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जुगनुओं की चमक हुआ करती थी – वहाँ

भव्यता की कहानी कहने को यहाँ वैसे तो कोई नहीं है

आज जो अवशेष का ढेर है, कभी वहाँ जीवन के जुगनुओं की चमक हुआ करती थी। एक रौबदार व्यक्ति एक ऊँची कुर्सी पर बैठकर आमजनों के फैसले लिया करता था। वह चिड़ियों की भाषा समझता था, पेड़ों से बातें किया करता था, उसे जंगलों से प्रेम था। घर की चौखट पर जलता हुआ साँकल वाला दीया उसका सबसे करीबी मित्र हुआ करता था। सुबह का सूरज उठकर उसके माथे पर अपने उगने की निशानी छोड़ता था।

एक छोटे से पहाड़ पर एक राजा हुआ करता था। उसी पहाड़ पर उसका राजमहल था। वह ऊँचाई पर बैठकर अपने पूरे कुनबे को अपनी आँखों में हर पल बसाए रखता था। “कुट-कुट-कुटर” बोलते हुए किसी पक्षी ने अपनी चहचहाहट की लिपि में उस राजा को बताया कि उसकी रियासत का नाम कुटरू होना चाहिए।

 

बस्तर रियासत की सबसे बड़ी जमींदारी

बस्तर रियासत की सबसे बड़ी जमींदारी के वैभव और उसकी भव्यता की कहानी कहने को यहाँ वैसे तो कोई नहीं है, परंतु कुछ अवशेष हैं, जिन्हें अपने होने का गुमान इस कदर है कि वे आज भी जस का तस अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। कठिन समय की मार और उपेक्षा से भरे हुए वर्तमान के बावजूद इतिहास की समृद्ध निशानियाँ अपनी पीठ पर लादकर राजमहल की दीवारें आज भी अपनी पूरी अस्मिता के साथ अपने होने की ढेरों कहानियाँ लिए खड़ी हैं। इतना आसान नहीं सभ्यताओं की निशानियों को मिटा सकना कि तारे ज़मीन पर आकर उनके होने की गवाही देने लगते हैं।

‘कुटरू राजमहल’ की दीवारें इतनी जिद्दी हैं कि आज भी बिल्कुल साबुत खड़ी हैं। भीतर से देखने पर इसकी भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है, हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि इस भवन का निर्माण काल क्या रहा होगा। राजमहल के भीतर बड़े-बड़े कमरे हैं, जो आज भी बिल्कुल वैसे ही हैं। चारों तरफ से इस महल के लिए प्रवेश द्वार बना हुआ है। मोटी-मोटी दीवारों पर बरगद और अन्य जंगली पौधे उग आए हैं, बावजूद इसके वे आज भी अभिमान के साथ खड़ी हैं, जैसे सदियों पहले खड़ी थीं पूरी धमक के साथ।

महल के भीतर ही एक बड़ा सा कमरा है, जिस पर लोहे की मजबूत छड़ें लगी हुई हैं। यह देखने में किसी बंदीगृह जैसा लगता है। इसी कमरे में लोहे की खिड़कियाँ भी लगी हुई हैं, जो आज भी जस की तस हैं।

कुटरू जमींदारी के संस्थापक ‘सन्यासी शाह’ को माना जाता है, जिन्होंने लगभग चौदहवीं सदी में कुटरू जमींदारी की नींव रखी। चौदहवीं सदी के बाद के दिनों का कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता। ‘सन्यासी शाह’ के बाद कौन और किस तरह कुटरू जमींदारी में शामिल रहा, किसकी और कितनी भूमिका थी इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है।

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