पहले वो अपना बोलना समाप्त करेंगे तो टेप में रिकार्डेड क्लोजिंग सिग्नेचर ट्यून बजने लगेगी, इस तरह सभी को यही लगेगा की हिंदी टेप भी, रोज की तरह पहले से रिकार्डेड वाली ही बज रही है.इसमें खतरा यही हो सकता था कि यदि सर ने 2 से 4 सेकंड भी पहले बोलना बंद किया होता, तो उस जगह पहले से रिकार्ड किया हुआ अंग्रेजी का शब्द सुनाई दे जाता और तब सबको मालूम हो जाता कि क्या किया गया है. मिर्जा सर ने बताया कि – ”मै कुर्सी पर एकदम आगे की छोर पर पीठ सीधी करके बैठा और हेड फोन से अंग्रेजी टेप को फॉलो करने लगा. सामने घडी पर मेरी नज़र स्थिर थी. जैसे ही 30 सेकण्ड हुए मैंने पदक सूची के अनुसार हिंदी में तत्क्षण वाक्य बनाते हुए सभी खेलों का विवरण देना शुरू कर दिया. उद्घोषक रहने के कारण मुझे सेकंड्स का बारीकी से ध्यान था और एक बार भी शब्दों में अटकने की आदत कभी थी ही नहीं. जब 5 मिनट बीत गए तो पूरी टीम के अधिकारी, जो मेरे आजू-बाजू अधीर होकर खड़े थे, उनके चेहरे पर तनाव कम होने लगा और 8 बजकर 29 मिनट होते ही मै क्लोजिंग के लिए सजग हो गया. अब मैंने 2 से 3 छोटे वाक्यों में दिन भर के कुछ रोमांच और कीर्तिमानों का वर्णन किया, जो मुझे याद था, और ”हम कल फिर मिलेंगे” कहकर मैंने नमस्कार किया, अंग्रेजी टेप की ट्यून बजने लगी. फिर मेरे कुर्सी से उठते ही सबने मुझे गले लगाकर कस लिया.” ऐसे धुरंधर प्रसारक थे मिर्ज़ा सर.

वैसे तो यह भी उनके परिचय का छोटा सा ही हिस्सा है, क्योंकि उनके विषय में कुछ कहने का न तो मेरा सामर्थ्य है और न ही कोई सलाहियत. किन्तु उनके बहुत प्रिय विद्यार्थी के रूप में उन्हें मैंने जितना कुछ भी महसूस किया, उसे यदि बयान करने के लिए कहीं से भी एक प्रस्थान बिंदु लिया जाये तो उन्ही का सुनाया हुआ यह शे’र भी उनके विषय में बहुत कुछ संकेत करता है. (फिल-वक्त उनकी आखें ही याद कर लीजिये, लगेगा जैसे अपने लिए ही कह रहे हों)

आँखे मेरी पथरा गईं और अश्क बहते ही रहे
वाह री ताकत-ए-हिज्राँ, पत्थर को निचोड़ा तूने

इसी के बाद सर ने एक और बेहतरीन शे’र सुनाया.

वो अश्क बनके, मेरी चश्म-ए-तर (आँख) में रहता है
अजीब शख्स है, पानी के घर में रहता है

(चूँकि इसे मैंने कहीं किसी किताब में लिखा हुआ अभी तक नहीं पढ़ा है, तो जैसा सर से सुनाया था, वही मैंने लिख दिया है. यदि कोई लफ्ज़ इधर उधर हों गए हों, तो अग्रिम क्षमा याचना)

मिर्ज़ा सर ने पहला शे’र मकबूल शायर कृष्ण बिहारी नूर के हवाले से, आकाशवाणी के ड्यूटी रूम में संभवतः 1995 में युववाणी में मेरी ड्यूटी के दौरान सुनाया था, जब मुझे “आँखें” शीर्षक से संगीतमय कार्यक्रम तैयार करना था. (दूसरे शे’र को कहने वाले शायर का नाम याद नहीं आ रहा) फिर उन्होंने “आँख” और “आँखें” लफ्ज़ पर ही करीब 40 और भी बेहतरीन शे’र मुझे सुनाये, जिनमे से ज्यादातर मुझे अभी भी याद हैं.मैंने घर आकर उन्हें अपनी डायरी में नोट भी कर लिया था. वैसे उनसे मुलाकात 1988 से होती रही. लेकिन तब खेल पत्रकार होने के नाते, मैं ज्यादातर खेल कार्यक्रमों के प्रस्तुतकर्ता के रूप में ही आकाशवाणी जाया करता था. उनके, हॉकी और फुटबाल सहित अन्य खेलों के ओलम्पिक और अंतरराष्ट्रीय कमेंटेटर होने के कारण मिर्ज़ा सर से उनके बड़े-बड़े अनुभवों को सुनकर मैं काफी प्रभावित रहता था. वे भी मुझे साप्ताहिक और मासिक कार्यक्रमों में स्क्रिप्ट लेखन और रिकार्डिंग के लिए अवसर दिया करते थे, फिर अन्य अधिकारियों के साथ भी संपर्क होता गया.
वे खेल कार्यक्रम की रिकार्डिंग के दौरान भी उर्दू शायरी, हिंदी साहित्य, कहानी, रंगमंच, दर्शन, मनोविज्ञान, अध्यात्म, आस्तिकता, नास्तिकता, घर, परिवार और न जाने किन-किन विषयों पर इतनी सारी बातें बताया करते थे, कि लगता था सब घोल कर पी जाऊं. अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करते समय सर से जितने विदेशी साहित्यकारों की किताबे और उनकी विशेषता मैंने सुनी, मेरा अधिकांश उत्तर उनसे ही बन जाया करता था. ज्यां पॉल सार्त्र, सिमोन द बाउवर, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, विक्टर ह्यूगो, ए जी गार्डिनर, रॉबर्ट फ्रॉस्ट, रॉबर्ट ब्राउनिंग, टी एस इलियट, जार्ज ऑरवेल, जॉन मिल्टन, फ्रेंज़ काफ्का, ओ हेनरी, मोपासा, हरमन हैस, अल्बेयर कामू, अल्बर्तो मोराविया, दोस्तोएवस्की, एंतोन चेखव जैसे अनेक साहित्यकारों की कितनी विशेषताएं सर ने ज़ुबानी बताई, और उदारतापूर्वक दोनों हाथ से लुटाते हुए कितना समृद्ध किया. पढ़ने और समझने की अंतर-दृष्टि दी. इसका ऋण कैसे उतारा जायेगा? एकदम असंभव है. उनके जीनियस के दर्जा क्या था, इसकी एक झलक बहुत बाद में मिली, जब सर ने बताया कि वे हर साल अलग-अलग देशों में बनने वाली अवार्ड विनिंग फिल्मों की डीवीडी कुरियर से मंगवाते हैं और ऊपर वाले कमरे में अकेले बैठकर पूरी फिल्म देखते हैं. ऐसे ही जब भी किसी नोबेल साहित्य विजेता का नाम घोषित होता तो सर पहले से ही उन लेखक की तीन से चार पिछली किताबों का ज़िक्र करते थे, और बताते थे कि -“इनको मैंने कितने साल पहले पढ़ा था. तब मुझे लगता था कि इनको नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए” . ऐसे व्यक्ति की ऊंचाई और गहराई को भला कौन और कैसे नाप सकता है? सबसे बड़ी बात कि इतना विविध अनुभव और अथाह ज्ञान रखने के बाद भी हम जैसे बेहद सामान्य लोगों के साथ वे भी दिन भर सामान्य बने रहते थे, ताकि हमें छोटेपन का अहसास नहीं हो.

सर की हर बात रिकार्ड करने लायक होती थी. लेकिन उन दिनों मोबाइल फोन नहीं होता था और रिकार्डिंग वाला फोन तो बहुत बाद में आया. फिर तो सिलसिला ही चल पड़ा और सर के साथ खूब संगत मिली. जहां भी कवरेज या कमेंट्री करने जाते, रास्ते भर सर की एक से एक बातें किताब लिखने के लायक होती थीं. बाद में वर्ष 2002 से महंत कॉलेज में एमजेएमसी (पत्रकारिता स्नातकोत्तर उपाधि) की पढाई के दौरान पहले ही बैच में सर हमें “फिल्म-कला-संस्कृति” का विषय पढ़ाने के लिए अतिथि अध्यापक के रूप में आते रहे. वहां भी उन्होंने बहुत समृद्ध किया. फिर मै भी एमजेएमसी के प्रीवियस के बाद ही यूजीसी नेट परीक्षा पास करने के आधार पर वहीँ पढ़ाने लगा. अब तो सर के साथ स्टाफ रूम में करीब दो से तीन घंटे का साथ और मिलने लगा.जैसे लॉटरी ही लग गई.
जब फरवरी 1996 के पहले हफ्ते में मुझे आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा में संमाचार वाचक-सह-अनुवादक के सीमित पदों पर चयन का अवसर लगभग मिल चुका था और सिर्फ स्वर परीक्षण होना ही बाकी था, तब सर ने मुझे दिल्ली जाते समय गुरुमंत्र दिया था, वह यह कि- ऑडिशन में जब परदे के उस पार दूसरे कमरे से, परीक्षा के लिए दी गई स्क्रिप्ट में से कविता, नाट्यांश, शायरी या कोई उपन्यास का अंश पढ़ते समय ऑडिशन लेने वाले अधिकारी की आवाज़ आये कि – “फिर से पढ़िए”- तो समझ लेना कि सलेक्शन होना तय है, केवल उच्चारण की कुछ बारीकियों की ही तस्दीक होना बाकी है.” मुझे स्क्रिप्ट में अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत के कुछ अंश पढ़ने के बाद एक शे’र पढ़ना था-

जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुक़ूमत कि जिसमें
बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते

मैंने इसे पहले कभी सुना नहीं था और यह शेर मैं पहली बार पढ़ रहा था. लेकिन मुझे नहीं मालूम कि ऐसा कैसे हुआ, जब मैंने शे’र पढ़ा तो मैंने ‘हुकूमत’ को हक़ूमत पढ़ा. और नुक्ता भी ठीक लगा था. तभी परदे के उस तरफ से एक महिला अधिकारी की आवाज़ आई — फिर से पढ़िए – और मैंने मिर्ज़ा सर को सौ बार धन्यवाद दिया. मेरा रोल नंबर 626 था. संभवतः मेरे नाम के V अक्षर के कारण सबसे आखिरी अभ्यर्थी मैं ही था. हम बाहर आए तो दो लोगों के रोल नंबर और नाम पुकारे गए- रोल नंबर 26 मुनीश शर्मा और 626 के साथ मेरा। हालाँकि चयन प्रक्रिया के दो हफ्ते बाद ही प्रसार भारती अधिनियम लागू हो जाने से पूरी परीक्षा NULL & VOID घोषित हो गई, क्योंकि इसमें समाचार वाचक का पद नियमित नहीं रह गया था. (मुनीश अभी भी दिल्ली के किसी एक रेडियो चैनल में संभवतः अनुबंध के आधार पर समाचार वाचन करते हैं). इस तरह मिर्ज़ा सर का वह सबक रेडियो-टीवी में बाद के कार्यों के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण रहा. इतने बरसों में सर ने अनेक विषयों का ज्ञान साझा करने के साथ ही अपने परिचय से, देश के कुछ बड़े शायरों और साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों से मेरी सीधी मुलाकात कराई.
मेरे माता-पिता के निधन के बाद सर ने हमेशा एक अभिभावक की तरह मेरा ध्यान रखा, मुझे संभाला और हर कठिन समय में मेरा मार्गदर्शन भी वे लगातार करते रहे. अभी भी जब गुस्सा करते थे तो वही पुराना तेवर उभर जाता था. अब वह गुस्सा भी चला गया. उनसे डांट सुनने की दुर्लभ सुविधा भी छिन गई.

आखिरी-आखिरी के दिनों में मिर्ज़ा सर कई बार मेरे कंधे में दोनों तरफ से हाथ रखकर लगभग सुबकते हुए यह जरूर कहा करते थे- “एक बात सुन लो और याद रखो- जब भी मुझे सुपुर्द-ए -ख़ाक किया जाएगा, तो इस बात का ध्यान रखना कि मेरी जगह के ऊपर एकदम घना पेड़ न रहे, कहीं धूप भी आती रहे, क्योंकि मुझे ठंड बहुत लगती है.” और तब मैं भी खुद को रोक नहीं पाता था. उनके साथ बैठ जाएं तो सर अक्सर बहुत लम्बी बातें किया करते थे और मुझे भी उठने का मन नहीं करता था. लेकिन जब देर रात हो जाए और घर से फोन आने लगे तो, सर आखिर में चलते-चलते ये शे’र भी जरूर सुनाया करते थे

ये किस्सा-ए-लतीफ़ अभी ना तमाम है
जो कुछ कहा गया है, वो आगाज़-ए-बाम है

और फिर, ये उनका हमेशा का आखिरी वाक्य – “ठीक है विभाष, जाओ, घर से बुलावा आ रहा है.” — अफ़सोस ये है कि अब ये वाक्य फिर कभी सुनने को नहीं मिलेगा . लेकिन सर, आपकी कही हुई बातें, जो मैं हर दिन मुश्किल घडी आने पर कई-कई बार दोहराता हूँ, वो तो मैं बेशक अभी भी करता रहूँगा …… ठीक वैसे ही, जैसे हर दिन अपने पापाजी की बातों को याद करता हूँ . … अब आप नहीं, तो आपकी काली स्याही वाली सुन्दर लिखावट के पन्ने ही बोलेंगे और हमें दिशा देंगे …आप कहीं गए नहीं हैं सर… आप हमेशा स्मृतियों में यूँ ही चमकते रहेंगे, अपने मोतियों जैसे अक्षर की तरह

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