Premchand’s story : मुलिया हरी हरी घास का गट्ठा लेकर लौटी तो उसका गेहुवाँ रंग कुछ सुर्ख़ हो गया था और बड़ी बड़ी मख़मूर आँखें कुछ सहमी हुईं थीं। महाबीर ने पूछा, क्या है मुलिया? आज कैसा जी है। मुलिया ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखें डबडबा गईं और मुँह फेर लिया।
महाबीर ने क़रीब आकर पूछा, क्या हुआ है? बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?
मुलिया ने सिसक कर कहा, कुछ नहीं, हुआ क्या है। अच्छी तो हूँ।
महाबीर ने मुलिया को सर से पाँव तक देखकर पूछा, चुप-चाप रोती रहेगी, बताएगी नहीं।
मुलिया ने सरज़निश के अंदाज़ से कहा, कोई बात भी हो। क्या बता दूँ।
मुलिया इस ख़ारज़ार में गुल-ए-सद-बर्ग थी। गेहुवाँ रंग था। ग़ुन्चे का सा मुँह। बैज़वी चेहरा, ठोढ़ी खिची हुई, रुख़्सारों पर दिल-आवेज़ सुर्ख़ी, बड़ी बड़ी नुकीली पलकें, आँखों में एक अ’जीब इल्तिजा, एक दिल-फ़रेब मासूमियत, साथ ही एक अ’जीब कशिश। मालूम नहीं चमारों के इस घर में ये अप्सरा कहाँ से आ गई थी। क्या उसका नाज़ुक फूल सा जिस्म इस क़ाबिल था कि वो सर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती। इस गाँव में भी ऐसे लोग मौजूद थे जो उसके तलवों के नीचे आँखें बिछाते थे। उसकी चितवनों के लिए तरसते थे। जिनसे अगर वो एक बात भी करती तो निहाल हो जाते। लेकिन मुलिया को आए साल भर से ज़ाइद हो गया। किसी ने उसे मर्दों की तरफ़ ताकते नहीं देखा। वो घास लेने निकलती तो उसका गंदुमी रंग तुलूअ की सुनहरी किरनों से कुंदन की तरह दमक उठता। गोया बसंत अपनी सारी शगुफ़्तगी और मस्ताना-पन लिए मुस्कुराती चली जाती हो। कोई ग़ज़लें गाता। कोई छाती पर हाथ रखता। पर मुलिया आँखें नीची किए राह चली जाती थी। लोग हैरान हो कर कहते, इतना ग़ुरूर! इतनी बे-नियाज़ी! महाबीर में ऐसे क्या सुर्ख़ाब के पर लगे हैं। ऐसा जवान भी तो नहीं। न जाने कैसे उसके साथ रहती है। चाँद में गहन लग जाता होगा।
मगर आज एक ऐसी बात हो गई जो चाहे उस ज़ात की दूसरी नाज़नीनों के लिए दावत का पैग़ाम होती। मुलिया के लिए ज़ख़्म-ए-जिगर से कम न थी। सुब्ह का वक़्त था। हवा आम के बौर की ख़ुश्बू से मतवाली हो रही थी। आसमान ज़मीन पर सोने की बारिश कर रहा था। मुलिया सर पर टोकरी रखे घास छीलने जा रही थी कि दफ़अ’तन नौजवान चैन सिंह सामने से आता दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि कतरा कर निकल जाए। मगर चैन सिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, मुलिया क्या तुझे मुझ पर ज़रा रहम नहीं आता।
मुलिया का वो फूल सा चेहरा शोले की तरह दहक उठा। वो ज़रा भी नहीं डरी। ज़रा भी नहीं झिझकी। झव्वा ज़मीन पर गिरा दिया और बोली, मुझे छोड़ दो, नहीं तो मैं चहकती हूँ।
चैन सिंह को आज ज़िंदगी में ये नया तजरबा हुआ। नीची ज़ातों में हुस्न का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वो ऊँची ज़ात वालों का खिलौना बने। ऐसे कितने ही मारके उसने जीते थे। पर आज मुलिया के चेहरे का वो रंग, वो गु़स्सा, वो ग़ुरूर, वो तमकनत देखकर उसके छक्के छूट गए। उसने ख़फ़ीफ़ हो कर उसका हाथ छोड़ दिया। मुलिया तेज़ी से आगे बढ़ गई। चोट की गर्मी में दर्द का एहसास नहीं होता। ज़ख़्म ठंडा हो जाता है तो टीस होने लगती है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गई तो गु़स्सा और ख़ौफ़ और अपनी बे-कसी के एहसास से उसकी आँखों में आँसू भर आए, उसने कुछ देर तक ज़ब्त किया फिर सिसक सिसक कर रोने लगी। अगर वो इतनी ग़रीब न होती तो किसी की मजाल थी कि इस तरह उसकी आबरू लूट लेता। वो रोती जा रही थी और घास छीलती जाती थी। महाबीर का गु़स्सा वो जानती थी। अगर उससे कह दे तो वो इस ठाकुर के ख़ून का प्यासा हो जाएगा, फिर न जाने क्या हो। इस ख़याल से उसके रौंगटे खड़े हो गए। इसीलिए उसने महाबीर के सवालों का कोई जवाब न दिया था।
दूसरे दिन मुलिया घास के लिए न गई। सास ने पूछा, तू क्यों नहीं जाती और सब तो चली गईं। मुलिया ने सर झुका कर कहा, मैं अकेली न जाऊँगी।
सास ने कहा, अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जाएगा। क्यों औरों के साथ नहीं चली गई।
मुलिया ने और भी सर झुका लिया और निहायत दबी हुई आवाज़ में बोली, औरों के साथ न जाऊँगी।
सास ने डाँट कर कहा, न तो औरों के साथ जाएगी, न अकेली जाएगी, तो फिर कैसे जाएगी? साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहती कि मैं न जाऊँगी। तो यहाँ मेरे घर में रानी बन कर निबाह न होगा। किसी को चाम नहीं प्यारा होता। काम प्यारा होता है। तू बड़ी सुंदर है तो तेरी सुंदरता लेकर चाटूँ। उठा झव्वा और जा घास ला।
दरवाज़े पर नीम के दरख़्त के साये में खड़ा महाबीर घोड़े को मल रहा था। उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाए जाते देखा पर कुछ बोल न सका। उसका बस चलता तो मुलिया को कलेजे में बिठा लेता। आँखों में चुरा लेता। लेकिन घोड़े का पेट भरना तो ज़रूरी था। घास मोल लेकर खिलाए तो बारह आने से कम ख़र्च न हों। उसे मज़दूरी ही क्या मिलती है। मुश्किल से डेढ़ दो रुपये। वो भी कभी मिले कभी न मिले।
बुरा हुआ उन मोटर लारियों का। अब यक्के को कौन पूछता है। महाजन से डेढ़ सौ रुपये क़र्ज़ लेकर यक्का और घोड़ा ख़रीदा था। उसके सूद के भी नहीं पहुँचते। असल का ज़िक्र ही क्या। ज़ाहिर-दारी की, न जी चाहता हो न जा, देखी जाएगी।
मुलिया निहाल हो गई। आब-गूँ आँखों में मुहब्बत का सुरूर झलक उठा, बोली, घोड़ा खाएगा क्या?
आज उसने कल का रास्ता छोड़ दिया और खेतों की मेंडों से होती हुई चली। बार-बार ख़ाइफ़ नज़रों से इधर-उधर ताकती जाती थी। दोनों तरफ़ ऊख के खेत खड़े थे। ज़रा भी खड़खड़ाहट होती तो उसका जी सन्न से हो जाता। कोई ऊख में छुपा बैठा न हो। मगर कोई नई बात न हुई। ओख के खेत निकल गए। आमों का बाग़ निकल गया, सींचे हुए खेत नज़र आने लगे। दूर एक कुँए पर पुर चल रहा था। खेतों की मेंडों पर हरी हरी घास जमी हुई थी। मुलिया का जी ललचाया। यहाँ आध घंटे में जितनी घास छिल सकती है, उतनी ख़ुश्क मैदान में दोपहर तक भी न छिल सकेगी। यहाँ देखता ही कौन है? कोई पुकारेगा तो चुपके से सरक जाऊँगी। वो बैठ कर घास छीलने लगी। और एक घंटे में उसका झाबा आधे से ज़्यादा भर गया। अपने काम में इतनी महव हो गई कि उसे चैन सिंह के आने की ख़बर भी न हुई। यकायक आहट पाकर सर उठाया तो चैन सिंह खड़ा था।
मुलिया का कलेजा धक से हो गया। जी में आया कि भाग जाए। झाबा वहीं उलट दे और ख़ाली झाबा लेकर चली जाए। पर चैन सिंह ने कई गज़ के फ़ासले ही पर रोक कर कहा, डर मत, डर मत, भगवान जाने मैं मुँह से कुछ न बोलूँगा। ख़ूब छील ले, मेरा ही खेत है।
मुलिया के हाथ मफ़्लूज से हो गए। खुरपी हाथ में जम सी गई। घास नज़र ही न आती थी। जी चाहता था धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ, ज़मीन आँखों के सामने तैरने लगी।
चैन सिंह ने दिलासा दिया, छीलती क्यों नहीं, मैं मुँह से कुछ कहता थोड़े ही ही हूँ। यहीं रोज़ चली आया कर, मैं छील दिया करूँगा।
मुलिया बुत बनी बैठी रही। उसके सीने में अब इतनी धड़कन न थी।
चैन सिंह ने एक क़दम और आगे बढ़ाया और बोला, तू मुझसे इतना क्यों डरती है, क्या तू समझती है मैं तुझे सताने आया हूँ। ईश्वर जानता है कल भी तुझे सताने के लिए तेरा हाथ नहीं पकड़ा था। तुझे देखकर आप ही हाथ बढ़ गए। मुझे कुछ सुध ही न रही। तू चली गई तो मैं वहीं बैठ कर घंटों रोता रहा। जी में आता था इस हाथ को काट डालूँ, कभी जी चाहता ज़हर खालूँ। तभी से तुझे ढूँढ रहा हूँ। आज तू इधर से चली आई, मैं सारे बार में मारा मारा फिरा किया। अब जो सज़ा तेरे जी में आवे दे। अगर तू मेरा सर भी काट ले तो गर्दन न हिलाऊँगा। मैं शोहदा हूँ, लुच्चा हूँ, लेकिन जब से तुझे देखा है न जाने क्यों मेरे मन की खोट मिट गई। अब तो यही जी चाहता है कि तेरा कुत्ता होता और तेरे पीछे पीछे चलता। तेरा घोड़ा होता, तब तो तू कभी कभी मेरे मुँह पर हाथ फेरती। तू मुझसे कुछ बोलती क्यों नहीं। किसी तरह ये चोला तेरे काम आवे। मेरे मन की यही सबसे बड़ी लासा है। रुपया, पैसा, अनाज, पानी। भगवान का दिया सब घर में है, बस तेरी दया चाहता हूँ। मेरी जवानी काम न आवे। अगर मैं किसी खोट से ये बातें कर रहा हूँ। बड़ा भागवान था, महाबीर कि ऐसी देवी उसे मिली।
मुलिया चुप-चाप सुनती रही। फिर सर नीचा कर के भोलेपन से बोली, तो तुम मुझे क्या करने कहते हो?
चैन सिंह ने और क़रीब आकर कहा, बस तेरी दया चाहता हूँ।
मुलिया ने सर उठा कर उसकी तरफ़ देखा। उसका शर्मीलापन न जाने कहाँ ग़ायब हो गया था। चुभते हुए लफ़्ज़ों में बोली, तुमसे एक बात पूछूँ, बुरा तो न मानोगे? तुम्हारा ब्याह हो गया है या नहीं?
चैन सिंह ने दबी ज़बान से कहा, ब्याह तो हो गया है मुलिया, लेकिन ब्याह क्या है। खिलवाड़ है।
मुलिया के लबों पर एक हिक़ारत-आमेज़ तबस्सुम नमूदार हो गया। बोली, अगर इसी तरह महाबीर तुम्हारी औरत को छेड़ता तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने पर तैयार हो जाते कि नहीं?
बोलो। क्या समझते हो, महाबीर चमार है तो उसके बदन में लहू नहीं है। शर्म नहीं आती है, अपनी इज्जत आबरू का ख़याल नहीं है! मेरा रूप रंग तुम्हें भाता है, क्या मुझसे सुंदर औरतें, शहर में नदी के घाट पर नहीं घूमा करतीं। मेरा मुँह उनकी तलवों की बराबरी भी नहीं कर सकता। तुम उन में से किसी से क्यों दया नहीं माँगते। क्या उनके पास दया नहीं है। मगर तुम वहाँ न जाओगे। क्योंकि वहाँ जाते तुम्हारी छाती दहलती है। मुझ से दया माँगते हो। इसीलिए तो कि मैं चमारिन हूँ। नीच जात हूँ और नीच जात की औरत जरा सी आरजू, बिनती, या जरा से लालच या जरा सी घर की धमकी से काबू में आ जाती है। कितना सस्ता सौदा है! ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे।
चैन सिंह पर घड़ों पानी फिर गया। बल्कि सैंकड़ों जूते पड़ गए। ख़िफ़्फ़त-आमेज़ लहजे में बोला, ये बात नहीं है मुलिया, मैं सच कहता हूँ। इसमें ऊँच-नीच की बात नहीं है, सब आदमी बराबर हैं, मैं तो तेरे चरणों पर सर रखने को तैयार हूँ।
मुलिया तंज़ से बोली, इसीलिए कि जानते हो मैं कुछ कर नहीं सकती, जाकर किसी खतरानी या ठकुराइन के चरणों पर सर रखो तो मालूम हो कि चरणों पर सर रखने का क्या फल मिलता है। फिर ये सर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।
चैन सिंह मारे शर्म के ज़मीन में गड़ा जाता था। उसका मुँह ख़ुश्क हो गया था कि जैसे महीनों की बीमारी के बाद उठा हो। मुँह से बात न निकलती थी। मुलिया इतनी ज़ी-फ़हम है, इसका उसे गुमान भी न था।
मुलिया ने फिर कहा, मैं भी रोज़ बजार जाती हूँ। बड़े बड़े घरों का हाल जानती हूँ, तुझे किसी बड़े घर का नाम बता दूँ। जिसमें कोई साइस, कोई कोचवान, कोई कहार, कोई पंडा, कोई महराज न घुसा बैठा हो, ये सभी बड़े घरों की लीला है। और वो औरतें जो कुछ करती हैं, ठीक करती हैं। उनके मर्द भी तो चमारिनों और कहारनों पर जान देते फिरते हैं। लेना देना बराबर हो जाता है। बेचारे गरीब आदमियों के लिए ये राग-रंग कहाँ? महाबीर के लिए संसार में जो कुछ हूँ, मैं हूँ। वो किसी दूसरी औरत की तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखता। संजोग की बात है कि मैं जरा सुंदर हूँ। लेकिन मैं काली कलूटी होती, तब भी महाबीर मुझे इसी तरह रखता। इसका मुझे भरोसा है। मैं चमारिन हो कर भी इतनी कमीनी नहीं हूँ कि जो अपने ऊपर भरोसा करे, उसके साथ दग़ा करूँ। हाँ महाबीर अपने मन की करने लगे। मेरी छाती पर मूँग दले तो मैं भी उसकी छाती पर मूँग दलूँगी। तुम मेरे रूप ही के दिवाने हो न? आज मुझे माता निकल आए। काली हो जाऊँ तो मेरी तरफ़ ताकोगे भी नहीं। बोलो झूट कहती हूँ?
चैन सिंह इंकार न कर सका।
मुलिया ने उसी मलामत-आमेज़ लहजे में कहा, लेकिन मेरी एक नहीं, दोनों आँखें फूट जाएँ तब भी महाबीर की आँख न फिरेगी। मुझे उठावेगा, बिठावेगा, खिलावेगा, सुलावेगा। कोई ऐसी सेवा नहीं है जो वो उठा रखे। तुम चाहते हो, मैं ऐसे आदमी से दग़ा करूँ। जाओ अब मुझे कभी न छेड़ना। नहीं अच्छा न होगा।
जवानी का जोश है, हौसला है, क़ुव्वत है। और वो सब कुछ ज़िंदगी को रौशन, पाकीज़ा और मुकम्मल बना देता है। जवानी का नशा है। नफ़्स-परवरी है। रऊनत है, हवस-परस्ती है। ख़ुद-मतलबी है और वो सब कुछ जो ज़िंदगी को बहमीत, ज़वाल और बदी की जानिब ले जाता है। चैन सिंह पर जवानी का नशा था। मुलिया ने ठंडे छींटों से नशा उतार दिया। औरत जितनी आसानी से दीन और ईमान को ग़ारत कर सकती है, उतनी ही आसानी से उनको क़ुव्वत भी अता कर सकती है। वही चैन सिंह जो बात बात पर मज़दूरों को गालियाँ देता था। आसामियों को पीटता था, अब इतना ख़लीक़, इतना मुतहम्मिल, इतना मुनकसिर हो गया था कि लोगों को तअ’ज्जुब होता था।
कई दिन गुज़र गए। एक दिन शाम को चैन सिंह खेत देखने गया। पुर चल रहा था। उसने देखा कि एक जगह नाली टूट गई है और सारा पानी बहा चला जा रहा है। क्यारी में बिल्कुल पानी न पहुँचता था। मगर क्यारी बनाने वाली औरत चुप-चाप बैठी हुई थी। उसे इसकी ज़रा भी फ़िक्र नहीं थी कि पानी क्यों नहीं आता। पहले ये लापरवाई देखकर चैन सिंह आपे से बाहर हो जाता, उस औरत की पूरे दिन की मज़दूरी काट लेता और पर चलाने वालों को घुड़कियाँ जमाता। पर आज उसे गु़स्सा नहीं आया। उसने मिट्टी लेकर नाली बाँध दी और बुढ़िया के पास जाकर बोला, तू यहाँ बैठी है और पानी सब बहा जा रहा है।
बुढ़िया को थर-थर काँपते देखकर चैन सिंह ने उसकी दिल-जमई करते हुए कहा, भाग मत, मैंने नाली बंद कर दी है। बुढ़ऊ कई दिन से नहीं दिखाई दिए, कहीं काम धंधा करने जाते हैं कि नहीं।
बुढ़िया का सिकुड़ा हुआ चेहरा चिकना हो गया। बोली, आज कल तो ठाली ही बैठे हैं। भैया कहीं काम नहीं लगता।
चैन सिंह ने नर्मी से कहा, तो हमारे यहाँ लगा दे। थोड़ा रासन रखा है, कात दें। ये कहता हुआ वो कुँए की जानिब चला गया। वहाँ चार पुर चल रहे थे पर उस वक़्त दो हकोले बेर खाने गए हुए थे। चैन सिंह को देखते ही बाक़ी मज़दूरों के होश उड़ गए। अगर ठाकुर ने पूछा दो आदमी कहाँ गए, तो क्या जवाब देंगे। सब के सब डाँटे जाएँगे। बेचारे दिल में सहमे जा रहे थे कि देखें सर पर कौन आफ़त आती है।
चैन सिंह ने पूछा, वो दोनों कहाँ गए?
एक मज़दूर ने डरते डरते कहा, दोनों किसी काम से अभी चले गए हैं भैया।
दफ़अ’तन दोनों मज़दूर धोती के एक कोने में बेर भरे आते दिखाई दिए। दोनों ख़ुश-ख़ुश चले आ रहे थे। चैन सिंह पर निगाह पड़ी तो पाँव मन मन भर के हो गए। अब न आते बनता है न जाते। दोनों समझ गए कि आज बे-तरह मार पड़ी, शायद मज़दूरी भी कट जाए, शश-ओ-पंज की हालत में खड़े थे कि चैन सिंह ने पुकारा, आओ। बढ़ आओ। कैसे बेर हैं? ज़रा मुझे भी दिखाओ, मेरे ही बाग़ के हैं न?
दोनों और भी थर्रा उठे, आज ठाकुर जीता न छोड़ेगा। शायद सर के बाल भी न बचें। भिगो भिगो कर लगाएगा।
चैन सिंह ने फिर कहा, जल्दी आओ जी, खड़े क्या हो। मगर पक्की पक्की सब मैं ले लूँगा, कहे देता हूँ। ज़रा एक आदमी लपक के घर से थोड़ा सा नमक तो ले लो (मज़दूरों) छोड़ दो पुर, आओ बेर खाओ, इस बाग़ के बेर बहुत मीठे होते हैं। काम तो करना ही है।
दोनों ख़तावारों को अब कुछ तशफ़्फ़ी हुई। आकर सारे बेर चैन सिंह के सामने रख दिए। एक मज़दूर नमक लाने दौड़ा। एक ने कुँए से लुटिया डोर से पानी निकाला। चैन सिंह चरसे का पानी न पीता था। आध घंटे तक चारों पुर बंद रहे। सभों ने ख़ूब बेर खाए, जब सब बेर उड़ गए तो एक मुजरिम ने हाथ जोड़कर कहा, भैया जी, आज जान बक्सी हो जाए। बड़ी भूक लगी थी। नहीं तो काम छोड़कर न जाते।
चैन सिंह ने हम-दर्दाना अंदाज़ से कहा, तो इसमें बुराई क्या हुई, मैंने भी तो बेर खाए। आध घंटे का हर्ज हुआ। इतना ही तो। तुम चाहोगे तो घंटा भर का काम आध घंटे में कर लोगे। न चाहोगे तो दिन-भर में भी घंटे भर का काम न होगा।
चैन सिंह चला गया तो चारों बातें करने लगे।
एक ने कहा, मालिक इस तरह रहे तो काम करने में जी लगता है, ये नहीं हर-दम छाती पर सवार।
दूसरा, मैंने तो समझा आज कच्चा ही खा जाएगा।
तीसरा, कई दिन से देखा हूँ मिजाज़ कुछ नरम हो गया है।
चौथा, साँझ को पूरी मजूरी मिले तो कहना।
पहला, तुम तो हो गोबर-गनेस। आदमी का रुख़ नहीं पहचानते।
दूसरा, अब ख़ूब दिल लगा कर काम करेंगे।
तीसरा, जब इन्होंने हमारे ऊपर छोड़ दिया तो हमारा भी धर्म है कि अपना काम समझ कर काम करें।
चौथा, मुझे तो भैया ठाकुर पर अब भी बिस्वास नहीं आता।
एक दिन चैन सिंह को किसी काम से कचहरी जाना था। पाँच मील का सफ़र था, यूँ तो वो बराबर अपने घोड़े पर जाया करता था। पर आज धूप तेज़ थी। सोचा यक्के पर चला चलूँ। महाबीर को कहला भेजा, मुझे भी लेते जाना। कोई नौ बजे महाबीर ने पुकारा, चैन सिंह तैयार बैठा था। चट-पट यक्के पर बैठ गया। मगर घोड़ा इतना दुबला हो रहा था, यक्के की गद्दी इतनी मैली और फटी हुई, सारा सामान इतना बोसीदा कि चैन सिंह को यक्के पर बैठते शर्म आती थी। पूछा, ये सामान क्यों बिगड़ा हुआ है, महाबीर। तुम्हारा घोड़ा तो कभी इतना दुबला न था। क्या आज कल सवारियाँ कम हैं?
महाबीर ने कहा, मालिक, सवारियाँ कम नहीं। मगर लारियों के सामने यक्के को कौन पूछता है। कहाँ दो ढाई, तीन की मजूरी करके घर लौटता था, कहाँ अब बीस आने के पैसे भी नहीं मिलते, क्या जानवर को खिलाऊँ, क्या आप खाऊँ, बड़ी बिपत में पड़ा हुआ हूँ। सोचता हूँ कि यक्का घोड़ा बेच आप लोगों की मजूरी करूँ। पर कोई गाहक नहीं लगता। ज्यादा नहीं तो बारह आने तो घोड़े ही को चाहिए, घास ऊपर से। जब अपना ही पेट नहीं चलता तो जानवर को कौन पूछे।
चैन सिंह ने उसके फटे हुए कुर्ते की तरफ़ देखकर कहा, दो-चार बीघे की खेती क्यों नहीं कर लेते। खेत मुझसे ले लो।
महाबीर ने माज़ूरी के अंदाज़ से सर झुका कर कहा, खेती के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए मालिक। मैंने भी सोचा है कोई गाहक लग जाए तो यक्के को औने-पौने निकाल दूँ। फिर घास छील कर बजार ले जाया करूँ। आज कल सास बहू दोनों घास छीलती हैं। तब जाकर दस बारह आने पैसे नसीब होते हैं।
चैन सिंह ने पूछा, तो बुढ़िया बजार जाती होगी?
महाबीर शरमाता हुआ बोला, नहीं राजा, वो इतनी दूर कहाँ चल सकती है, घर-वाली चली जाती है। दोपहर तक घास छीलती है। तीसरे पहर बजार जाती है। वहाँ से घड़ी रात गए लौटती है। हलकान हो जाती है भैया। मगर क्या करूँ, तक़दीर से क्या जोर।
चैन सिंह कचहरी पहुँच गया। महाबीर सवारियों की टोह में शहर की तरफ़ चला गया। चैन सिंह ने उसे पाँच बजे आने को कह दिया।
कोई चार बजे चैन सिंह कचहरी से फ़ुर्सत पाकर बाहर निकला। अहाते में पान की दुकान थी। अहाते के बाहर फाटक से मिला हुआ एक बरगद का दरख़्त था। उसके साये में बीसों ही यक्के, ताँगे, बग्घियाँ खड़ी थीं। घोड़े खोल दिए गए थे। वकीलों, मुख़्तारों और अफ़सरों की सवारियाँ यहीं खड़ी रहती थीं। चैन सिंह ने पानी पिया, पान खाया और सोचने लगा। कोई लारी मिल जाए तो ज़रा शहर की सैर कर आऊँ कि यकायक उसकी निगाह एक घास वाली पर पड़ गई। सर पर घास का झाबा रखे साइसों से मोल-भाव कर रही थी। चैन सिंह का दिल उछल पड़ा। ये तो मुलिया है। कितनी बनी ठनी। कई कोचबान जमा हो गए थे। कोई उससे मज़ाक़ करता था, कोई घूरता था, कोई हँसता था।
एक काले-कलूटे कोचबान ने कहा, मुलिया घास तो उड़ के छः आने की है।
मुलिया ने नशा-ख़ेज़ आँखों से देख कर कहा, छः आने पर लेना है तो वो सामने घसयारिनें बैठी हैं,चले जाओ। दो-चार पैसे कम में पा जाओगे। मेरी घास तो बारह आने ही में जाएगी।
एक अधेड़-उम्र कोचबान ने फिटन के ऊपर से कहा, तेरा जमाना है। बारह आने नहीं, एक रुपया माँग भाई। लेने वाले झक मारेंगे और लेंगे, निकलने दे वकीलों को। अब देर नहीं है।
एक ताँगे वाले ने जो गुलाबी पगड़ी बाँधे हुए था, कहा, बुढ़ऊ के मुँह में भी पानी भर आया। अब मुलिया का मिजाज काहे को मिलेगा।
चैन सिंह को ऐसा गु़स्सा आ रहा था कि इन बदमाशों को जूतों से ख़बर ले। सब के सब उसकी तरफ़ कैसा टकटकी लगाए ताक रहे हैं। गोया आँखों से पी जाएँगे। और मुलिया भी यहाँ कितनी ख़ुश है। न लजाती है, न झिझकती है, न बिगड़ती है। कैसा मुस्कुरा मुस्कुरा कर रसीली चितवनों से देख देखकर सर का आँचल खिसका कर, मुँह मोड़ मोड़ कर बातें कर रही है। वही मुलिया जो शेरनी की तरह तड़प उठती थी।
ज़रा देर में वकील मुख़्तारों का एक मेला सा निकल पड़ा। कोचबान ने भी चट-पट घोड़े जोते, मुलिया पर चारों तरफ़ ऐनक-बाज़ों की मुश्ताक़, मस्ताना क़दराना, हवस-नाक नज़रें पड़ने लगीं, एक अंग्रेज़ी फ़ैशन के भले आदमी आकर उस फिटन पर बैठ गए और मुलिया को इशारे से बुलाया। कुछ बातें हुईं। मुलिया ने घास पाएदान पर रखी। हाथ फैलाकर और मुँह मोड़ कर कुछ लिया। फिर मुस्कुरा कर चल दी। फिटन भी रवाना हो गईं।
चैन सिंह पान वाले की दुकान पर ख़ुद-फ़रामोशी की हालत में खड़ा था, पान वाले ने दुकान बढ़ाई। कपड़े पहने और केबिन का दरवाज़ा बंद कर के नीचे उतरा तो चैन सिंह को होश आया। पूछा, क्या दुकान बंद कर दी?
पान वाले ने हम-दर्दाना अंदाज़ से कहा, इसकी दवा करो ठाकुर साहब, ये बीमारी अच्छी नहीं है।
चैन सिंह ने इस्तिजाब से पूछा, कैसी बीमारी?
पान वाला बोला, कैसी बीमारी? आध घंटे से यहाँ खड़े हो जैसे बदन में जान ही नहीं है। सारी कचहरी ख़ाली हो गई। मेहतर तक झाड़ू लगा कर चल दिए। तुम्हें कुछ ख़बर हुई? जल्दी दवा कर डालो।
चैन सिंह ने छड़ी संभाली और फाटक की तरफ़ चला कि महाबीर का यक्का सामने से आता दिखाई दिया।
यक्का कुछ दूर निकल गया तो चैन सिंह ने पूछा, आज कितने पैसे कमाए महाबीर?
महाबीर ने हँसकर कहा, आज तो मालिक दिन-भर खड़ा ही रह गया, किसी ने बेगार में भी न पकड़ा। ऊपर से चार पैसे की बीड़ियाँ पी गया।
चैन सिंह ने ज़रा पस-ओ-पेश के बाद कहा, मेरी एक सलाह मानो। इज़्ज़त हमारी और तुम्हारी एक है। तुम मुझ से एक रुपया रोज़ाना ले लिया करो। बस, जब बुलाऊँ तो यक्का लेकर आ जाओ। तब तो तुम्हारी घर-वाली को घास को ले कर बाज़ार न आना पड़ेगा। बोलो मंज़ूर है?
महाबीर ने मशकूर नज़रों से देखकर कहा, मालिक आप ही का तो खाता हूँ। प्रजा भी आप ही का हूँ। जब मर्जी हो बुलवा लीजिए…आप से रुपया…
चैन सिंह ने बात काट कर कहा, नहीं मैं तुमसे बेगार नहीं लेना चाहता। तुम तो मुझ से एक एक रुपया रोज़ ले जाया करो। घर वाली को घास लेकर बाज़ार मत भेजा करो। हाँ देखो, मुलिया से भूल कर भी इसकी चर्चा न करना। न और किसी से कुछ कहना।
कई दिनों के बाद शाम को मुलिया की मुलाक़ात चैन सिंह से हो गई। वो आसामियों से लगान वसूल करके घर की तरफ़ लपका जा रहा था कि उसी जगह जहाँ उसने मुलिया की बाँह पकड़ी थी, मुलिया की आवाज़ उसके कानों में आई। उसने ठिटक कर देखा तो मुलिया दौड़ी चली आ रही थी। बोला, क्या है मुलिया? दौड़ मत, दौड़ मत, मैं तो खड़ा हूँ।
मुलिया ने हाँपते हुए कहा, अब मैं घास बेचने नहीं जाती, कई दिन से तुमसे मिलना चाहती थी पर तुम कहीं मिलते न थे और तुम्हारे घर जा न सकती थी। आज तुम्हें देखकर दौड़ी। इस पीपल के पास दौड़ी आ रही हूँ…
चैन सिंह ने पीपल की तरफ़ देखकर माज़रत के अंदाज़ से कहा, नाहक़ इतनी दूर दौड़ी, पसीने पसीने हो रही है। तू ने बड़ा अच्छा किया कि बाज़ार जाना छोड़ दिया।
मुलिया ने पूछा, तुमने मुझे कभी घास बेचते देखा है क्या?
चैन सिंह, हाँ एक दिन देखा था, क्या महाबीर ने तुझसे सब कुछ कह डाला? मैंने तो मना किया था।
मुलिया, वो मुझसे कोई बात नहीं छुपाता।
दोनों एक लम्हे तक ख़ामोश खड़े रहे, यकायक मुलिया ने मुस्कराकर कहा, यहीं तुमने मेरी बाँह पकड़ी थी।
चैन सिंह शर्मिंदा हो कर बोला, उसको भूल जाओ मौला देवी, मुझ पर न जाने कौन भूत सवार था।
मुलिया ने भर्राई आवाज़ में कहा, उसे क्यों भूल जाऊँ, उसी हाथ पकड़ने की लाज तो निभा रहे हो। गरीबी आदमी से जो चाहे करा दे। तुमने मुझे डूबने से बचा लिया।
फिर दोनों चुप हो गए।
ज़रा देर बाद मुलिया ने शरारत-आमेज़ अंदाज़ से पूछा, तुमने समझा होगा, मैं हँसने बोलने में मगन हो रही थी? क्यों?
चैन सिंह ने ज़ोर देकर कहा, नहीं मुलिया मुझे ऐसा ख़याल एक लम्हे के लिए भी नहीं आया। इतना कमीना न समझ।
मुलिया मुस्कुरा कर बोली, मुझे तुमसे यही आसा थी।
हवा सींचे हुए खेतों में आराम करने जा रही थी। आफ़ताब उफ़ुक़ की गोद में आराम करने जा रहा था और इस धुँदली रौशनी में खड़ा चैन सिंह मुलिया की मिटती हुई तस्वीर को देख रहा था।