“दायरा”
हाँ सच है
नहीं कर सकती स्त्रीयां
पुरुष की बराबरी
क्या हुआ अगर उसी ने
जन्म दिया है पुरुष को
उसे कोई हक़ नहीं अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने का
अपनी किसी भी तरह की भूख मिटाने का।
खाने का आखरी निवाला भी वह
पुरुष की थाली में ही परोसती है
चाहे फिर उसे भूख से समझौता ही क्यों न करना पड़े
खाने के साथ साथ
अपनी कामनाओं अपनी तमाम चाहतों से भी कर लेती है समझौता
बहुत जरूरी होता है
पुरुष का पेट भरना, मन भरना
जब तक की न उसको दोबारा भूख लगे
हर भूख को मिटाना पुरुष के लिये ही होता है।
उन्हें कोई सरोकार नहीं होता इस बात से कि
भूख स्त्रीयों को भी उतनी ही होती है
जितनी पुरुषों को होती है
भूख, स्त्री और पुरुष में कम ज़्यादा प्रतिशत में
विभाजित नहीं होती।
पुरुष की संतुष्टी से तृप्त नहीं होती स्त्रीयां
मगर वह खुशी से जीती है अपनी जिंदगी
अपनी असंतुष्टी और अतृप्त आशाओं को लेकर
नहीं करती वह बातें इस बारे में
खुद से भी
नहीं चाहती वह हर कीमत पर अपनी भूख मिटाना।
क्योंकी वह दायरे में रहना जानती है
चाहे फिर ये बात हो अलग की
भूख का कोई दायरा नहीं होता।
फिक्र होती है सबको औरत के मरने पर
आदमी के भूख और उसके अकेलेपन के लिए
व्यवस्था करने की जिसके लिए
लायी जा सके एक दूसरी स्त्री जो उसका निवाला बनें और उसके निवालों को पूरा करने की थाली बने
जिसे हर बार वह सरका दे पेट भरने के बाद
और स्त्री की आंख में छोड़ दें
अपनी पीठ
मगर नहीं करता कोई फिक्र
जवान विधवा और अकेली जिन्दगी को ढोती औरत के भूख और उसकी कामनाओं का,
उसके आशा भरे
जीवन के सपनों का
हर नजर का पहरा होता है
उस पर उसकी इच्छाओं पर उसकी जरूरतों पर।
समाज में हर दायरा
स्त्रियों के लिये होता है
पुरुषों के लिये नहीं
भूख स्त्री या पुरुष नहीं होती
वो सिर्फ भूख होती है
पर हां, सच है स्त्रियां
नहीं कर सकती पुरुष की बराबरी
वे केवल उसे जन्म दे सकती है।