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नयी बीवी (प्रेमचंद की कहानी)

Premchand’s story : हमारा जिस्म पुराना है लेकिन इस में हमेशा नया ख़ून दौड़ता रहता है। इस नए ख़ून पर ज़िंदगी क़ायम है। दुनिया के क़दीम निज़ाम में ये नयापन उसके एक एक ज़र्रे में, एक-एक टहनी में, एक-एक क़तरे में, तार में छुपे हुए नग़मे की तरह गूँजता रहता है और ये सौ साल की बुढ़िया आज भी नई दुल्हन बनी हुई है।

जब से लाला डंगा मल ने नई शादी की है उनकी जवानी अज़ सर-ए-नौ ऊ’द कर आई है जब पहली बीवी ब-क़ैद-ए-हयात थी वो बहुत कम घर रहते थे। सुबह से दस ग्यारह बजे तक तो पूजापाट ही करते रहते थे। फिर खाना खा कर दुकान चले जाते। वहां से एक बजे रात को लौटते और थके-माँदे सो जाते। अगर लीला कभी कहती कि ज़रा और सवेरे आ जाया करो तो बिगड़ जाते, “तुम्हारे लिए क्या दुकान बंद कर दूं या रोज़गार छोड़ दूं। ये वो ज़माना नहीं है कि एक लोटा जल चढ़ा कर लक्ष्मी को ख़ुश कर लिया जाये। आजकल लक्ष्मी की चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता है तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता।” लीला बेचारी ख़ामोश हो जाती।

अभी छः महीने की बात है। लीला को ज़ोर का बुख़ार था लाला जी दुकान पर चलने लगे तो लीला ने डरते-डरते कहा… “देखो मेरी तबीय’त अच्छी नहीं है ज़रा सवेरे आ जाना।”

लाला जी ने पगड़ी उतार कर खूँटी पर लटका दी और बोले… “अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाये तो मैं दुकान न जाऊँगा।”

लीला रंजीदा हो कर बोली, “मैं ये कब कहती हूँ कि तुम दुकान न जाओ मैं तो ज़रा सवेरे आ जाने को कहती हूँ।”

“तो क्या मैं दुकान पर बैठा मौज करता हूँ?”

लीला कुछ न बोली। शौहर की ये बे-ए’तिनाई उसके लिए कोई नई बात न थी। इधर कई दिन से इस का दिल-दोज़ तजुर्बा हो रहा था कि इस घर में उसकी क़दर नहीं है, अगर उसकी जवानी ढल चुकी थी तो उसका क्या क़सूर था किस की जवानी हमेशा रहती है। लाज़िम तो ये था कि पचपन साल की रिफ़ाक़त अब एक गहरे रुहानी ता’ल्लुक़ में तब्दील हो जाती जो ज़ाहिर से बेनयाज़ रहती है। जो ऐ’ब को भी हुस्न देखने लगती है, जो पके फल की तरह ज़्यादा शीरीं ज़्यादा ख़ुशनुमा हो जाती है। लेकिन लाला जी का ताजिर दिल हर एक चीज़ को तिजारत के तराज़ू पर तौलता था। बूढ़ी गाय जब न दूध दे सकती हो न बच्चे तो उसके लिए गउशाला से बेहतर कोई जगह नहीं। उनके ख़्याल में लीला के लिए बस इतना ही काफ़ी था कि वो घर की मालकिन बनी रहे, आराम से खाए पहने पड़ी रहे। उसे इख़्तियार है चाहे जितने ज़ेवर बनवाए चाहे जितनी ख़ैरात और पूजा करे रोज़े रखे, सिर्फ उनसे दूर रहे। फ़ित्रत-ए-इन्सानी की नैरंगियों का एक करिश्मा ये था कि लाला जी जिस दिलजोई और हज़ से लीला को महरूम रखना चाहते थे। ख़ुद उसी के लिए अबलहाना सरगर्मी से मुतलाशी रहते थे। लीला चालीस की हो कर बूढ़ी समझ ली गई थी मगर वो पैंतालीस साल के हो कर अभी जवान थे। जवानी के वलवलों और मसर्रतों से बेक़रार लीला से अब उन्हें एक तरह की कराहियत होती थी और वो ग़रीब जब अपनी ख़ामियों के हसरतनाक एहसास की वजह से फ़ित्री बे रहमियों के अज़ाले के लिए रंग-ओ-रोग़न की आड़ लेती तो वो उस की बुअलहोसी से और भी मुतनफ़्फ़िर हो जाते, “चे ख़ुश। सात लड़कों की तो माँ हो गईं, बाल खिचड़ी हो गए चेहरा धुले हुए फ़लालैन की तरह पुर शिकन हो गया। मगर आपको अभी महावर और सींदूर मेहंदी और उबटन की हवस बाक़ी है ,औरतों की भी क्या फ़ित्रत है। न जाने क्यों आराइश पर इस क़दर जान देती हैं। पूछो अब तुम्हें और क्या चाहिए? क्यों नहीं दिल को समझा लेतीं कि जवानी रुख़्सत हो गई और उन तदबीरों से उसे वापस नहीं बुलाया जा सकता।” लेकिन वो ख़ुद जवानी का ख़्वाब देखते रहते थे। तबीय’त जवानी से सेर न होती जाड़ों में कुश्तों और मा’जूनों का इस्ति’माल करते रहते थे। हफ़्ते में दो बार ख़िज़ाब लगाते और किसी डाक्टर से बंदर के ग़दूदों के इस्ति’माल से मुता’ल्लिक़ ख़त-ओ-किताबत कर रहे थे।

लीला ने उन्हें शश-ओ-पंज की हालत में खड़ा देखकर मायूसाना अंदाज़ से कहा, “कुछ बतला सकते हो कै बजे आओगे?”

लाला जी ने मुलायम लहजे में कहा… “तुम्हारी तबीय’त आज कैसी है?”

लीला क्या जवाब दे? अगर कहती है बहुत ख़राब है तो शायद ये हज़रत यहीं बैठ जाएं और उसे जली कटी सुना कर अपने दिल का बुख़ार निकालें। अगर कहती है अच्छी हूँ तो बेफ़िक्र हो कर दो बजे रात की ख़बर लाएं। डरते डरते बोली… “अब तक तो अच्छी थी लेकिन अब कुछ भारी हो रही है। लेकिन तुम जाओ दुकान पर लोग तुम्हारे मुंतज़िर होंगे। मगर ईश्वर के लिए एक दो न बजा देना, लड़के सो जाते हैं, मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगता, तबीय’त घबराती है।”

सेठ जी ने लहजे में मुहब्बत की चाशनी देकर कहा, “बारह बजे तक आजाऊँगा, ज़रूर।”

लीला का चेहरा उतर गया, “दस बजे तक नहीं आ सकते?”

“साढे़ ग्यारह बजे से पहले किसी तरह नहीं।”

“साढे़ दस भी नहीं।”

“अच्छा ग्यारह बजे।”

ग्यारह पर मुसालहत हो गई। लाला जी वाअ’दा कर के चले गए लेकिन शाम को एक दोस्त ने मुजरा सुनने की दावत दी। अब बिचारे इस दा’वत को कैसे रद्द करते जब एक आदमी आपको ख़ातिर से बुलाता है तो ये कहाँ की इन्सानियत है कि आप उसकी दा’वत नामंज़ूर कर दें। वो आपसे कुछ मांगता नहीं, आपसे किसी तरह की रिआ’यत का ख़्वास्तगार नहीं, महज़ दोस्ताना बेतकल्लुफ़ी से आपको अपनी बज़्म में शिरकत की दा’वत देता है, आप पर उसकी दा’वत क़बूल करना ज़रूरी हो जाता है। घर के जंजाल से किसे फ़ुर्सत है एक न एक काम तो रोज़ लगा ही रहता है। कभी कोई बीमार है ,कभी मेहमान आए हैं, कभी पूजा है, कभी कुछ कभी कुछ । अगर आदमी ये सोचे कि घर से बेफ़िक्र हो कर जाऐंगे तो उसे सारे दोस्ताना मरासिम मुनक़ते’ कर लेने पड़ेंगे। उसे शायद ही घर से कभी फ़राग़त नसीब हो। लाला जी मुजरा सुनने चले गए तो दो बजे लौटे। आते ही अपने कमरे की घड़ी की सूईयां पीछे कर दीं। लेकिन एक घंटा से ज़्यादा की गुंजाइश किसी तरह न निकाल सके दो को एक तो कह सकते हैं, घड़ी की तेज़ी के सर इल्ज़ाम रखा जा सकता है लेकिन दो को बारह नहीं कह सकते। चुपके से आकर नौकर को जगाया खाना खा कर आए थे अपने कमरे में जा कर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती, हर लम्हा दर्द और बेचैनी की बढ़ती हुई शिद्दत का एहसास करती न जाने कब सो गई थी। उस को जगाना सोए फ़ित्ना को जगाना था।

ग़रीब लीला इस बीमारी से जांबर न हो सकी। लाला जी को उसकी वफ़ात का बेहद रुहानी सद्मा हुआ। दोस्तों ने ता’ज़ियत के तार भेजे कई दिन ता’ज़ियत करने वालों का ताँता बंधा रहा। एक रोज़ाना अख़बार ने मरने वाली की क़सीदा ख्वानी करते हुए उसकी दिमाग़ी और अख़लाक़ी ख़ूबियों की मुबालग़ा आमेज़ तस्वीर खींची। लाला जी ने उन सब हमदर्दों का दिली शुक्रिया अदा किया और उनके ख़ुलूस-ओ-वफ़ादारी का इज़हार जन्नत नसीब लीला के नाम से लड़कियों के लिए पाँच वज़ीफ़े क़ायम करने की सूरत में नमूदार हुआ। वो नहीं मरीं साहिब मैं मर गया। ज़िंदगी की शम्मा’-ए-हिदायत गुल हो गई। अब तो जीना और रोना है, मैं तो एक हक़ीर इन्सान था। न जाने किस कार-ए-ख़ैर के सिले में मुझे ये नेअ’मत बारगाह-ए-एज़दी से अ’ता हुई थी। मैं तो उसकी परस्तिश करने के क़ाबिल भी न था…वग़ैरा।

छः महीने की उज़लत और नफ्सकुशी के बाद लाला डंगा मल ने दोस्तों के इसरार से दूसरी शादी कर ली। आख़िर ग़रीब क्या करते। ज़िंदगी में एक रफ़ीक़ की ज़रूरत तो जब ही होती है जब पांव में खड़े होने की ताक़त नहीं रहती।

जब से नई बीवी आई है। लाला जी की ज़िंदगी में हैरत-अंगेज़ इन्क़िलाब हो गया है। दुकान से अब उन्हें इस क़दर इन्हिमाक नहीं है। मुतवातिर हफ़्तों न जाने से भी उनके कारोबार में कोई हर्ज वाक़े’ नहीं होता। ज़िंदगी से लुत्फ़ अंदोज़ होने की सलाहियत जो उनमें रोज़ बरोज़ मुज़्महिल होती जाती थी। अब ये तरश्शा पाकर फिर सरसब्ज़ हो गई है, उस में नई-नई कोंपलें फूटने लगी हैं। मोटर नया आ गया है कमरे नए फ़र्नीचर से आरास्ता कर दिए गए हैं, नौकरों की तादाद में मा’क़ूल इज़ाफ़ा हो गया है। रेडियो भी लगा दिया गया है लाला जी की बूढ़ी जवानी जवानों से भी ज़्यादा पुर जोश और वलवला अंगेज़ हो रही है। उसी तरह जैसे बिजली की रोशनी चांद की रोशनी से ज़्यादा शफ़्फ़ाफ़ और नज़रफ़रेब होती है, लाला जी को उनके अहबाब उनकी इस जवान तबई’ पर मुबारकबाद देते हैं तो वो तफ़ाख़ुर के अंदाज़ से कहते हैं, भई हम तो हमेशा जवान रहे और हमेशा जवान रहेंगे। बुढ़ापा मेरे पास आए तो उसके मुँह पर स्याही लगा कर गधे पर उल्टा सवार करके शहर-बदर करदूं ,जवानी और बुढ़ापे को लोग न जाने उ’म्र से क्यों मंसूब करते हैं। जवानी का उ’म्र से इतना ही ता’ल्लुक़ है जितना मज़हब का अख़लाक़ से, रुपये का ईमानदारी से, हुस्न का आराइश से, आजकल के जवानों को आप जवान कहते हैं, अरे साहिब में उनकी एक हज़ार जवानियों को अपनी जवानी के एक घंटा से न तब्दील करूँ। मा’लूम होता है ज़िंदगी में कोई दिलचस्पी ही नहीं कोई शौक़ ही नहीं, ज़िंदगी क्या है गले में पड़ा हुआ ढोल है।” यही अलफ़ाज़ वो कुछ ज़रूरी तर्मीम के बाद आशा देवी के लौह-ए-दिल पर नक़्श करते रहते हैं। इससे हमेशा सिनेमा, थिएटर, सैर-ए-दरिया के लिए इसरार करते हैं लेकिन आशा न जाने क्यों इन दिलचस्पियों से ज़रा भी मुतास्सिर नहीं, वो जाती तो है मगर बहुत इसरार के बाद।

एक दिन लाला जी ने आकर कहा, “चलो आज बजरे पर दरिया के सैर कर आएं।”

बारिश के दिन थे, दरिया चढ़ा हुआ था। अब्र की क़तारें बैन-उल-अक़वामी फ़ौजों की सी रंग बिरंग वर्दियां पहने आसमान पर क़वाइद कर रही थीं, सड़क पर लोग मलार और बारह मासे गाते चले जा रहे थे। बाग़ों में झूले पड़ गए थे।

आशा ने बेदिली से कहा, “मेरा तो जी नहीं चाहता।”

लाला जी ने तादीब आमेज़ इसरार से कहा… “तुम्हारी कैसी तबीय’त है जो सैर-ओ-तफ़रीह की जानिब माइल नहीं होती।”

“आप जाएं, मुझे और कई काम करने हैं।”

काम करने को ईश्वर ने आदमी दे दिये हैं। तुम्हें काम करने की क्या ज़रूरत है?”

“महराज अच्छा सालन नहीं पकाता, आप खाने बैठेंगे तो यूँही उठ जाऐंगे।”

आशा अपनी फ़ुर्सत का बेशतर हिस्सा लाला जी के लिए अन्वाअ’ इक़्साम के खाने पकाने में सर्फ़ करती थी, किसी से सुन रखा था कि एक ख़ास उ’म्र के बाद मर्दों की ज़िंदगी की ख़ास दिलचस्पी लज़्ज़त-ए-ज़बान रह जाती है। लाला जी के दिल की कली खिल गई। आशा को उनसे किस क़द्र मोहब्बत है कि वो सैर को उनकी ख़िदमत पर क़ुर्बान कर रही है। एक लीला थी कि कहीं जाऊं पीछे चलने को तैयार, पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। बहाने करने पड़ते थे, ख़्वाह-मख़ाह सर पर सवार हो जाती थी और सारा मज़ा किर किरा कर देती थी। बोले, “तुम्हारी भी अ’जीब तबीय’त है अगर एक दिन सालन बे मज़ा ही रहा तो ऐसा क्या तूफ़ान आ जाएगा, तुम इस तरह मेरे रईसाना चोंचलों का लिहाज़ करती रहोगी तो मुझे बिल्कुल आराम तलब बना दोगी। अगर तुम न चलोगी तो मैं भी न जाऊँगा।”

आशा ने जैसे गले से फंदा छुड़ाते हुए कहा, “आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा कर मेरा मिज़ाज बिगाड़े देते हैं। ये आ’दत पड़ जाएगी तो घर के धंदे कौन करेगा?”

लाला जी ने फ़य्याज़ाना लहजे में कहा, “मुझे घर के धंदों की ज़र्रा बराबर पर्वा नहीं है, बाल की नोक बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिज़ाज बिगड़े और तुम इस घर की चक्की से दूर हो और मुझे बार-बार ‘आप’ क्यों कहती हो? मैं चाहता हूँ तुम मुझे ‘तुम’ कहो। मुहब्बत की गालियां दो, ग़ुस्से की सलवातें सुनाओ। लेकिन तुम मुझे आप कह कर जैसे देवता के सिंघासन पर बिठा देती हो, मैं अपने घर में देवता नहीं शरीर छोकरा बन कर रहना चाहता हूँ।”

आशा ने मुस्कुराने की कोशिश कर के कहा… “ए नौज, भला में आपको ‘तुम’ कहूँगी। तुम बराबर वालों को कहा जाता है या बड़ों को?”

मुनीम जी ने एक लाख के घाटे की पुरमलाल ख़बर सुनाई होती तब भी लाला जी को शायद इतना सद्मा न होता जितना कि आशा के इन भोले-भोले अलफ़ाज़ से हुआ, उनका सारा जोश सारा वलवला ठंडा पड़ गया जैसे बर्फ़ की तरह मुंजमिद हो गया। सर पर बाक़ी रखी हुई रंगीन फूलदार टोपी गले में पड़ी हुई जोगिये रंग की रेशमी चादर, वो तनजे़ब का बेलदार कुरता जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे। ये सारा ठाट जैसे मज़हकाख़ेज़ मा’लूम होने लगा। जैसे सारा नशा किसी मंत्र से उतर गया हो।

दिल-शिकस्ता हो कर बोले, “तो तुम्हें चलना है या नहीं?”

“मेरा जी नहीं चाहता।”

“तो मैं भी न जाऊं?”

“मैं आपको कब मना करती हूँ।”

“फिर आप, कहा।”

आशा ने जैसे अंदर से ज़ोर लगा कर कहा, ‘तुम’ और उसका चेहरा शर्म से सुर्ख़ हो गया।

“हाँ इसी तरह तुम कहा करो। तो तुम नहीं चल रही हो? अगर मैं कहूं कि तुम्हें चलना पड़ेगा। तब?”

“तब चलूंगी, आपके हुक्म की पाबंदी मेरा फ़र्ज़ है।”

लाला जी हुक्म न दे सके, फ़र्ज़ और हुक्म जैसे लफ़्ज़ से उनके कानों में ख़राश सी होने लगी ख़िसयाने हो कर बाहर चले। उस वक़्त आशा को उन पर रहम आगया। बोली, “तो कब तक लौटोगे?”

“मैं नहीं जा रहा हूँ।”

“अच्छा तो मैं भी चलती हूँ।”

जिस तरह कोई ज़िद्दी लड़का रोने के बाद अपनी मत्लूबा चीज़ पा कर उसे पैरों से ठुकरा देता है उसी तरह लाला जी ने रोना मुँह बना कर कहा, “तुम्हारा जी नहीं चाहता तो न चलो। मैं मजबूर नहीं करता।”

“आप… नहीं तुम बुरा मान जाओगे।”

आशा सैर करने गई लेकिन उमंग से नहीं जो मा’मूली सारी पहने हुए थी, वही पहने चल खड़ी हुई। न कोई नफ़ीस साड़ी न कोई मुरस्सा’ ज़ेवर, न कोई सिंगार जैसे बेवा हो।

ऐसी ही बातों से लाला जी दिल में झुँझला उठते थे। शादी की थी ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए चिराग़ में तेल डाल कर उसे रोशन करने लिए, अगर चिराग़ की रोशनी तेज़ न हुई तो तेल डालने से क्या फ़ायदा? न जाने उसकी तबीय’त क्यों इस क़दर ख़ुश्क और अफ़्सुर्दा है, जैसे कोई ऊसर का दरख़्त हो कि कितना ही पानी डालो उसमें हरी पत्तियों के दर्शन ही नहीं होते, जड़ाऊं ज़ेवरों के भरे हुए संदूक़ रखे हैं, कहाँ-कहाँ से मंगवाए, दिल्ली से, कलकत्ते से, फ़्रांस से, कैसी कैसी बेशक़ीमत साड़ियां रखी हुई हैं, एक नहीं सैंकड़ों मगर संदूक़ में कीड़ों की ख़ुराक बनने के लिए ,ग़रीब ख़ानदान की लड़योंकि में यही ऐ’ब होता है, उनकी निगाह हमेशा तंग रहती है, न खा सकें न पहन सकें, न दे सकें, उन्हें तो ख़ज़ाना भी मिल जाये तो यही सोचती रहेंगी कि भला उसे ख़र्च कैसे करें।

दरिया की सैर तो हुई मगर कुछ लुत्फ़ न आया।

कई माह तक आशा की तबीय’त को उभारने की नाकाम कोशिश कर के लाला जी ने समझ लिया कि ये मुहर्रम की पैदाइश है। लेकिन फिर भी बराबर मश्क़ जारी रखी। इस व्यपार में एक ख़तीर रक़म सिर्फ़ करने के बाद वो इस से ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा उठाने के ताजिराना तक़ाज़े को कैसे नज़रअंदाज करते, दिलचस्पी की नई-नई सूरतें पैदा की जातीं ,ग्रामोफोन अगर बिगड़ गया है, गाता नहीं। या आवाज़ साफ़ नहीं निकलता तो उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। उसे उठा कर रख देना तो हिमाक़त है।

उधर बूढ़ा महराज बीमार हो कर चला गया था और उसकी जगह उसका सोलह-सत्रह साल का लड़का आगया था, कुछ अ’जीब मसख़रा सा, बिल्कुल उजड्ड और दहक़ानी, कोई बात ही न समझता उसके फुल्के इक़लीदस की शक्लों से भी ज़्यादा मुख्तलिफुल अश्काल हो जाते बीच में मोटे, किनारे पतले, दाल कभी तो इतनी पतली जैसे चाय और कभी इतनी गाढ़ी जैसे दही, कभी नमक इतना कम कि बिल्कुल फीका कभी तो इतना तेज़ कि नीबू का नमकीन अचार। आशा सवेरे ही से रसोई में पहुंच जाती और उस बद सलीक़े महराज को खाना पकाना सिखाती, “तुम कितने नालायक़ आदमी हो जुगल? इतनी उ’म्र तक तुम क्या घास खोदते रहे या भाड़ झोंकते रहे कि फुल्के तक नहीं बना सकते।”

जुगल आँखों में आँसू भर कर कहता है, “बहू जी अभी मेरी उ’म्र ही क्या है। सतरहवां ही साल तो है।”

आशा हंस पड़ी, “तो रोटियाँ पकाना क्या दस-बीस साल में आता है?”

“आप एक महीना सिखा दें बहूजी, फिर देखना में आपको कैसे फुल्के खिलाता हूँ कि जी ख़ुश हो जाये। जिस दिन मुझे फुल्के बनाने आजाऐंगे मैं आपसे कोई इनाम लूँगा। सालन तो अब कुछ पकाने लगा हूँ ना?”

आशा हौसला अफ़्ज़ा तबस्सुम से बोली, “सालन नहीं दवा पकाना आता है अभी कल ही नमक इतना तेज़ था कि खाया ना गया।”

“मैं जब सालन बना रहा था तो आप यहां कब थीं?”

“अच्छा तो जब मैं यहां बैठी रहूं। तब तुम्हारा सालन लज़ीज़ पकेगा?”

“आप बैठी रहती हैं तो मेरी अक़ल ठिकाने रहती है।”

“और में नहीं रहती तब?”

“तब तो आपके कमरे के दरवाज़े पर जा बैठती है।”

“तुम्हारे दादा आ जाऐंगे तो तुम चले जाओगे?”

“नहीं बहू जी किसी और काम में लगा दीजिएगा। मुझे मोटर चलवाना सिखवा दीजिएगा। नहीं, नहीं आप हट जाईए में पतीली उतार लूंगा। ऐसी अच्छी साड़ी आपकी कहीं दाग़ लग जाये तो क्या हो?”

“दूर हो, फूहड़ तो तुम ही हो। कहीं पतीली पैर पर गिर पड़े तो महीनों झेलोगे।”

जुगल अफ़्सुर्दा हो गया। नहीफ़ चेहरा और भी ख़ुश्क हो गया।

आशा ने मुस्कुरा कर पूछा, “क्यों मुँह क्यों लटक गया सरकार का?”

“आप डाँट देती हैं बहूजी, तो मेरा दिल टूट जाता है, सेठ जी कितना ही घुड़कीं दें मुझे ज़रा भी सद्मा नहीं होता। आपकी नज़र कड़ी देखकर जैसे मेरा खून सर्द हो जाता है।”

आशा ने तशफ्फी दी, “मैंने तुम्हें डाँटा नहीं। सिर्फ इतना ही कहा कि कहीं पतीली तुम्हारे पांव पर गिर पड़े तो क्या होगा?”

“हाथ तो आपका भी है, कहीं आपके हाथ से ही छूट पड़े तब?”

सेठ जी ने रसोई के दरवाज़े पर आकर कहा, “आशा ज़रा यहां आना देखो तुम्हारे लिए कितने ख़ुशनुमा गमले लाया हूँ। तुम्हारे कमरे के सामने रखे जाऐंगे। तुम वहां धुंए धक्कड़ में क्या परेशान हो रही हो। लौंडे को कह दो कि महराज को बुलाए वर्ना मैं कोई दूसरा इंतिज़ाम करलूंगा। महराज की कमी नहीं है। आख़िर कब तक कोई रिआ’यत करे, इस गधे को ज़रा भी तो तमीज़ न आई। सुनता है जुगल, आज लिख दे अपने बाप को।” चूल्हे पर तवा रखा हुआ था, आशा रोटियाँ बेल रही थी, जुगल तवे को लिए रोटियों का इंतिज़ार कर रहा था। ऐसी हालत में भला वो कैसे गमले देखने जाती? कहने लगी, “अभी आती हूँ ज़रा रोटी बेल रही हूँ छोड़ दूँगी तो जुगल टेढ़ी-मेढ़ी बेलेगा।”

लाला जी ने कुछ चढ़ कर कहा, “अगर रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेलेगा तो निकाल दिया जाएगा।”

आशा अनसुनी करके बोली, “दस-पाँच दिन में सीख जाएगा। निकालने की क्या ज़रूरत है।”

“तुम चल कर बता दो गमले कहाँ रखे जाऐंगे?”

“कहती हूँ रोटियाँ बेल कर आई जाती हूँ।”

“नहीं मैं कहता हूँ तुम रोटियाँ मत बेलो।”

“तुम ख़्वाह-मख़ाह ज़िद करते हो।”

लाला जी सन्नाटे में आगए। आशा ने कभी इतनी बे-इल्तिफ़ाती से उन्हें जवाब न दिया था। और ये महज़ बे-इल्तिफ़ाती न थी इसमें तुर्शी भी थी, ख़फ़ीफ़ हो कर चले गए ।उन्हें ग़ुस्सा ऐसा आरहा था कि इन गमलों को तोड़ कर फेंक दें और सारे पौदों को चूल्हे में डाल दें।

जुगल ने सहमे हुए लहजे में कहा, “आप चली जातीं बहूजी, सरकार नाराज़ होंगे।”

“बको मत, जल्दी रोटियाँ सेंको, नहीं तो निकाल दिए जाओगे। और आज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बनवा लो भिक्मंगों की सी सूरत बनाए घूमते हो और बाल क्यों इतने बढ़ा रखे हैं। तुम्हें नाई भी नहीं जुड़ता?”

“कपड़े बनवा लूं तो दादा को क्या हिसाब दूँगा?”

“अरे बेवक़ूफ़, मैं हिसाब में नहीं देने को कहती मुझसे ले जाना।”

“आप बनवाईंगी तो अच्छे कपड़े लूँगा। मैं खद्दर का कुर्ता, खद्दर की धोती, रेशमी चादर और अच्छा सा चप्पल।”

आशा ने मिठास भरे तबस्सुम से कहा, “और अगर अपने दाम से बनवाना पड़े तो?”

“तब कपड़े बनवाऊंगा ही नहीं।”

“बड़े चालाक हो तुम।”

“आदमी अपने घर पर रूखी रोटी खा कर सो रहता है लेकिन दा’वत में अच्छे-अच्छे पकवान ही खाता है।”

“ये सब में नहीं जानती एक गाढे का कुर्ता बनवा लो और एक टोपी हजामत के लिए दो आने पैसे ले लो।”

रहने दीजिए, मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहन कर निकलूँगा तो आपकी याद आएगी। सड़ियल कपड़े हुए तो जी जलेगा।”

“तुम बड़े ख़ुद-ग़रज़ हो, मुफ़्त के कपड़े लोगे और आ’ला दर्जे के।”

“जब यहां से जाने लगूँगा तो आप मुझे अपनी तस्वीर दे दीजिएगा।”

“मेरी तस्वीर लेकर क्या करोगे?”

“अपनी कोठरी में लगा दूंगा और देखा करूँगा, बस वही साड़ी पहन कर खिंचवाना जो कल पहनी थी और वही मोतियों वाली माला भी हो। मुझे नंगी-नंगी सूरत अच्छी नहीं लगती आपके पास तो बहुत गहने होंगे आप पहनती क्यों नहीं?”

“तो तुम्हें गहने अच्छे लगते हैं?”

“बहुत।”

लाला जी ने ख़िफ़्फ़त आमेज़ लहजे में कहा, “अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकीं, जुगल अगर कल से तुमने अपने आप अच्छी रोटियाँ न बनाईं, तो मैं तुम्हें निकाल दूँगा?”

आशा ने फ़ौरन हाथ धोए और बड़ी मसर्रत आमेज़ तेज़ी से लाला जी के साथ जाकर गमलों को देखने लगी। आज उसके चेहरे पर ग़ैरमा’मूली शगुफ़्तगी नज़र आरही थी, उसके अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू में भी दिल-आवेज़ शीरीनी थी। लाला जी की सारी ख़िफ़्फ़त ग़ायब हो गई। आज उसकी बातें ज़बान से नहीं दिल से निकलती हुई मा’लूम हो रही थीं। बोली, “मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूँगी, सब मेरे कमरे के सामने रखवाना, सब कितने सुंदर पौदे हैं। वाह इनके हिन्दी नाम भी बता देना।”

लाला जी ने छेड़ा, “सब ले कर क्या करोगी? दस-पाँच पसंद कर लो बाक़ी बाहर बाग़ीचे में रखवा दूँगा।”

“जी नहीं मैं एक भी नहीं छोड़ूँगी, सब यहीं रखे जाऐंगे।”

“बड़ी हरीस हो तुम।”

“हरीस सही, मैं आपको एक भी न दूँगी।”

“दस-पाँच तो दे दो, इतनी मेहनत से लाया हूँ।”

“जी नहीं इनमें से एक भी न मिलेगा।”

दूसरे दिन आशा ने अपने को ज़ेवरों से ख़ूब आरास्ता किया और फ़ीरोज़ी साड़ी पहन कर निकली तो लाला जी की आँखों में नूर आगया। अब उनकी आ’शिक़ाना दिलजोइयों का कुछ असर हो रहा है ज़रूर, वर्ना उनके बार-बार तक़ाज़ा करने पर मिन्नत करने पर भी उसने कोई ज़ेवर न पहना था, कभी कभी मोतियों का हार गले में डाल लेती थी वो भी बेदिली से। आज उन ज़ेवरों से मुरस्सा हो कर वो फूली नहीं समाती। इतराती जाती है। गोया कहती है देखो में कितनी हसीन हूँ पहले जो कली थी वो आज खिल गई है।

लाला साहिब पर घड़ों का नशा चढ़ा हुआ है, वो चाहते हैं उनके अहबाब-ओ-अइ’ज़्जा आकर इस सोने की रानी के दीदार से अपनी आँखें रोशन करें,देखें कि उनकी ज़िंदगी कितनी पुर-लुत्फ़ है। जो अन्वा-ओ’-इक़साम के शकूक दुश्मनों के दिलों में पैदा हुए थे। आँखें खोल कर देखें कि ए’तिमाद, रवादारी और फ़िरासत ने कितना ख़ुलूस पैदा कर दिया है।

उन्होंने तजवीज़ की, “चलो कहीं सैर कर आएं। बड़ी मज़ेदार हवा चली रही है।”

आशा इस वक़्त कैसे आसकती है अभी उसे रसोई जाना है, वहां से कहीं बारह एक बजे तक फ़ुर्सत मिले फिर घर के काम धंदे सर पर सवार हो जाऐंगे, उसे कहाँ फ़ुर्सत है। फिर कल से उसके कलेजे में कुछ दर्द भी हो रहा है, रह-रह कर दर्द उठता है ऐसा दर्द कभी न होता था। रात न जाने क्यों दर्द होने लगा।

सेठ जी एक बात सोच कर दिल ही दिल में फूल उठे वो गोलीयां रंग ला रही हैं। राज वैद ने आख़िर कहा भी था कि ज़रा सोच समझ कर इसका इस्ति’माल कीजिएगा क्यों न हो ख़ानदानी वैद है। उसका बाप महाराजा बनारस का मुआ’लिज था, पुराने मुजर्रिब नुस्खे़ हैं उसके पास।

चेहरे पर सरासीमगी का रंग भर कर पूछा, “तो रात ही से दर्द हो रहा है। तुमने मुझसे कहा नहीं वर्ना वैद जी से कोई दवा मंगवा देता।”

“मैंने समझा था कि आप ही आप अच्छा हो जाएगा मगर अब बढ़ रहा है।”

“कहाँ दर्द हो रहा है? ज़रा देखूं तो कुछ आमास तो नहीं है?”

सेठ जी ने आशा के आँचल की तरफ़ हाथ बढ़ाया। आशा ने शर्मा कर सर झुका लिया और बोली, “यही तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। जा कर कोई दवा ला दो।”

सेठ जी अपनी जवाँमर्दी का ये डिप्लोमा पा कर उससे कहीं ज़्यादा महज़ूज़ हुए जितना शायद राय बहादुरी का ख़िताब पाकर होते, अपने इस कार-ए-नुमायां की दाद लिए बग़ैर उन्हें कैसे चैन हो जाता। जो लोग उनकी शादी से मुता’ल्लिक़ शुब्हा आमेज़ सरगोशियाँ करते थे उन्हें ज़क देने का कितना नादिर मौक़ा’ हाथ आया है, पहले पण्डित भोला नाथ के घर पहुंचे और बादल-ए- दर्द मंद बोले, “मैं तो भई सख़्त मुसीबत में मुब्तिला हो गया ,कल से उनके सीने में दर्द हो रहा है कुछ अक़्ल काम नहीं करती, कहती हैं ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ था।”

भोला नाथ ने कुछ ज़्यादा हमदर्दी का इज़्हार नहीं किया। बोले, “हवा लग गई होगी, और क्या?”

सेठ जी ने उनसे इख्तिलाफ़ किया, पंडित जी हवा का फ़साद नहीं है। कोई अंदरूनी शिकायत है। अभी कमसिन हैं ना? राज वैद से कोई दवा लिये लेता हूँ।”

“मैं तो समझता हूँ आप ही आप अच्छा हो जाएगा।”

“आप बात नहीं समझते यही आप में नुक़्स है।”

“आपका जो ख़्याल है वो बिल्कुल ग़लत है मगर खैर दवा ला कर दीजिए और अपने लिए भी दवा लेते आईएगा।”

सेठ यहां से उठकर अपने दूसरे दोस्त लाला फाग मिल के पास पहुंचे और उनसे भी क़रीब उन्हीं अलफ़ाज़ में पुरमलाल ख़बर कही। फाग मल बड़ा शुह्दा था। मुस्कुरा कर बोला, “मुझे तो आपकी शरारत मा’लूम होती है” मैं अपना दुख सुना रहा हूँ और तुम्हें मज़ाक़ सूझता है ज़रा भी इन्सानियत तुम में नहीं है।”

“मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ, भला इसमें मज़ाक़ की क्या बात है वो हैं कमसिन, नाज़ुक इंदाम। आप ठहरे आज़मूदा-कार, मर्द-ए-मैदान। बस अगर ये बात न निकले तो मूँछें मुंडवा डालूं।”

सेठ जी ने मतीन सूरत बनाई, “मैं तो भई बड़ी एहतियात करता हूँ, तुम्हारे सर की क़सम।”

“जी रहने दीजिए मेरे सर की क़सम न खाइए मेरे भी… बाल बच्चे हैं। घर का अकेला आदमी हूँ। किसी क़ातेअ’ दवा का इस्ति’माल कीजिए।”

“उन्हें राज वैद से कोई दवा लिये लेता हूँ।”

“इसकी दवा वैद जी के पास नहीं आपके पास है।”

सेठ जी की आँखों में नूर आ गया, शबाब का एहसास पैदा हुआ और इसके साथ चेहरे पर भी शबाब की झलक आगई, सीना जैसे कुछ फ़राख़ हो गया। चलते वक़्त उनके पैर कुछ ज़्यादा मज़बूती से ज़मीन पर पड़ने लगे। और सर की टोपी भी ख़ुदा जाने क्यों कज हो गई। बुशरे से एक बांकपन की शान बरस रही थी। राज वैद ने मुज़्दा-ए-जाँफ़िज़ा सुनाया तो बोले, “मैंने कहा था ज़रा सोच समझ कर उन गोलियों का इस्ति’माल कीजिएगा। आपने मेरी हिदायत पर तवज्जो न की ।ज़रा महीने दो महीने उनका इस्ति’माल कीजिए और परहेज़ के साथ रहिए, फिर देखिए उनका ए’जाज़। अब गोलियां बहुत कम रही हैं लूट मची रहती है लेकिन उनका बनाना इतना मुश्किल और दिक़्क़त तलब है कि एक-बार ख़त्म हो जाने पर महीनों तैयारी में लग जाते हैं। हज़ारों बूटियाँ हैं। कैलाश नेपाल और तिब्बत से मंगानी पड़ती हैं, और उसका बनाना तो आप जानते हैं कितना लोहे के चने चबाना है… आप एहतियातन एक शीशी लेते जाइए।”

जुगल ने आशा को सर से पांव तक जगमगाते देखकर कहा, “बस बहू जी आप इसी तरह पहने ओढ़े रहा करें। आज मैं आपको चूल्हे के पास न आने दूँगा।”

आशा ने शरारत आमेज़ नज़रों से देखकर कहा, “क्यों आज ये सख़्ती क्यों? कई दिन तो तुमने मना नहीं किया।”

“आज की बात दूसरी है।”

“ज़रा सुनूँ तो क्या बात है।”

“मैं डरता हूँ कहीं आप नाराज़ न हो जाएं।”

“नहीं-नहीं कहो ,मैं नाराज़ न हूँगी।”

“आज आप बहुत सुंदर लग रही हैं।”

लाला डंगा मल ने सैंकड़ों ही बार आशा के हुस्न-ओ-अंदाज़ की ता’रीफ़ की थी, मगर उनकी ता’रीफ़ में उसे तसन्नो’ की बू आती थी। वो अलफ़ाज़ उनके मुँह से कुछ इस तरह से लगते थे जैसे कोई हिजड़ा तलवार लेकर चले। जुगल के इन अलफ़ाज़ में एक कैफ़ था, एक सुरूर था। एक हैजान था, एक इज़्तिराब था। आशा के सारे जिस्म में रअ’शा आगया। आँखों में जैसे नशा छा जाये।

“तुम मुझे नज़र लगा दोगे। इस तरह क्यों घूरते हो?”

“जब यहां से चला जाऊँगा तो तब आपकी बहुत याद आएगी।”

“रोटी बना कर तुम क्या करते हो? दिखाई नहीं देते।”

“सरकार रहते हैं। इसीलिए नहीं आता फिर अब तो मुझे जवाब मिल रहा है, देखिए भगवान कहाँ ले जाते हैं।”

आशा का चेहरा सुर्ख़ हो गया। “कौन तुम्हें जवाब देता है।”

“सरकार ही तो कहते हैं तुझे निकाल दूँगा।”

“अपना काम किये जाओ। कोई नहीं निकालेगा। अब तो तुम रोटियाँ भी अच्छी बनाने लगे।”

“सरकार हैं बड़े गुस्सा वर।”

“दो-चार दिन में उनका मिज़ाज ठीक किये देती हूँ।”

“आपके साथ चलते हैं तो जैसे आपके बाप से लगते हैं।”

“तुम बड़े बद-मआ’श हो ख़बरदार, ज़बान सँभाल कर बातें करो।”

मगर ख़फ़गी का ये पर्दा उसके दिल का राज़ ना छिपा सका वो रोशनी की तरह उसके अंदर से बाहर निकला पड़ता था। जुगल ने उसी बेबाकी से कहा, “मेरी ज़बान कोई बंद कर ले। यहां तो सभी कहते हैं। मेरा ब्याह कोई पच्चास साल की बुढ़िया से कर दे तो मैं घर छोड़कर भाग जाऊं, या ख़ुद ज़हर खालूँ या उसे ज़हर देकर मार डालूं, फांसी ही तो होगी।”

आशा मस्नूई’ ग़ुस्सा क़ायम न रख सकी। जुगल ने उसके दिल के तारों पर मिज़्राब की एक ऐसी चोट मारी थी कि उसके बहुत मज़बूत करने पर भी दर्द-ए-दिल बाहर निकल ही आया। “क़िस्मत भी तो कोई चीज़ है।”

“ऐसी क़िस्मत जाये जहन्नुम में।”

“तुम्हारी शादी किसी बुढ़िया से करूँगी, देख लेना।”

“तो मैं भी ज़हर खालूँगा, देख लीजिएगा।”

“क्यों? बुढ़िया तुम्हें जवान से ज़्यादा प्यार करेगी। ज़्यादा ख़िदमत करेगी। तुम्हें सीधे रास्ते पर रखेगी।”

“ये सब माँ का काम है। बीवी जिस काम के लिए है उसी के लिए है।”

“आख़िर बीवी किस काम के लिए है।”

“आप मालिक हैं नहीं तो बतला देता किस काम के लिए है।”

मोटर की आवाज़ आई, जाने कैसे आशा के सर का आँचल खिसक कर कंधे पर आगया था उसने जल्दी से आँचल सर पर खींच लिया। और ये कहती हुई अपने कमरे की तरफ़ चली, “लाला खाना खाकर चले जाऐंगे , तुम ज़रा आजाना।

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