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अक्सीर ( प्रेमचंद की कहानी )

प्रेमचंद की कहानी

by satat chhattisgarh
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Premchand's story

Premchand’s story : बेवा होजाने के बाद बूटी के मिज़ाज में कुछ तल्ख़ी आगई थी जब ख़ानादारी की परेशानियों से बहुत जी जलता तो अपने जन्नत नसीब को सलवातें सुनाती, आप तो सिधार गए मेरे लिए ये सारा जंजाल छोड़ गए। जब इतनी जल्दी जाना था तो शादी जाने किस लिए की थी, घर में भूनी भंग थी चले थे शादी करने। बूटी चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती। अहीरों में इस का रिवाज है इस वक़्त वो देखने सुनने में भी बुरी थी दो एक उसके ख़्वास्तगार भी थे। लेकिन बूटी इफ़्फ़त परवरी के ख़्याल को रोक सकी और ये सारा गु़स्सा उतरता था, उसके बड़े लड़के मोहन पर जिसका सोलहवां साल था। सोहन अभी छोटा था और मीना लड़की थी। ये दोनों अभी किस लायक़ थे। अगर ये तीन बच्चे उसकी छाती पर सवार होते तो क्यों इतनी तकलीफ़ होती। जिसके घर में थोड़ा सा काम कर देती वो रोटी कपड़ा दे देता। जब चाहती किस के घर बैठ जाती अब अगर कहीं बैठ जाये तो लोग यही कहेंगे कि तीन तीन बच्चों के होते हुए ये उसे क्या सूझी, मोहन अपनी बिसात के मुताबिक़ उसका बार हल्का करने की कोशिश करता था। जानवरों को सानी-पानी ढोना, मथना ये सब वो कर लेता लेकिन बूटी का मुँह सीधा होता था रोज़ाना एक एक बात निकालती रहती और मोहन ने भी आजिज़ हो कर उसकी तल्ख़ नवाइयों की परवाह करना छोड़ दिया था। बूटी को शौहर से यही गिला था कि वो उसके गले पर गृहस्ती का जंजाल छोड़कर चला गया, उस ग़रीब की ज़िंदगी ही तबाह कर दी।न खाने का सुख मयस्सर हुआ पहनने का। और किसी बात का वो इस घर में आई गोया भट्टी में पड़ गई उसके अरमानों की तिश्ना कामी और बेवगी के क़ुयूद में हमेशा एक जंग सी छिड़ी रहती थी और जलन में सारी मिठास जल कर ख़ाक हो गई थी। और शौहर की वफ़ात के बाद बूटी के पास और कुछ नहीं तो चार पाँच सौ के ज़ेवर थे। लेकिन एक एक करके वो सब उसके हाथ से निकल गए। उसके मुहल्ले उसकी बिरादरी में कितनी औरतें हैं जो उम्र में उससे बड़ी होने के बावजूद गहने झुमका कर, आँखों में काजल लगा कर, मांग में सिंदूर की मोटी सी लकीर डाल कर गोया उसे जलाती रहती हैं इसलिए जब उसमें से कोई बेवा हो जाती है तो बूटी को एक हासिदाना मसर्रत होती। वो शायद सारी दुनिया की औरतों को अपनी ही जैसी देखना चाहती थी और उसकी महरूम आरज़ूओं को अपनी पाकदामनी की तारीफ़ और दूसरों की पर्दादारी और हर्फ़गीरी के सिवा सुकून-ए-क़ल्ब का और क्या ज़रिया था कैसे अपने आँसू पोंछती। वो चाहती थी उसका ख़ानदान हुस्न-ए-सीरत का नमूना हुआ। उसके लड़के तर्ग़ीबात से बे-असर रहीं। ये नेक-नामी भी उसकी पाकदामनी के ग़रूर को मुश्तइल करती रहती थी।

इसलिए ये क्यूँ-कर मुम्किन था कि वो मोहन के मुताल्लिक़ कोई शिकायत सुने और ज़ब्त कर जाये तर्दीद की गुंजाइश थी ग़ीबत की इस दुनिया में रहते रहते वो एक ख़ास क़िस्म की बातों में बे-इंतिहा सहल एतिक़ाद हो गई गोया वो कोई ऐसा सहारा ढूंढती रहती थी जिस पर चढ़ कर वो अपने को दूसरों से ऊंची दिखा सके। आज उसके ग़रूर को ठेस लगी। मोहन जूंही दूध बेच कर घर आया, बूटी ने उसे क़हर की निगाहों से देखकर कहा, देखती हूँ अब तुझे हवा लग रही है।

मोहन इशारा समझ सका। पुर सवाल नज़रों से देखता हुआ बोला,

मैं कुछ समझा नहीं, क्या बात है?

शर्माएगा तो नहीं। उल्टा मुझी से पूछता है। तू रूपा से छुप-छुप कर नहीं हँसता बोलता। तुझे शर्म नहीं आती कि घर में पैसे पैसे की तंगी है और उनके लिए पान लाए जाते हैं। कपड़े रँगाए जाते हैं।

मोहन ने उज़्र गुनाह किया जो गुनाह से भी बदतर था।

तो मैंने कौन सा गुनाह कर डाला। अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान मांगे तो क्या करता। कहता कि पैसे दे तो पान लाऊँगा।अपनी साड़ी रंगाने को दे दी तो उससे रंगाई मांगता।

मुहल्ले में एक तू ही बड़ा धन्ना सेठ है। उसने और किसी से क्यों कहा?

ये वो जाने मैं क्या बताऊं?

कभी घर में भी धेले के पान लाया। या सारी ख़ातिरदारी दूसरों के लिए ही रख छोड़ी है?

यहां किसके लिए पान लाता?

तेरे लिए क्या घर के सारे आदमी मर गए?

मैं जानता था तुम भी पान खाना चाहती हो?

संसार में एक रूपा ही खाने के लायक़ है।

शौक़ सिंगार की भी तो एक उम्र होती है।

बूटी जल उठी। उसे बुढ़िया कह देना उसके तक़्वे तहारत को ख़ाक में मिला देना था। बुढ़ापे में इन पाबंदियों की वक़त ही क्या। जब नफ्सकुशी के बल पर वो सब औरतों के सामने सर उठा कर चलती थी। उसकी ये नाक़द्री। उन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी सारी जवानी ख़ाक में मिला दी। उसके शौहर को गुज़रे आज पाँच साल हुए तब उसकी चढ़ती जवानी थी। ये तीन चींटे तो उसके गले मंढ दिए हैं। अभी उसकी उम्र ही क्या है चाहती तो आज वो भी होंट सुर्ख़ किए पांव में मेहंदी रचाए, अलोट, बिच्छूवे पहने मटकती फिरती। ये सब कुछ उसने लड़कों के कारन त्याग दिया और बूटी बढ़िया है। बोली हाँ और क्या। मेरे लिए तो अब चीथड़े पहनने के दिन हैं। जब तेरा बाप मरा तो मैं रूपा से दो ही चार साल बड़ी थी। उस वक़्त कोई घर कर लेती तो तुम लोगों का कहीं पता लगता। गली गली भीक मांगते फिरते लेकिन मैं कहे दी देती हूँ। अगर तो फिर इस से बोला तो या तो ही इस घर में रहेगा या मैं ही रहूंगी।

मोहन ने डरते डरते कहा, मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्मां।

कैसी बात?

सगाई।

अगर रूपा मेरे घर में आई तो झाड़ू मार कर निकाल दूँगी। ये सब उसकी माँ की माया है। वही कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है। रांड से इतना भी नहीं देखा जाता। चाहती है कि उसे सौत बना कर मेरी छाती पर मूंग दले।

मोहन ने दर्दनाक लहजे में कहा, अम्मां ईश्वर के लिए क्यों अपना मान खो रही हो। मैंने तो समझा था चार दिन में मीना अपने घर चली जाएगी। तुम अकेली रह जाओगी, इसी लिए उसे लाने का ख़्याल हुआ अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो।

बूटी ने शुब्हा आमेज़ नज़रों से देखकर कहा, तुम आज से यहीं आँगन में सोया करो।

और गाय भैंस बाहर ही पड़ी रहें?

पड़ी रहने दो कोई डाका नहीं पड़ा जाता।

मुझ पर तुझे इतना शुब्हा है?

हाँ।

मोहन ने ख़ुद्दारी की शान से कहा, मैं यहां ना सोऊँगा।

तो निकल जा मेरे घर से।

हाँ तेरी यही मर्ज़ी है तो निकल जाऊँगा।

मीना ने खाना पकाया। मोहन ने कहा, मुझे भूक नहीं है।

बूटी उसे मनाने नहीं गई। मोहन का सरकश दिल माँ के इस जाबिराना हुक्म को किसी तरह क़बूल नहीं कर सकता। माँ का घर है ले-ले। अपने लिए वो कोई दूसरा ढूंढ ले गा। रूपा ने उसकी बे-लुत्फ़, बे-कैफ़ ज़िंदगी में एक मसर्रत पैदा कर दी थी। जब वो अपने दिल में एक नाक़ाबिल-ए-बयान शोरिश का एहसास कर रहा था। जब वो अपनी ज़िंदगी की मामूली पुर मशक्कत , रफ़्तार से बेज़ार हो रहा था। जब दुनिया उसे सूनी सूनी दिलचस्पियों से ख़ाली नज़र आरही थी। उस वक़्त रूपा ने उसकी ज़िंदगी में बहार की तरह रुनुमा हो कर उसे सुर्ख़ कोंपलों और तुयूर के नग़मों से हलावत पैदा कर दी। अब उसकी ये कैफ़ियत थी कि कोई काम करना होता तो दिल रूपा की तरफ़ लगा होता। यही अरमान था कि उसे क्या चीज़ दे कि वो ख़ुश हो जाएगी। बड़ी हिम्मत करके उसने उसे अपना दर्द-ए-दिल कहा। अब आज वो किस मुँह से उसके पास जाये क्या उससे कहे कि अम्मां ने तुमसे मिलने की मुमानअत की है। अभी तो कल चरागाह में बरगद के सायादार दरख़्त के नीचे दोनों में कैसे इख़लास की बातें हो रही थीं। मोहन ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुंदर हो कि तुम्हारे सौ गाहक निकल आएँगे। तुम जिस घर में जाओगी वो रोशन हो जाएगा। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है। इस पर रूपा ने जवाब दिया था, वो एक नग़मा-ए-लतीफ़ की तरह उसके जिस्म की एक एक रग में, उसकी रूह के एक एक ज़र्रे में बसा हुआथा। उसने कहा था, मैं तो तुमको चाहती हूँ। मोहन तुम परगने के चौधरी हो जाओ तब भी मोहन हो। मज़दूरी करने लगो तब भी मोहन हो। वो अपने मोहन के अफ़्लास , रुस्वाई और फ़ाक़ाकशी सब कुछ झेल लेगी। उसी रूपा से अब वो जाकर कहे, मुझे अब तुमसे कोई सरोकार नहीं।

नहीं ये ग़ैर मुम्किन है। उसे घर की परवाह नहीं है। वो रूपा के साथ माँ से अलग रहेगा। यहां सही। किसी दूसरे मुहल्ले में सही। उस वक़्त भी रूपा उसका इंतिज़ार कर रही होगी। कैसे अच्छे बीड़े लगाती है कि जी ख़ुश होजाता। जैसे बीड़ों में प्रेम घोल देती है। लेकिन जाओगे कैसे ? अम्मां से वादा नहीं किया है, कहीं अम्मां सुन लें कि ये रात को रूपा के पास गया था तो जान ही दे दे। तो मेरा क्या नुक़्सान? दे दें जान अपनी। तक़दीर को तो नहीं बखानतीं कि ऐसी देवी जो उन्हें पान की तरह फेरेगी। उल्टे और उस से जलती हैं। जाने क्यों रूपा से उसे इतनी चिढ़ है। वो ज़रा पान खालेती है, ज़रा रंगीन साड़ी पहन लेती है। बस यही तो उसकी उम्र खाने पहनने की है, क्या बुरा करती है।

चूड़ियों की झनकार सुनाई दी। रूपा आरही है। शायद, हाँ वही है। मोहन के साज़-ए-जिस्म के सारे तार झनकार उठे। उसके वजूद का एक एक ज़र्रा नाचने लगा। रूपा उसके दरवाज़े पर आए। शीरीं अदा रूपा कैसे उसका ख़ैरमक़्दम करे। क्या करे? जाकर उसके क़दमों पर सर रख दे।

रूपा उसके सिरहाने आकर बोली, क्या सो गए मोहन? इतनी जल्दी घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आए क्यों नहीं?

मोहन नींद का बहाना किए पड़ा रहा।

रूपा ने उसका सर हिला कर कहा, क्या सो गए मोहन अभी से, अपना पान ख़ालो।

उसकी उंगलियों में क्या एजाज़ था। कौन जाने, मोहन की रूह में शादियाने बजने लगे, उसकी जान रूपा के क़दमों पर सर रखने के लिए गोया उछल पड़ी। देवी बरकतों का थाल लिए उसके सामने खड़ी है। सारी कायनात मसर्रत से रक़्स कर रही है। उसे मालूम हुआ जैसे उसका जिस्म लतीफ़ हो गया और वो किसी सदाए मुज़्तरिब की तरह फ़िज़ा की गोद से चिमटा हुआ उसके साथ रक़्स कर रहा है। मैं जाती हूँ नहीं जागते जागो, हाँ नहीं तो।

मोहन अब ज़ब्त कर सका। हाँ ज़रा नींद आगई थी। तुम इस वक़्त क्या करने आईं। अम्मां देख लें तो मुझे मार ही डालें।

रूपा ने उसके मुँह में पान का बीड़ा रखकर कहा, तुम आए क्यों नहीं?

आज अम्मां से लड़ाई हो गई।

क्या कहती थीं?

कहती थीं रूपा से बोलोगे तो जान दे दूँगी।

तुमने पूछा नहीं रूपा से क्यों इतनी चिढ़ती हो?

अब उनकी बात क्या कहूं रूपा। वो किसी का खाना पीना नहीं देख सकतीं।

ये बात नहीं है मोहन। उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं है। मैं चंचल थी लेकिन अब तो मैं किसी से नहीं हँसती।

अम्मां को कैसे समझाऊँ?

तुम मेरे पास एक-बार रोज़ जाया करो, बस और मैं कुछ नहीं चाहती।

दफ़्अतन मोहन के घर का दरवाज़ा खुला। शायद बूटी आरही है। रूपा सरक गई। मोहन भीगी बिल्ली बन गया।

मोहन दूसरे दिन सो कर उठा तो उसके दिल में मसर्रत का दरिया मोजज़न था। उसकी ख़लक़ी ख़ुशुनत और तुन्दी ग़ायब हो गई थी। गोया बच्चे को मिठाई मिल गई हो। वो सोहन को हमेशा डाँटता था। सोहन आरामतलब और काहिल था। घर के काम धंदे से जी चुराता था। आज भी वो आँगन में बैठा अपनी धोती में साबुन लगा रहा था।ग़ाज़ी मियां के मेले की तैयारी कर रहा था। मोहन को देखते ही उसने साबुन छुपा दिया और भाग जाने के लिए मौक़ा ढ़ूढ़ने लगा।

मोहन ने मुख़लिसाना तबस्सुम के साथ कहा, क्या धोती बहुत मैली हो गई है, धोबिन को क्यों नहीं दे देते?

धोबिन पैसे मांगेगी?

तुम पैसे अम्मां से क्यों नहीं मांग लेते?

अम्मां पैसे दे चुकीं। उल्टी घुड़कियां देंगी।

तो मुझसे ले लो।

ये कह कर उसने एक इकन्नी उसकी तरफ़ फेंक दी। सोहन बाग़ बाग़ हो गया। भाई और माँ दोनों उसकी मलामत करते रहते थे। बहुत दिनों के बाद उसे मुहब्बत की शीरीनी कर मज़ा मिला। इकन्नी उठाई और धोती वहीं छोड़ गाय को खोलने चला।

मोहन ने कहा, तुम रहने दो मैं उसे लिए जाता हूँ।

सोहन ने गाय को खूंटे से खोल कर नाँद पर बांध आया और अंदर आकर भाई से बोला, तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ?

आज पहली बार सोहन ने बड़े भाई की जानिब ऐसे हुस्न-ए-अक़ीदत का इज़हार किया, इसमें क्या राज़ है। ये मोहन की समझ में आया। बिरादराना ख़ुलूस से उसका चेहरा शगुफ़्ता हो गया।

बोला, आग हो तो रख लाओ।

मीना सर के बाल खोले आँगन में घरौंदा बना रही थी। मोहन को देखते ही उसने घरौंदा बिगाड़ दिया और आँचल से सर ढांपने की नाकाम कोशिश करती हुई रसोई घर की तरफ़ बर्तन उठाने चली। मोहन के गुस्से से सब ही डरते थे।

मोहन ने प्यार से पूछा, क्या खेल रही था मीना?

मीना थर-थर काँपती हुई बोली, कुछ नहीं।

तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बना लेती है, ज़रा बना तो देखूं।

मोहन के मिज़ाज में आज ये पुर-लुत्फ़ इन्क़िलाब देखकर मीना को यकायक यक़ीन आया लेकिन फिर भी उसका चेहरा शगुफ़्ता हो गया। प्यार के एक लफ़्ज़ में कितना जादू है। मुँह से निकलते ही जैसे एक दिलकशी सी फैल गई। जिसने सुना उसका दिल खिल उठा। जहां ख़ौफ़ और बदगुमानी थी वहां एतबार और ख़ुलूस चमक उठा। जहां बेगानगी थी वहां अपनापन छलक पड़ा। चारों तरफ़ इन्हिमाक छा गया। कहीं बेदिली नहीं, कहीं बेनियाज़ी नहीं, लोगों की तरक़्कीयां होती हैं। ख़िताब मिलते हैं, मुक़द्दमात में फ़तह होती है लेकिन इन छोटे छोटे रोज़मर्रा के वाक़ियात में जो शीरीनी है वो इन ऊख और गन्ने के खेतों में कहाँ। मोहन के सीने में आज मुहब्बत का सोता सा खुल गया था। उसमें मसर्रत हमदर्दी और ख़ुलूस की धारें निकल रही थीं।

मीना घरौंदा बनाने बैठ गई।

मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझा कर कहा, तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा? जल्द नेवता दे कुछ मिठाई खाने को मिले।

मीना आसमान में उड़ रही थी। भय्या कितने अच्छे हैं, अब भय्या पानी माँगेंगे तो वो लोटे को राख से ख़ूब चम्मा चम करके पानी ले जाएगी।

अम्मां पैसे नहीं देतीं। गुड्डा तो ठीक हो गया है लेकिन टीका कैसे भेजूँ?

कितने पैसे लगेंगे?

एक पैसे के बताशे लूँगी और एक पैसा का गुलाबी रंग, जोड़े तो रंगे जाऐंगे कि नहीं।

तो दो पैसे मैं तुम्हारी गुड़िया का ब्याह हो जाएगा, क्यों?

हाँ, तुम दो पैसे दे दो तो मेरी गुड़िया का धूम धाम से ब्याह हो जाएगा।

मोहन ने दो पैसे हाथ में लेकर मीना को दिखाये, मीना लपकी। मोहन ने हाथ ऊपर उठाया, मीना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया। जब यूं पा सकी तो मोहन की गोद में चढ़ गई और पैसे ले लिये। फिर नीचे आकर नाचने लगी। तब अपनी सहेलियों को शादी का नवेद सुनाने दौड़ी।

उस वक़्त बूटी गोबर का झव्वा लिए सार के घर से निकली। मोहन को खड़े देखकर तुंद लहजे में बोली, अभी तक मटरगश्त ही हो रही है। भैंस कब दूही जाएँगी?

आज मोहन ने बूटी को सख़्त जवाब दिया। माँ को बोझ से दबे हुए देखकर उसने इज़तिरारी तौर पर उसके सर से झव्वा ले करअपने सिर पर रख लिया।

बूटी ने कहा, रहने दे जाकर भैंस दूह ले। गोबर तो मैं लिए जाती हूँ।

तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो माँ, मुझे क्यों नहीं बुला लेती?

माँ का दिल मामता से रक़ीक़ हो गया।

तू जा अपना काम देख, मेरे पीछे क्यों पड़ता है?

गोबर निकालने का काम मेरा है।

दूध कौन दूहेगा?

वो भी मैं कर लूंगा।

तू इतना कहाँ का जोधा है कि सारे काम करलेगा।

जितना कहता हूँ उतना करलूंगा।

तो मैं क्या करूंगी?

तुम लड़कों से काम लो, जो बे राह चले उसे समझाओ। जो ग़लती देखो इसे ठीक करो बस यही तुम्हारा काम है।

मेरी सुनता कौन है?

आज मोहन बाज़ार से दूध पहुंचा कर लौटा तो एक छोटा सा पानदान, पान, कत्था, छालिया और थोड़ी सी मिठाई लाया। बूटी बिगड़ कर बोली, आज रुपये कहीं फ़ालतू मिल गए थे क्या। इस तरह तू पैसे उड़ाएगा तो कै दिन निबाह होगा?

मैंने तो एक पैसा भी फ़ुज़ूलखर्च नहीं किया। अम्मां मैं समझता था तुम पान खाती ही नहीं। इसीलिए लाता था।

तो अब मैं पान खाने बैठूँगी?

क्यों इसमें हर्ज क्या है? जिसके दो दो जवान बेटे हों क्या वो इतना शौक़ भी करे।

बूटी के ख़ज़ांरसीदा दिल में कहीं से हरियाली निकली आई। एक नन्ही सी कोयल थी। लेकिन उसके अंदर कितनी तरावत, कितनी रतूबत , कितनी जाँ-बख़्शी भरी हुई थी जैसे उसके चेहरे की झुर्रियाँ चिकनी हो गईं। आँखों में नूर आगया। दिल-ए-मायूस में एक तरन्नुम सा होने लगा। उसने एक मिठाई सोहन को दी एक मीना को और एक मोहन को देने लगी।

मोहन ने कहा, मिठाई तो मैं लड़कों के लिए लाया था, अम्मां।

और तू। बूढ़ा हो गया, क्यों?

इन लड़कों के सामने तो बूढ़ा ही हूँ।

मोहन ने मिठाई ले ली। मीना ने मिठाई के पाते ही गप मुँह में डाल ली थी और वो ज़बान पर मिठाई की लज़्ज़त कब की मेदे में जा चुकी थी। मोहन की मिठाई को ललचाई आँखों से देखने लगी। मोहन ने वो मिठाई मीना को दे दे। एक मिठाई और बच रही थी, बूटी ने उसे मोहन की तरफ़ बढ़ा कर कहा,

लाया भी तो ज़रा सी मिठाई।

मोहन ने कहा, वो तुम खा जाना अम्मां।

तुम्हें खाते देखकर मुझे ख़ुशी होगी। इसमें मिठास से ज़्यादा मज़ा है।

मोहन ने मिठाई खा ली और बाहर चला गया। बूटी पानदान खोल कर देखने लगी, आज ज़िंदगी में पहली बार उसे ये ख़ुशनसीबी हासिल हुई है। ज़ह-ए-नसीब कि शौहर के राज में जो नेअमत मयस्सर हुई वो बेटे के राज में मिली। पानदान में कई कुलियाँ हैं। इस में चूना रहेगा। इसमें कत्था, इसमें छालिया, इसमें तंबाकू, वाह यहां तो दो छोटी छोटी चमचियां भी हैं, मज़े से चूना कत्था लगालो। उंगली में दाग़ तक लगे। ढकने में कड़ा लगा हुआ है। जहां चाहो लटकाकर लिए चले जाओ। ऊपर की तश्तरी में पान रखे जाऐंगे मगर सरौते के लिए जगह नहीं है, सही उसने पानदान को मांझ धोकर उसमें चूना, कत्था रखा, छालिया काट कर रखी, पान भिगो कर तश्तरी में रखे। तब एक बीड़ा लगा कर खाया। उसके अर्क़ ने जैसे उसकी बेवगी की करख़्तगी को मुलायम कर दिया। दिल की मसर्रत इनायत करम की सूरत इख़तियार कर लेती है। अब बूटी कैसे बैठी रहे। उसका दिल इतना गहरा नहीं है कि ये ख़ूबी-ए-क़िस्मत इसमें गुम हो जाएगी। घर में एक पुराना आईना पड़ा था। बूटी ने उसमें अपना मुँह देखा, होंटों पर सुर्ख़ी नहीं है। मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़ा ही पान खाया है। सुर्ख़ी होती तो वो कुल्ली करलेती गांव की एक औरत धनिया ने आकर कहा, काकी जुआ रस्सी दे दो, रस्सी टूट गई है।

कल बूटी ने साफ़ कह दिया था मेरी रस्सी गांव के लिए ही नहीं, मेरी रस्सी टूट गई है तो बनवा क्यों नहीं लेती। लेकिन आज उसने उसकी रस्सी से काम नहीं लिया। उसने ख़ंदापेशानी से रस्सी निकाल कर धनिया को दे दी और हमदर्दाना अंदाज़ से पूछा, लड़के के दस्त बंद हो गए या नहीं धनिया?

धनिया ने कहा, नहीं। आज तो दिन-भर दस्त आए, हर वक़्त आरहे हैं।

पानी भर ले तो चल ज़रा देखूं, दाँत ही है कि कोई और फ़साद है। किसी की नजर वजरतो नहीं लगी?

क्या जानूं काकी, कौन जाने किसी की आँखें फूटी हों।

चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है जिसने चुमका कर बुलाया उसी की गोद में चला जाता है।

काकी ऐसा सुहदों की तरह हँसता था कि तुमसे क्या कहूं।

कभी कभी माँ की नजर लग जाती है बच्चे को।

उसे नौज, काकी भला कोई अपने बच्चे को नजर लगाएगा?

यही तो तू समझती नहीं। नजर कोई लगाता नहीं। आप ही आप लग जाती है।

धनिया पानी लेकर आई तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।

तू अकेली है आजकल तो घर के काम धंदे में बड़ा फ़ीचता होगा?

नहीं काकी रूपा आजाती है, उससे बड़ी मदद मिलती है, नहीं तो मैं अकेली क्या करती?

बूटी को ताज्जुब हुआ। रूपा को उसने महज़ तितली समझ रखा था। जिसका काम फूलों पर बैठना और फिर उड़ जाना था। हैरत-अंगेज़ लहजे में बोली, रूपा?

हाँ काकी बेचारी बड़ी भली है। झाड़ू लगा देती है, चौका-बर्तन कर देती है, लड़के को सँभालती है। गाड़े से कौन किसी की बात पूछता है काकी?

उसे तो अपने मिसी काजल से ही छुट्टी मिलती होगी।

ये तो अपनी अपनी रुज है काकी, मुझे तो मिसी काजल वाली ने जितना सहारा दिया, उतना किसी पूजापाट करने वाली ने दिया। कल बेचारी रात-भर जागती रही। मैंने उसे कुछ दे तो नहीं दिया। हाँ जब तक जीऊँगी उसका गुण गांऊँगी।

तू उसके गुन अभी तक नहीं जानती। धनिया पान के पैसे कहाँ से आते हैं। रंगीन साड़ियां कौन लाता है, कुछ समझती है?

मैं तो इन बातों में नहीं पड़ती काकी। फिर शौक़ सिंगार करने को किस का जी नहीं चाहता। खाओ पहनने की यही उम्र है।

धनिया का घर आया आँगन में रूपा बच्चे को गोद में लिए थपकियाँ दे रही थी। बच्चा सो गया था। धनिया ने बच्चे को उससे लेकर खटोले पर सुला दिया। बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रखा, पेट में आहिस्ता आहिस्ता उंगली गड़ाकर देखा , नाफ़ पर हिंग का लेप करने की ताकीद की। रूपा पंखा लाकर उसे झलने लगी।

बूटी ने कहा, ला पंखा मुझे दे दे।

मैं झलूंगी तो क्या छोटी होजाऊंगी?

तू दिन-भर यहां काम धंदा करती रहती है, थक गई होगी?

तुम इतनी भली मानस हो और यहां लोग कहते हैं बग़ैर गाली के किसी से बात नहीं करती।

इसलिए तुम्हारे पास आने की हिम्मत पड़ती थी।

बूटी मुस्कुराई, लोग झूट तो नहीं कहते।

अपनी आँखों की देखी मानूँ या कानों की सुनी। आज भी रूपा आँखों में काजल लगाए पान खाए रंगीन साड़ी पहने हुए थी। मगर आज बूटी को मालूम हुआ कि फूल में महज़ रंग नहीं बू भी है। उसे रूपा से जो एक तरह का लिल्लाहि बुग़ज़ था। वो आईना पर जमे हुए गर्द की तरह साफ़ हो गया था। कितनी नेक सीरत, कितनी सुघड़, और शर्मीली लड़की है। आवाज़ कितनी प्यारी है, आजकल की लड़कियां अपने बच्चों की तो परवाह नहीं करतीं। दूसरों के लिए कौन मरता है, सारी रात धनिया के बच्चे को लिए जागती रही। मोहन ने कल की बातें इससे कह तो दी होंगी। दूसरी लड़की होती तो मुझे देखकर मुँह फेर लेती। उसे तो जैसे कुछ मालूम ही नहीं। मुम्किन है मोहन ने इससे कुछ कहा ही हो। ज़रूर यही बात है।

आज रूपा उसे बहुत हसीन मालूम हुई। ठीक तो है अभी शौक़ सिंगार करेगी तो कब करेगी। शौक़ सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने ही ऐश आराम में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग लग जाये। उनसे मतलब नहीं। उनका काम तो सिर्फ़ दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने रूप को सजाये राह चलतों को बुलाते हुए कि ज़रा इस दुकान की सैर भी करते जाइये। ऐसे नेक दिल आदमियों का सिंगार बुरा नहीं लगता। बल्कि और अच्छा लगता है। कौन नहीं चाहता कि लोग उसके रंग-रूप की तारीफ़ करें। कौन दूसरों की नज़र में खप जाना नहीं चाहता। बूटी का शबाब कब का रुख़्सत हो चुका था फिर भी ये तमन्ना उसके दिल में मौजूद थी ज़मीन पर पांव नहीं पड़ते। फिर रूपा तो अभी जवान है।

रूपा अब क़रीब क़रीब रोज़ दो एक बार बूटी के घर आती। बुटी ने मोहन से तक़ाज़ा करके उसके लिए अच्छी साड़ी मंगवा दी। अगर रूपा बग़ैर काजल लगाए या महज़ सफ़ेद साड़ी में आजाती तो बूटी कहती, बहू बेटीयों को ये जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। ये भेस तो हम बूढ़ियों के लिए है।

रूपा कहती, तुम बूढ़ी किस तरह हो गईं अम्मां, मर्दों को इशारा मिल जाये तो भौरों की तरह मंडलाने लगें। मेरे दादा तो तुम्हारे दरवाज़े पर धरना देने लगें।

बूटी लुत्फ़ आमेज़ मलालत के साथ कहती, चल मैं तेरी माँ की सौत बन कर जाऊँगी।

अम्मां तू बूढ़ी हो गईं।

तो क्या तेरे दादा जवान बैठे हैं?

हाँ अम्मां बड़ी अच्छी काठी है उनकी।

आज मोहन बाज़ार से दूध बेच कर लौटा तो बूटी ने कहा, कुछ रुपये पैसे की फ़िक्र कर भाई। मैं रूपा की माँ से रूपा के लिए तेरी बातचीत पक्की कर रही हूँ।

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