महाराजा प्रवीर की हत्या के राजनैतिक मायने

1967 आम चुनावों से पहले महाराजा प्रवीर की हत्या

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की राजनैतिक गतिविधियां स्वतंत्रता पश्चात से ही जारी थी। एक दृष्टि डालें तो उन्होंने वर्ष 1955 में “बस्तर जिला आदिवासी किसान मजदूर सेवा संघ” की स्थापना की थी। वर्ष 1957 में प्रवीर आमचुनाव के बाद भारी मतो से विजयी हो कर विधानसभा भी पहुँचे, 1959 को उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। मालिक मकबूजा की लूट आधुनिक बस्तर में हुए सबसे बड़े भ्रष्टाचारों में से एक है जिसकी बारीकियों को सबसे पहले उजागर तथा उसका विरोध भी प्रवीर ने ही किया था। महाराजा प्रवीर ने देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम कई पत्र लिखे।
पहली कड़ी https://satatchhattisgarh.com/elections-between-two-systems/
मालिक मकबूजा की लूट को वे उजागर करना चाहते थे किंतु परिणाम नहीं निकला। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी। प्रवीर पर हो रही ज्यादतियों का परिणाम 31.03.1961 का लौहंडीगुड़ा गोली काण्ड़ था। परिणाम यह हुआ कि फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड़ पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे थे। अंतत: 30 जुलाई 1963 को प्रवीर की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गयी।
दूसरी कड़ी https://www.facebook.com/share/p/obty5sex2HPnM14x/?mibextid=oFDknk
प्रवीर अपने समय में बस्तर अंचल के वास्तविक मुद्दों को तथा तत्कालीन सरकार की उन प्रत्येक नीतियों पर स्पष्ट विचार रखते है जिनका सम्बन्ध बस्तर से रहा है। दण्डकारण्य प्रोजेक्ट जिसके तहत पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को बस्तर मे बसाये जाने के विरुद्ध भी मुखर हुए। 1964 ई. में प्रवीर ने पीपुल्स वेल्फेयर एसोशियेशन की स्थापना की। 12 जनवरी 1965 को प्रवीर ने बस्तर की समस्याओं को ले कर दिल्ली के शांतिवन में अनशन किया था। गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा द्वारा समस्याओं का निराकरण करने के आश्वासन के बाद ही प्रवीर ने अपना अनशन तोड़ा था। 6 नवम्बर 1965 को आदिवासी महिलाओं द्वारा कलेक्ट्रेट के सामने प्रदर्शन किया गया जहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया।
तीसरी कड़ी  https://satatchhattisgarh.com/tug-of-war-between-maharaja-and-congress-and-elections/
इसके विरोध में प्रवीर, विजय भवन में धरने पर बैठ गये। 16 दिसम्बर 1965 को आयुक्त वीरभद्र ने जब उनकी माँगों को माने जाने का आश्वासन दिया तब जा कर यह अनशन टूट सका। 8 फरवरी 1966 को पुन: जबरन लेव्ही वसूलने की समस्या को ले कर प्रवीर द्वारा विजय भवन में अनशन किया गया। सरकार द्वारा स्पष्ट आश्वासन प्राप्त करने के बाद ही उन्होंने अपना अनशन समाप्त किया था। 12 मार्च 1966 को नारायणपुर इलाके में भुखमरी और इलाज की कमी को ले कर प्रवीर द्वारा पुन: अनशन किया गया।  प्रवीर के आन्दोलन व्यवस्था के लिये प्रश्नचिन्ह बने हुए थे जिनका दमन करने के लिये आदिवासी और भूतपूर्व राजा के बीच के बंध को तोड़ना आवश्यक था। यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या लोकप्रियता और राजनैतिक सक्रियता ही 25 मार्च 1966 के उस गोलीकाण्ड का कारण बनी जिसके तहत महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव की राजनैतिक हत्या की गयी।
चौथी कड़ीचवथी  https://satatchhattisgarh.com/lohandiguda-firing-casts-shadow-on-elections/
महाराज प्रवीर जी हत्या के अगले ही वर्ष (1967) लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने थे। महाराजा के जीवित रहते किसी भी राष्ट्रीय पार्टी का चुनाव जीत पाना संभव नहीं दिखा रहा था, अब इसका कारण राजतंत्र नहीं था। महाराज स्वयं लोकप्रतिनिधि बन चले थे और अनशनों-आंदोलनों के माध्यम से सत्ता की ईंट बजा रखी थी। यहाँ यह भी संज्ञान में लेना होगा कि बस्तर परिक्षेत्र में जनसंघ की इन समयों में सशक्त पैठ हो गई थी। अब इस परिक्षेत्र से दो लोकसभा सीटें थी कांकेर और बस्तर। वर्ष 1967 के लोकसभा चुनावों में कांकेर से जनसंघ के प्रत्याशी त्रिलोक शाह विजयी रहे थे। प्रश्न उठता है कि क्या रहा बस्तर में अगले ही वर्ष अर्थात 1967 को हुए चुनावों का परिणाम? क्या महाराजा से संबंधित रहे निर्दलीय उम्मीदवार लोकसभा और विधानसभा में अपनी पैठ बना सके याकि कॉंग्रेस ने बाजी अपने पक्ष में कर ली थी? इन प्रश्नों के उत्तर अगली कड़ी में।
(क्रमश:)

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