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आह-ए-बेकस (प्रेमचंद की कहानी)

प्रेमचंद की कहानी

by satat chhattisgarh
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Premchand's story

मुंशी राम सेवक भवें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर।

मौत की दस्त दराज़ियों का सारा ज़माना शाकी है। अगर इन्सान का बस चलता तो मौत का वुजूद ही न रहता, मगर फ़िलवाक़े मौत को जितनी दावतें दी जाती हैं उन्हें क़ुबूल करने की फ़ुर्सत ही नहीं। अगर उसे इतनी फ़ुर्सत होती तो आज ज़माना वीरान नज़र आता।

मुंशी राम सेवक मौज़ा चांद-पुर के एक मुमताज़ रईस थे और रुअसा के औसाफ़-ए-हमीदा से बहरावर वसीला मआश इतना ही वसीअ था जितनी इन्सान की हिमाक़तें और कमज़ोरियाँ यही उनकी इमलाक और मौरूसी जायदाद थी। वो रोज़ अदालत मुंसफ़ी के अहाते में नीम के दरख़्त के नीचे काग़ज़ात का बस्ता खोले एक शिकस्ता हाल चौकी पर बैठे नज़र आते थे और गो उन्हें किसी ने इजलास में क़ानूनी बहस या मुक़द्दमे की पैरवी करते नहीं देखा, मगर उर्फ़-ए-आम में वो मुख़्तार साहब मशहूर थे। तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें। मगर मुख़्तार साहब किसी नामुराद दिल की तरह वहीं जमे रहते थे। वो कचहरी चलते थे तो दहक़ानियों का एक जुलूस सा नज़र आता। चारों तरफ़ से उन पर अक़ीदत व एहतराम की निगाहें पड़तीं और अतराफ़ में मशहूर था कि उनकी ज़बान पर सरस्वती हैं।

उसे वकालत कहो या मुख़्तार कारी मगर ये सिर्फ़ ख़ानदानी या एज़ाज़ी पेशा था। आमदनी की सूरतें यहां मफ़क़ूद थीं। नुक़रई सिक्कों का तो ज़िक्र ही क्या कभी कभी मिसी सिक्के भी आज़ादी से आने में तअम्मुल करते थे।

मुंशी जी की क़ानूनदानी में भी कोई शक नहीं मगर पास की मनहूस क़ैद ने उन्हें मजबूर कर दिया था। बहरहाल जो कुछ हो ये महज़ एज़ाज़ के लिए था वर्ना उनकी गुज़र उनकी ख़ास सूरत, क़ुर्ब-ओ-जवार की बेकस मगर फ़ारिगुलबाल बेवाओं और सादा-लौह मगर ख़ुशहाल बुड्ढों की ख़ुश मुआमलगी थी। बेवाऐं अपना रुपया उनकी अमानत में रखतीं, बूढ़े अपनी पूँजी ना ख़ल्फ़ लड़कों की दस्त बुरद से महफ़ूज़ रखने के लिए उन्हें सौंपते और रुपया एक दफ़ा उनकी मुट्ठी में जाकर निकलना नहीं जानता था। वो हस्ब-ए-ज़रूरत कभी कभी क़र्ज़ भी लेते थे। बिला क़र्ज़ लिए किस का काम चल सकता है। सुब्ह को शाम के वादे पर लेते मगर वो शाम कभी नहीं आती थी। ख़ुलासा ये कि मुंशी जी क़र्ज़ लेकर देना नहीं जानते थे। और उनका ख़ानदानी वस्फ़ था, इस ख़ानदान की ये रस्म क़दीम थी।

ये मुआमलात अक्सर मुंशी जी के आराम में मुख़िल हुआ करते थे। क़ानून और अदालत का तो उन्हें कोई ख़ौफ़ न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में रह कर मगर से बैर करना था। लेकिन जब बा’ज़ शरीर-उल-नफ़्स लोग ख़्वाह-मख़्वाह उनसे बदज़न हो जाते उनकी ख़ुशनियती पर शक करते और उनके रूबरू ऐलानिया बद ज़बानियों पर उतर आते तो मुंशी जी को बड़ा सदमा होता। इस क़िस्म के नाख़ुशगवार वाक़ियात आए दिन होते रहते थे। हर जगह ऐसे तंग-ज़र्फ़ हज़रात मौजूद रहते हैं जिन्हें दूसरों की तहक़ीर में मज़ा आता है। उन्हीं बद ख़्वाहों की शह पाकर बा’ज़ औक़ात छोटे छोटे आदमी मुंशी जी के मुँह आजाते। वर्ना एक कुँजड़िन का इतना हौसला न हो सकता था कि उनके घर में जाकर उन्हीं की शान में नाज़ेबा कलमात मुँह से निकाले। मुंशी जी उसके पुराने गाहक थे, बरसों तक उससे सब्ज़ी ली थी अगर दाम न दिए तो कुँजड़िन को सब्र करना चाहिए था जल्द या देर में मिल ही जाते, मगर वो बद-ज़ुबान औरत दो साल ही में घबरा गई और चंद आने पैसों के लिए एक मुअज़्ज़ज़ आदमी की जान-रेज़ी की। ऐसी हालत में आकर झुँझला कर मौत को दावत दी तो उनकी कोई ख़ता नहीं।

इस मौज़े में मूंगा नाम की एक बेवा ब्रहमनी थी। उसका शौहर बर्मा की काली पलटन में हवलदार था, वो वहीं मारा गया। उसके हुस्न-ए-ख़िदमात के सिले में मूंगा को पाँच सौ रुपये मिले थे। बेवा औरत थी ज़माना नाज़ुक उसने ये रुपये मुंशी राम सेवक को सौंप दिए और हर माह उसमें से थोड़ा थोड़ा लेकर गुज़र करती रही। मुंशी जी ने ये फ़र्ज़ कई साल तक नेकनियती से पूरा किया मगर जब पीराना-साली के बावजूद मूंगा ने मरने में ताम्मुल किया और मुंशी जी को अंदेशा हुआ शायद वो तोशा-ए-आख़िरत… के लिए निस्फ़ रक़्म भी छोड़ना नहीं चाहती तो एक रोज़ उन्होंने कहा, मूंगा तुम्हें मरना है या नहीं। साफ़ साफ़ कह दो ताकि मैं अपने मरने की फ़िक्र करूँ।

उस दिन मूंगा की आँखें खुलीं ख़्वाब से बेदार हुई बोली, मेरा हिसाब कर दो। फ़र्द-ए-हिसाब तैयार थी अमानत में अब एक कौड़ी भी न थी इस सख़्तगिरी से जो बुढ़ापे के साथ मख़सूस है, उसने मुंशी जी का हाथ पकड़ लिया और कहा, मेरे सौ रुपये तुमने दबाए हैं, मैं एक एक कौड़ी ले लूँगी।

मगर बेकसों का गु़स्सा पटाख़े की आवाज़ है। जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता।

अदालत में उसका कुछ ज़ोर न था। न कोई लिखापढ़ी न हिसाब न किताब, अलबत्ता पंचायत से कुछ उम्मीद थी और पंचायत बैठी। गांव के आदमी जमा हुए। मुंशी जी नीयत और मुआमले के साफ़ थे। उन्हें पंचों का क्या ख़ौफ़। सभा में खड़े हो कर पंचों से कहा,

भाइयो, आप सब लोग ईमानदार और शरीफ़ हैं, मैं आप साहिबों का ख़ाक-ए-पा और परवर्दा हूँ, आप सभों की इनायात व अलताफ़ से फ़ैज़ व करम से मुहब्बत व शफ़क़त से मेरा हर एक रोंगटा गिराँबार है। क्या आप सब नेक और शरीफ़ हज़रात ख़याल करते हैं कि मैंने एक बेकस और बेवा औरत के रुपये हज़म कर लिए।

पंचों ने एक ज़बान कहा, नहीं आपसे ऐसा नहीं हो सकता।

अगर आप सब नेक और शरीफ़ साहिबान का ख़याल है कि मैंने रुपये दबा लिये तो मेरे डूब जाने के सिवा और कोई तदबीर नहीं। मैं अमीर नहीं हूँ, न मुझे फ़य्याज़ी का दावा है। मगर अपने क़लम की बदौलत आप साहिबान की इनायात की बदौलत किसी का मुहताज नहीं। क्या मैं ऐसा कमीना हो जाऊँगा कि एक बेकस औरत के रुपये हज़म करलूं।

पंचों ने यक ज़बान हो कर फिर कहा, नहीं नहीं, आपसे ऐसा नहीं हो सकता।

पगड़ी की नगरी है पंचों ने मुंशी जी को रिहा कर दिया। पंचायत ख़त्म हो गई और मूंगा को अब किसी ख़याल से तस्कीन हो सकती थी तो वो ये था कि यहां न दिया, न सही, वहां कहाँ जाएगा।

मूंगा का अब कोई गम ख़्वार व मददगार न था। नादारी से जो कुछ तकलीफ़ें हो सकती हैं वो सब उसे झेलनी पड़ीं, उसके क़वा दुरुस्त थे, वो चाहती तो मेहनत कर सकती थी मगर जिस दिन पंचायत ख़त्म हुई, उसी दिन से उसने काम करने की क़सम खाई, अब उसे रात-दिन रूपों की रट लगी हुई थी।

उठते-बैठते, सोते-जागते उसे सिर्फ़ एक काम था और वो मुंशी राम सेवक का ज़िक्र-ए-ख़ैर था। अपने झोंपड़े के दरवाज़े पर बैठी वो रात-दिन उन्हें सिद्क़-ए-दिल से दुआएं दिया करती और अक्सर दुआओं में ऐसे शायराना तिलामज़े, ऐसे रंगीन इस्तिआरे इस्तेमाल करती जिसे सुनकर हैरत होती थी।

रफ़्ता-रफ़्ता मूंगा के हवास पर-वहशत का ग़लबा हुआ। नंगे-सर, नंगे बदन, हाथ में एक कुल्हाड़ा लिए वो सुनसान जगहों में जा बैठती। झोंपड़े के बजाय अब वो मरघट पर नदी के किनारे खंडरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई परेशान लटें… सुर्ख़ आँखें… वहशतनाक चेहरा… सूखे हुए हाथ पांव उसकी… ये हैयत कदाई देखकर लोग डर जाते थे, उसे कोई मज़ाह के तौर पर न छेड़ता था। अगर वो कभी गांव में निकल आती तो औरतें घरों के किवाड़ बंद कर लेतीं। मर्द कतराकर निकल जाते और बच्चे चीख़ चीख़ कर भाग जाते, अगर कोई लड़का न भागता तो ये मुंशी राम सेवक का साहबज़ादा राम ग़ुलाम था बाप में जो कुछ कोर कसर रह गई थी वो उनकी ज़ात में पूरी हो गई थी लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गांव के काने और लंगड़े आदमी उसकी सूरत से बेज़ार थे और गालियां खाने में शायद ससुराल में आने वाले दामाद को भी उतना मज़ा न आता होगा। वो मूंगा के पीछे तालियाँ बजा ताकतों को साथ लिए उस वक़्त तक रहता जब तक वो ग़रीब तंग आकर निकल न जाती। रुपया-पैसा होश-ओ-हवास खोकर उसे पगली का लक़ब मिला और वो सचमुच पगली थी, अकेले बैठे हुए आप ही आप घंटों बातें किया करती जिसमें राम सेवक के गोश्त-हड्डी, पोस्त-आँखें, कलेजा वग़ैरा को खाने मसलने नोचने खसोटने की पुरजोश ख़्वाहिश का इज़हार होता था और जब ये ख़्वाहिश बेताबी तक पहुंच जाती तो राम सेवक के मकान की तरफ़ मुँह करके बुलंद आवाज़ और डरावनी आवाज़ से हाँक लगाती, तेरा लहू पियूँगी।

अक्सर रातों के सन्नाटे में ये गरजती हुई आवाज़ सुनकर औरतें चौंक पड़ती थीं, मगर उस आवाज़ से ज़्यादा हैबतनाक उसका क़हक़हा था, मुंशी जी के ख़याली लहू पीने की ख़ुशी में वो ज़ोर ज़ोर से हंसा करती थी, उस क़हक़हे से ऐसी शैतानी मसर्रत ऐसी सफ़ाकी, ऐसी खूंख़्वारी टपकती थी कि रात को लोगों के ख़ून सर्द हो जाते थे, मालूम होता था कि गोया सैंकड़ों उल्लू एक साथ हंस रहे हैं।

मुंशी राम सेवक बड़े हौसला जिगर के आदमी थे, न उन्हें दीवानी का ख़ौफ़ था, न फ़ौजदारी का, मगर मूंगा के इन ख़ौफ़नाक नारों को सुनकर वो भी सहम जाते थे। हमें इन्सानी इन्साफ़ का चाहे ख़ौफ़ न हो और बसा-औक़ात नहीं होता। मगर ख़ुदाई इन्साफ़ का ख़ौफ़ हर इन्सान के दिल में ख़लक़ी तौर पर मौजूद रहता है और कभी कभी ऐसे मुबारक इत्तिफ़ाक़ात पेश आजाते हैं जब नफ़्स के नीचे दबा हुआ…ये ख़याल ऊपर आजाता है। मूंगा की वहशतनाक शबगर्दी राम सेवक के लिए यही मुबारक इत्तिफ़ाक़ थी और उनसे ज़्यादा उनकी बीवी के लिए जो एक वफ़ादार औरत की तरह हर मुआमले में न सिर्फ़ औरत का साथ देती थी बल्कि आए दिन के मुबाहिसों और मुनाज़रों में ज़्यादा नुमायां हिस्सा लिया करती थी। फ़िर्क़ा-ए-इनास में उनके ज़ोर-ए-बयान का आम शहरा था। ज़बानी मुआमलात हमेशा वही तय किया करती थीं। उन लोगों की भूल थी जो कहते थे कि मुंशी जी की ज़बान पर सरस्वती है। ये फ़ैज़ उनकी बीवी को हासिल था। ज़ोर बयान में उन्हें वही मलिका थी जो मुंशी जी को ज़ोर-ए-तहरीर में और ये दोनों पाक रूहें अक्सर आलम-ए-मजबूरी में… मश्वरा करतीं कि अब क्या करना चाहिए।

आधी रात का वक़्त था।

मुंशी जी हस्ब-ए-मामूल ग़म ग़लत करने के लिए आब-ए-आतशीं के दो-चार घूँट पी कर सो गए थे।

यकायक मूंगा ने उनके दरवाज़े पर आकर ज़ोर से हाँक लगाई,

तेरा लहू पियूँगी। और ख़ूब खिलखिला कर हंसी।

मुंशी जी ये ख़ौफ़नाक क़हक़हा सुनकर चौंक पड़े, ख़ौफ़ से पांव थरथरा रहे थे और कलेजा धक धक कर रहा था। दिल पर बहुत जब्र करके दरवाज़ा खोला और जाकर नागिन को जगाया।

नागिन ने झल्लाकर कहा,

क्या है? क्या कहते हो?

मुंशी जी ने आवाज़ दबा कर कहा, वो दरवाज़े पर आकर खड़ी है।

नागिन उठ बैठी, क्या कहती है?

तुम्हारा सर।

क्या दरवाज़े पर आ गई?

हाँ, आवाज़ नहीं सुनती हो।

नागिन मूंगा से नहीं डरती थी मगर उसकी वहशत से डरती थी, ताहम उसे यक़ीन था कि मैं तक़रीर में ज़रूर उसे नीचा दिखा सकती हूँ।

सँभल कर बोली, तो मैं उससे दो बातें करलूं।

मगर मुंशी जी ने मना किया।

दोनों आदमी दहलीज़ पर आगए और दरवाज़े से झांक कर देखा, मूंगा की धुँदली मूरत ज़मीन पर पड़ी थी और उसकी सांस तेज़ी से चलती सुनाई देती थी। राम सेवक के ख़ून और गोश्त की आरज़ू में वो अपना गोश्त और ख़ून ख़ुश्क कर चुकी थी, एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था मगर उससे सारा गांव डरता था।

हम ज़िंदा इन्सानों से नहीं डरते हैं मुर्दों से डरते हैं।

अगरचे अंदर से दरवाज़ा बंद था मगर मुंशी जी और नागिन ने बैठ कर रात काटी, मूंगा अंदर नहीं आसकती थी मगर उसकी आवाज़ को कौन रोक सकता था।

मूंगा से ज़्यादा डरावनी उसकी आवाज़ थी।

सुब्ह के वक़्त मुंशी जी बाहर निकले और मूंगा से बोले, यहां क्यों पड़ी है?

मूंगा बोली, तेरा ख़ून पियूँगी।

नागिन ने बल खाकर कहा, तेरा मुँह झुलस दूँगी।

मगर नागिन के ज़हरने मूंगा पर कुछ असर न किया, उसने ज़ोर से क़हक़हा लगाया, नागिन खिसियानी हो गई। क़हक़हे के मुक़ाबले में ज़बान बंद हो जाती है।

मुंशी जी फिर बोले, यहां से उठ जाओ।

न उठूँगी।

कब तक पड़ी रहेगी?

तेरा लहू पी कर जाऊँगी।

मुंशी जी की पुर-ज़ोर तहरीर का यहां कुछ ज़ोर न चला और नागिन की आतिशीं तक़रीर यहां सर्द हो गई।

दोनों घर में जाकर मश्वरा करने लगे। ये बला क्यूँकर टलेगी, इस आफ़त से क्यूँकर नजात होगी।

देवी आती हैं तो बकरे का ख़ून पी कर चली जाती हैं मगर ये डायन इन्सान का ख़ून पीने आई है। वो ख़ून जिसके अगर क़लम बनाने में चंद क़तरे निकल पड़ते थे। तो हफ़्तों और महीनों सारे कुन्बे को अफ़सोस रहता था। और ये वाक़िया गांव में मर्कज़-ए-गुफ़्तगू बन जाता था। क्या ये ख़ून पी कर मूंगा का सूखा हुआ जिस्म बुरा हो जाएगा।

गांव में ख़बर फैल गई। मूंगा मुंशी जी के दरवाज़े पर धरना दिये बैठी है। मुंशी जी की रुस्वाई में गांव वालों को ख़्वाह-मख़्वाह लुत्फ़ आता था। सैंकड़ों आदमी जमा हो गए। उस दरवाज़े पर वक़्तन फ़वक़्तन मेले लगे रहते थे। मगर वो ज़ोर शोर व पुरजोश मेले होते थे। आज का मज्मा ख़ामोश और मतीन था। ये रुकाव और हब्स राम ग़ुलाम को मर्ग़ूब न था। मूंगा पर उसे ऐसा ग़ुस्सा आरहा था कि उसका बस चलता तो ज़रूर कुवें में ढकेल देता। कहता चल कुवें पर तुझे पानी पिला लाऊँ, जब वो कुवें पर पहुंची तो पीछे से ऐसा धक्का देता कि अड़ाड़ा धम कुवें में जा गिरती और पिटे हुए कुत्ते की तरह चीख़ने लगती। धमाके की आवाज़ आती।

इस ख़याल से राम ग़ुलाम के सीने में गुदगुदी सी होने लगी और वो मुश्किल से अपनी हंसी रोक सका। कैसे मज़े की बात होती। मगर ये चुड़ैल यहां से उठती ही नहीं क्या करूँ।

मुंशी जी के घर में इस्तिख़्वानी नस्ल की एक गाय थी, खली दाना और भूसा तो उसे कसरत से खिलाया जाता था मगर वो सब उसकी हड्डियों में पैवस्त होजाता था और उसका ढांचा रोज़ बरोज़ नुमायां हो जाता था। राम ग़ुलाम ने एक हांडी में उसका गोबर घोला और वो सारी ग़लाज़त मूंगा पर लाकर उंडेल दी। और फिर उसके छींटे तमाशाइयों पर डाल दिये, ग़रीब मूंगा लत-पत हो गई और उठकर राम ग़ुलाम की तरफ़ दौड़ी। सदहा तमाशाइयों के कपड़े ख़राब हो गए… लोग भाग खड़े हुए, ये मुंशी राम सेवक का दरवाज़ा है। यहां इसी तरह की मुदारात की जाती है। जल्द भाग चलो वर्ना अब के कोई इस से अच्छी ख़ातिर की जाएगी।

इधर मतला साफ़ हुआ। उधर राम ग़ुलाम घर में जाकर ख़ूब हंसा और ख़ूब तालियाँ बजाईं। मुंशी जी ने इस मजमा-ए-नाजायज़ को ऐसी आसानी और ख़ूबसूरती से हटा देने की तदबीर पर अपने सआदतमंद लड़के की पीठ ठोंकी… मगर सब भागे, मूंगा जूं की तूं बैठी रही।

दोपहर हुई मूंगा ने खाना नहीं खाया था। शाम हुई हज़ारों इसरार के बावजूद उसने खाना नहीं खाया। गांव के चौधरी ने ख़ुशामद कीं, हत्ता कि मुंशी जी ने हाथ तक जोड़े मगर देवी राज़ी ना हुईं। आख़िर मुंशी जी उठकर अंदर चले गए उनका क़ौल था रूठने वाले को भूक आप मना लिया करती है। मूंगा ने ये रात भी बे आब व दाना काट दी। और लाला साहब और उनके ग़मगुसार ने आज भी फिर जाग जाग कर सुब्ह की।

आज मूंगा के नारे और क़हक़हे बहुत कम सुनाई दिये, घरवालों ने समझा बला टल गई। सवेरा होते ही जो दरवाज़े पर देखा तो वो बेहिस-ओ-हरकत पड़ी हुई थी। मुँह पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। उसकी जान निकल चुकी थी, वो इस दरवाज़े पर जान देने आई थी। जिसने उसकी जमा जत्था ली थी। उसको अपनी जान भी सौंप दी… अपनी मिट्टी तक उसकी नज़्र कर दी।

दौलत से इन्सान को कितनी उलफ़त है। दौलत अपनी जान से भी प्यारी होती है। ख़ुसूसन बुढ़ापे में। क़र्ज़ अदा होने के दिन जूँ जूँ क़रीब आते हैं, तूँ तूँ उसका सूद बढ़ता है।

ये ज़िक्र कि गांव में कैसी हलचल मची और मुंशी राम सेवक कैसे ज़लील हुए फ़ुज़ूल है… एक छोटे से गांव में एक ऐसे ग़ैरमामूली वाक़िये पर जितनी हलचल मच सकती है उससे कुछ ज़्यादा ही मची। मुंशी जी की जितनी ज़िल्लत होनी चाहिए थी उससे ज़रा भी कम न हुई… गांव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने या उन्हें छूने का रवादार न था। अगर किसी के घर कोई गाय बंधी बंधी मर जाती है तो वो शख़्स महीनों दर-ब-दर भीक मांगता फिरता है… ना हज्जाम उसकी हजामत बनाए… न कहार उसका पानी भरे न कोई उसे छूए… ये गऊ हत्या का पराशचित है… ब्रहम हत्या की सज़ाएं इससे ब-दर्जहा सख़्त और ज़िल्लतें ब-दर्जहा ज़्यादा हैं… मूंगा ये जानती थी और इसीलिए इस दरवाज़े पर आ कर मरी थी… कि मैं जो ज़िंदा रह कर कुछ नहीं कर सकती मर कर बहुत कुछ कर सकती हूँ… गोबर का एक उपला जब जल कर राख होजाता है तो साधू-संत लोग उसे माथे पर चढ़ाते हैं, पत्थर का ढेला आग में जल कर आग से भी ज़्यादा लाल होजाता है।

मुंशी राम सेवक क़ानूनदां आदमी थे। क़ानून ने उन पर कोई जुर्म नहीं लगाया था। मूंगा किसी क़ानूनी दफ़ा के मंशा के मुताबिक़ नहीं मरी थी, ताज़ीरात-ए-हिंद में इसकी कोई नज़ीर नहीं मिलती थी इसलिए जो लोग उनसे पराशचित कराना चाहते थे उनकी सख़्त ग़लती थी। कोई मज़ाइक़ा नहीं, कहार पानी न भरे वो ख़ुद अपना पानी आप भर सकते थे, अपना काम करने में कोई शर्म नहीं, बला से हज्जाम बाल न बनाएगा। हजामत की ज़रूरत ही क्या है, दाढ़ी बहुत ख़ूबसूरत चीज़ है, दाढ़ी मर्द का ज़ेवर और सिंगार है। और फिर बालों से ऐसी ही नफ़रत हो गई तो एक एक आने में उस्तरे आते हैं। धोबी कपड़े न धोएगा, इसकी भी कुछ परवाह नहीं, साबुन कौड़ियों के मोल आता है, एक बटटी में दर्जनों कपड़े ऐसे साफ़ होजाएं जैसे बगुले के पर, धोबी क्या खाने के ऐसे साफ़ कपड़े धोएगा, कमबख़्त पत्थर पर पटक पटक कपड़ों का लत्ता निकाल लेता है। ख़ुद पहने, दूसरों को पहनाए, भट्टी में चढ़ाए, रेह में भिगोए कपड़ों की दुर्गत कर डालता है जब ही तो कुरते दो-तीन साल से ज़्यादा नहीं चलते, वर्ना दादा हर पांचवें साल दो अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे। मुंशी राम सेवक और उनकी ज़ौजा ग़मगुसार ने दिनभर यूँही दिलों को समझा कर टाला।

मगर शाम होते ही उनको क़ुव्वत-ए-इस्तिदलाल ने जवाब दे दिया। उनके दिलों पर एक बेमानी बेबुनियाद मुह्मल ख़ौफ़ का ग़लबा हुआ और रात के साथ साथ ख़ौफ़ का ये एहसास मुश्किल होता गया, यहां तक कि नागिन खाना पकाने के लिए रसोई के कमरे में तन्हा न जा सकी। बाहर का दरवाज़ा ग़लती से खुला रह गया था मगर किसी एक की हिम्मत न पड़ती थी कि जाकर दरवाज़ा बंद कर आए, आख़िर नागिन ने हाथ में चिराग़ लिया, मुंशी जी ने कुल्हाड़ा लिया, और राम ग़ुलाम ने गंडासा। इस क़ता से तीनों आदमी चौंकते हिचकिचाते दरवाज़े तक आए। यहां मुंशी जी ने बड़ी जुर्रत से काम लिया। उन्होंने बेधड़क दरवाज़े से निकलने की कोशिश की और काँपती हुई मगर बुलंद आवाज़ में नागिन से बोले, तुम नाहक़ डरती हो क्या। यहां वो बैठी है… मगर वफ़ादार नागिन ने उन्हें अंदर खींच लिया और ख़फ़ा हो कर बोलीं, तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं।

ये मुहिम फ़तह करने के बाद तीनों आदमी रसोई के कमरे में आए और खाना पकाना शुरू हुआ।

मगर मूंगा उनकी आँखों में घुसी हुई थी। अपनी परछाई को देखकर मूंगा का गुमान होता था, अंधेरे कोनों में मूंगा बैठी हुई थी। वही हड्डियों का ढांचा, वही झंडोले बाल, वही वहशत, वही डरावनी आँखें, मूंगा का मुख सुख दिखाई देता था। उसी कमरे में आटे दाल के कई मटके रखे हुए थे, वहीं कुछ पुराने चीथड़े भी रखे हुए थे, एक चूहे को भूक ने बेचैन किया, मटकों ने कभी अनाज की सूरत नहीं देखी थी मगर सारे गांव में मशहूर था कि घर के चूहे ग़ज़ब के डाकू हैं। वो उन दानों की तलाश में जो मटकों से कभी नहीं गिरे थे, रेंगता हुआ उस चीथड़े के नीचे आ निकला… कपड़े में हरकत हुई… फैले हुए चीथड़े मूंगा की पतली टांगें बन गए… नागिन देखते ही झिजकी और चीख़ उठी, मुंशी जी बदहवास हो कर दरवाज़े की तरफ़ लपके, राम ग़ुलाम दौड़ कर टांगों से लिपट गया। बारे चूहा बाहर निकल गया। उसे देखकर उन लोगों के होश बजा हुए। अब मुंशी जी मर्दाना क़दम उठाए मटके की तरफ़ चले।

नागिन ने तंज़ से कहा, रहने भी दो, देख ली तुम्हारी मर्दुमी।

मुंशी जी वफ़ादार नागिन की इस नाक़द्री पर बहुत बिगड़े, क्या तुम समझती हो, डर गया, भला डर की क्या बात थी, मूंगा मर गई अब क्या वो बैठी है। कल मैं दरवाज़े के बाहर निकल गया था, तुम रोकती रहीं और मैं न माना।

मुंशी जी की इस ज़बरदस्त दलील ने नागिन को लाजवाब कर दिया। कल दरवाज़े के बाहर निकल जाना या निकलने की कोशिश करना मामूली काम न था जिसकी जुर्रत का ऐसा सबूत मिल चुका हो उसे बुज़दिल कौन कह सकता है। ये नागिन की हटधर्मी थी।

खाना खा कर तीनों आदमी सोने के मकान में आए लेकिन मूंगा ने यहां भी पीछा न छोड़ा। बातें करते थे, दिल बहलाते थे नागिन ने राजा हरदोल और रानी सारन्धा की कहानियां कहीं, मुंशी जी ने चंद मुक़द्दमात की तफ़्सील बयान की मगर तदबीरों के बावजूद मूंगा की तस्वीर आँखों के सामने से दूर न होती थी। ज़रा किवाड़ खड़का और दोनों चौंक पड़े, पत्तों में सनसाहट हुई और दोनों के रौंगटे खड़े हो गए। और रह-रह कर एक मद्धम आवाज़ न जाने कहाँ से शायद आसमान के ऊपर या ज़मीन के नीचे से उनके कानों में आती थी।

मैं तेरा ख़ून पियूँगी।

आधी रात को नागिन आलम-ए-ग़ुनूदगी से चौंकी, वो ग़रीब उन दिनों हामिला थी। सुर्ख़ आतिशीं आँखों वाली तेज़ नुकीले दाँतों वाली मूंगा उसके सीने पर बैठी हुई थी, नागिन चीख़ मार कर उठी, एक आलम-ए-वहशत में भाग कर आँगन में आई और फ़र्त-ए-हरास से ज़मीन पर गिर पड़ी। सारा बदन पसीने में डूबा हुआ था। मुंशी जी ने भी उसकी चीख़ सुनी। मगर ख़ौफ़ के मारे आँखें न खोलीं। अंधों की तरह दरवाज़ा टटोलते रहे। बहुत देर के बाद उन्हें दरवाज़ा मिला। आँगन में आए, नागिन ज़मीन पर पड़ी हाथ पांव पटक रही थी। उसे उठा कर अंदर लाए। मगर रात भर उसने आँखें न खोलीं। सुब्ह को हड्डियां पकने लगीं, थोड़ी देर में बुख़ार हो आया जिस्म सुर्ख़ तवा हो गया। शाम होते होते सरसाम हुआ और आधी रात के वक़्त जब हर तरफ़ सन्नाटा हुआ था नागिन इस दुनिया से चल बसी।

रात गुज़र गई दिन चढ़ता आता था मगर गांव का कोई आदमी लाश उठाने के लिए दरवाज़े पर ना आता था। मुंशी जी घर-घर घूमे मगर कोई न निकला। हत्यारे के दरवाज़े पर कौन आए। हत्यारे की लाश कौन उठाए। मुंशी जी का रोब उनके ख़ूँख़ार क़लम का ख़ौफ़ और क़ानूनी मस्लिहत आमेज़ियां कुछ भी कारगर न हुआ। चारों तरफ़ से हार के मुंशी जी फिर अपने ख़ाना तारीक में आए। मगर अन्दर क़दम नहीं रखा जाता था न बाहर खड़े रह सकते थे। बाहर मूंगा अंदर नागिन दिल पर बहुत जब्र करके हनुमान चालीसा का विर्द करते हुए वो मकान में गए, उस वक़्त उनके दिल पर जो गुज़र रही थी उसका अंदाज़ा करना मुश्किल है। घर में लाश पड़ी हुई न कोई आगे न पीछे। दूसरी शादी तो हो सकती है। अभी इसी फागुन में तो पचासवां साल है। मगर ऐसी ज़बान दराज़ ख़ुशबयान औरत कहाँ मिलेगी। अफ़सोस कि अब तक़ाज़ा करने वालों से बहस कौन करेगा। कौन उन्हें लाजवाब करेगा, लेन-देन हिसाब कौन इतनी ख़ूबी से करेगा। किस की आवाज़ बुलंद तीर की तरह अहल-ए-तक़ाज़ा के सीनों में चुभेगी। इस नुक़्सान की तलाफ़ी अब मुम्किन नहीं।

दूसरे दिन मुंशी जी लाश को एक ठेले पर लाद कर गंगा जी की तरफ़ चले, अज़ादारों की तादाद बहुत मुख़्तसर थी, एक मुंशी जी और दूसरा राम ग़ुलाम। इस हैबत कज़ाई से मूंगा की लाश भी नहीं उठी थी।

मगर मूंगा ने नागिन की जान लेकर भी मुंशी जी का पिंड न छोड़ा। लैला की तस्वीर मजनूं के पर्दा-ए-दिमाग़ पर ऐसे शोख़ रंगों में शायद ही खींची हो। आठों पहर उनका ख़याल उसी तरफ़ लगा रहता था। अगर दिल बहलाने को कोई ज़रिया होता तो शायद उन्हें इतनी परेशानी न होती। मगर गांव का कोई ज़ी-रूह उनके दरवाज़े की तरफ़ झाँकता भी न था। ग़रीब अपने हाथों पानी भरते, ख़ुद बर्तन धोते। ग़म व ग़ुस्सा, फ़िक्र और ख़ौफ़-ए-दुनिया के मुक़ाबले में एक दिमाग़ कब तक ठहर सकता था, ख़ुसूसन वो दिमाग़ जो रोज़ाना क़ानूनी मुबाहिसों में सिर्फ़ तब्ख़ीर हो जाता हो।

कुंज-ए-तन्हाई के दस बारह दिन जूं तूं करके कटे। चौदहवें दिन मुंशी जी ने कपड़े बदले और बस्ता लिए हुए कचहरी चले, आज उनका चेहरा कुछ रौशन था। जाते ही मेरे मुवक्किल मुझे घेर लेंगे। मातमपुर्सी करेंगे। मैं आँसूओं के दो-चार क़तरे गिरा दूंगा। फिर बैनामों, रहन नामों, सुलह नामों वग़ैरा का एक तूफ़ान बल्कि सैलाब सामने आजाएगा। ये ख़याल उन्हें ख़ुश किए हुए था। मुट्ठियाँ गर्म होंगी। रुपये की सूरत नज़र आएगी। शाम को ज़रा शुग़्ल हो जाएगा। उसके छूटने से तो जी और भी उचाट था। इन्हीं ख़यालों में सर ख़ुश मुंशी जी कचहरी पहुंचे।

मगर वहां रहन नामों के तूफ़ान, बैनामों के सैलाब और मुवक्किलों की चहल-पहल के बदले मायूसी का एक कफ़-ए-दस्त हौसला शिकन रेगिस्तान नज़र आया, बस्ता खोले घंटों बैठे रहे। मगर कोई मुख़ातिब न हुआ। किसी ने ये भी न पूछा कि मिज़ाज कैसा है। नए मुवक्किल तो ख़ैर बड़े बड़े पुराने मुवक्किल जिनका मुंशी जी के पुश्तों से ताल्लुक़ चला आता था आज उनसे गुरेज़ करने लगे। वो नालायक़ और बदतमीज़ रमज़ान ख़ां कैसा बेशऊर आदमी था इमला तक ग़लत लिखता था। मुंशी जी हर रोज़ उसका मज़हका उड़ाते थे मगर आज सैंकड़ों आदमी उसे घेरे हुए थे। बेतमीज़ गोपियों में कन्हैया बना हुआ था। वाह री क़िस्मत मुवक्किल कम्बख़्त यूं मुँह फेरते चले जाते हैं, गोया कभी की जान पहचान नहीं।

दिन-भर मुवक्किलों का इंतिज़ार करने के बाद शाम को अपने घर की तरफ़ चले, पिसर मुर्दा मायूस, मुतफ़क्किर और जूँ-जूँ घर नज़दीक आता था मूंगा की तस्वीर सामने आती जाती थी। यहां तक कि जब शाम को घर पहुंच कर दरवाज़ा खोला और दो कुत्ते जिन्हें राम ग़ुलाम ने शरारतन बंद कर रखा था। झपट कर बाहर निकले तो मुंशी जी के औसान ख़त्म हो गए एक चीख़ मार कर ज़मीन पर गिर पड़े।

इन्सान का दिल और दिमाग़ ख़ौफ़ से जिस क़दर मुतास्सिर होता है उतना और किसी ताक़त से नहीं। मुहब्बत, अफ़सोस, मायूसी, जुदाई, नुक़्सान ये सब दिल पर कुछ न कुछ असर करते हैं।

मगर ये असरात हल्के हल्के झोंके हैं और ख़ौफ़ का असर तूफ़ान है। मुंशी राम सेवक पर बाद को क्या गुज़री मालूम नहीं। कई दिन तक लोगों ने उन्हें रोज़ाना कचहरी जाते हुए वहां से अफ़्सुर्दा व पज़्मुर्दा लौटते देखा। कचहरी जाना उन का फ़र्ज़ था और गो वहां मुवक्किलों का क़हत था मगर तक़ाज़े वालों से गला छुड़ाने और उन्हें इत्मिनान के लिए अब यही एक लटका रह गया था।

उसके बाद वो कई माह तक नज़र न आए। बद्रीनाथ चले गए।

एक दिन गांव में एक साधू आया। भभूत रमाए, लंबी लंबी जटाएं हाथ में कमंडल… उसकी सूरत मुंशी राम सेवक से मिलती जुलती थी… आवाज़ और रफ़्तार में भी ज़्यादा फ़र्क़ न था। वो एक पेड़ के नीचे धूनी रमाए बैठा रहा। उसी रात को मुंशी राम सेवक के घर से धुआँ उठा। फिर शोले नज़र आए और आग भड़क उठी। नागिन की आतिश तक़रीर कभी इस घर में भड़कती थी… गांव के सैंकड़ों आदमी दौड़े गए। आग बुझाने के लिए नहीं… तमाशा देखने के लिए… एक बेकस की आह में कितना असर है।

साहिबज़ादा राम ग़ुलाम मुंशी जी के ग़ायब हो जाने पर अपने मामूं के यहां चले गए… और वहां कुछ दिन रहे। मगर वहां उनकी ख़ुश फ़ेलियाँ नापसंद की गईं… एक रोज़ आपने किसी के खेत से हौले नोचे और उसने दो-चार धौल लगाए। इस पर आप इस क़दर ब्रहम हुए कि जब उसके चने खलियान में आए तो जाकर आग लगादी… एक के पीछे सारा खलियान जल कर राख हो गया। हज़ारों रुपये का नुक़्सान हुआ। पुलिस ने तहक़ीक़ात की… हज़रत गिरफ़्तार हुए… अपने क़ुसूर का इक़बाल किया… और अब चुनार के रिफ़ार्मेटरी स्कूल में मौजूद हैं।

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