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पहेली थे बस्तर के पहले सांसद – मुचाकी कोसा

राजीव रंजन प्रसाद (आलेख-2)

by satat chhattisgarh
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Paheli was the first MP of Bastar - Muchaki Kosa

बस्तर केंद्रित; चुनाव श्रंखला

lok sabha election 2024 : राजतन्त्र और लोकतंत्र के बीच की रस्साकशी थी। क्या वे लोग जिन्हे लोकतंत्र का ध्वज थामना था वे भी अंग्रेजों की भांति की व्यवहार कर रहे थे? निस्संदेह बस्तर के राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की लोकप्रियता थी लेकिन राजाओं का समय तो चुक गया था। उस समय देश भर के अनेक राजा महाराजा देश के पहले आम चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहे थे, तो ऐसा क्यों था कि तत्कालीन मध्यप्रदेश के कॉंग्रेस की स्थानीय इकाई राजा से इस तरह व्यवहार कर रही थी मानो अब भी सिंहासन उनका ही है और सिक्का उनका ही चल रहा है? बदलती हुई व्यवस्था में अधिक संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है अन्यथा परिणाम बहुत घातक होते हैं। हम नेपाल का उदाहरण यहाँ ले सकते है; ऐसा क्यों है कि दशक भर ही बीता है लेकिन एक बड़ी जनसंख्या अब वहाँ राजतन्त्र की वापसी की मांग को ले कर सड़कों पर है? इसका सीधा सा कारण है वहाँ जिस तरह व्यवस्था परिवर्तन हुआ उसमें आंचलिकता को, सामाजिक परिवेश को और लोकमान्यताओं को ध्यान में रखा ही नहीं गया था, परिणाम सामने है। क्या बस्तर में भी इसी तरह से राजनैतिक-प्रशासनिक बदलाव हुआ था?
महाराजा प्रवीरचंद्र भँजदेव ने अपनी पुस्तक ‘लौहड़ीगुड़ातरंगिणी’ में विस्तार से उस समय की राजनैतिक स्थिति का वर्णन किया है जिसमें उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए हैं। यही नहीं तत्कालीन मुख्यमंत्री से अपने मतभेद को स्पष्ट करते हुए वे लिखते है “मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल किसी कर्मचारी या कॉंग्रेस के आदमी की मुंह जबानी बात पर विश्वास करते थे”। वर्ष 1947 तक बस्तर एक रियासत थी, इसकी अपनी भौगोलिक, सांस्कृतक और समाजशास्त्रीय विशेषतायें थी, ऐसे में राज्य निर्माण की खींचातानी में एक ओर ओड़ीशा, दूसरी ओर आंध्र और तीसरी और मराठा भूभाग बस्तर के अलग अलग परिक्षेत्रों को अपना हिस्सा चाहते थे। विविध दावेदारियों के साथ बस्तर के विभाजन की चर्चा भी जोरों पर थी। यह संभव है कि संयुक्त प्रयासों से बस्तर का विभाजन ताल दिया गया जिसका श्रेय सुंदरलाल त्रिपाठी ने लिया जबकि महाराज इसे अपना प्रयास मानते थे। ऐसी खीचातानी बस्तर में राजनैतिक ताकत के दो केंद्र बनाती जा रही थी, जिसमें जोर आजमाईश का सही समय पहला राष्ट्रीय चुनाव था।
महाराजा प्रवीर अपनी पुस्तक ‘लौहड़ीगुड़ातरंगिणी’ में लिखते हैं “जगदलपुर की जनता मेरे पास आई, वे चाहते थे कि एक स्वतंत्र प्रतिनिधि मेरी ओर से खड़ा कर दिया जाये”। इसी पुस्तक में प्रवीर यह भी लिखते है कि वे राजनीति नहीं करना चाहते थे। उन्होंने स्थानीय कॉन्ग्रेसी नेताओं से क्षुब्ध हो कर राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना आरंभ किया। अपने विरोध में लगातार चल रहे दुष्प्रचार से क्षुब्ध महाराजा प्रवीर अब राजनीति में अपने प्रभाव का आकलन कर लेना चाहते थे, यही कारण है कि उन्होंने कॉन्ग्रेस के विरुद्ध वोट की लड़ाई लड़ने का मन बना लिया। अब तलाश थी एक ऐसे उम्मीदवार की जिसे कॉन्ग्रेस के प्रत्याशी सुरती क्रीस्टैय्या के विरुद्ध खड़ा किया जा सके। यहीं से बस्तर के पहले सांसद मुचाकी कोसा की कहानी आरंभ होती है। मुचाकी कोसा वर्तमान सुकमा जिले के ग्राम इड़जेपाल के रहने वाले थे। वे बस्तर राजपरिवार के दरबारियों में सम्मिलित थे।
बस्तर के बड़े बुजुर्ग और विद्वान एक रोचक वृतांत बताते हैं। महाराजा के निर्देश पर राजगुरु एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जिसे लोकसभा के चुनाव में उम्मेदवार बनाया जा सके। उन्होंने देखा कि आदिवासियों का एक झुंड दलपत सागर में स्नान करने के उद्देश्य से जा रहा है। भीड़ मे मुचाकी कोसा तगड़ा, कदकाठी में प्रभावशाली दिखाई दिया, बस यही चयन का आधार बना और उसे बुलवाया गया। मुचाकी कोसा न तो चुनाव क्या है, यह जानते थे, न ही वे चुनाव लड़ना चाहते थे। महाराजा के आगे उनकी एक न चली और वे अब देश के पहले लोकसभा चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के प्रत्याशी सुरती क्रीस्टैय्या के विरुद्ध उम्मेदवार थे। महाराजा समर्थित प्रत्याशी ने ऐसा इतिहास रचा जिसे आज भी बस्तर में तोड़ा नहीं जा सका है। आम चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार मुचाकी कोसा को 83.05 प्रतिशत (कुल 1,77,588 मत) वोट प्राप्त हुए जबकि कॉंग्रेस के प्रत्याशी सुरती क्रिसटैय्या को मात्र 16.95 प्रतिशत (कुल 36,257 मत) वोटों से संतोष करना पड़ा था। क्या इस जीत ने भारतीय राजनीति को आईना दिखाया था? विचारणीय प्रश्न है।

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