...

सतत् छत्तीसगढ़

Home National CG News: “रायपुर बिलासपुर संभाग”

CG News: “रायपुर बिलासपुर संभाग”

विनोद कुमार शुक्ल

by satat chhattisgarh
0 comment
Raipur, Bilaspur Division "Poetry"

रायपुर बिलासपुर संभाग

हाय! महाकौशल, छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष

इसी में नाँदगाँव मेरा घर

कितना कम पहुँचता हूँ जहाँ

इतना ज़िंदा हूँ

सोचकर ख़ुश हो गया कि

पहुँचूँगा बार-बार

आख़िरी बार बहुत बूढ़ा होकर

ख़ूब घूमता जहाँ था

फलाँगता उतने वर्ष

उतने वर्ष तक

उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे

छोटे-छोटे क़दम रखते

ज़िंदगी की इतनी दूरी तक पैदल

कि दूर उतना है

नाँदगाँव कितना अपना!

स्टेशन पर भीड़

गाड़ी खड़ी हुई

झुंड देहाती पच्चासों का रेला

आदमी-औरत लड़के-लड़की

गंदे सब नंगे ज़्यादातर

कुछ बच्चे रोते बड़ी ज़ोर से

बाक़ी भी रुआँसे सहमे

जुड़े-सटे एक दूसरे से इकट्ठे

कूड़े-कर्कट की गृहस्थी का सामान लाद

मोटरा, पोटली, ढिबरी, कंदील

लकड़ी का छोटा-सा गट्ठा

एक टोकनी में बासी की बटकी हंडी

दूसरी में छोटा-सा बच्चा

छोटी सुंदर नाक, मुँह छोटा-सा प्यारा

बहुत गहरी उसकी नींद

भविष्य के गर्भ में उलटा पड़ा हुआ

बहुत ग़रीब बच्चा

वर्तमान में पैदा हुआ।

भोलापन बहुत नासमझी!!

पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में

लपकते वही फिर एक साथ दूसरे डिब्बे में

एक भी छूट गया अगर

गाड़ी में चढ़ने से

तो उतर जाएँगे सब के सब।

डर उससे भी ज़्यादा है

अलग-अलग बैठने की बिल्कुल नहीं हिम्मत

घुस जाएँगे डिब्बों में

ख़ाली होगी बेंच

यदि पूरा डिब्बा तब भी

खड़े रहेंगे चिपके कोनों में

या उकड़ूँ बैठ जाएँगे

थककर नीचे

डिब्बे की ज़मीन पर।

निष्पृह उदास निष्कपट इतने

कि गिर जाएगा उन पर केले का छिलका

या फल्ली का कचरा

तब और सरक जाएँगे

वहीं कहीं

जैसे जगह दे रहे हों

कचरा फेंकने की अपने ही बीच।

कुछ लोगों को छोड़

बहुतों ने देखा होगा

पहली बार आज

रायपुर इतना बड़ा शहर

आज पहली बार रेलगाड़ी, रोड रोलर, बिजली नल

छोड़कर अपना गाँव

जाने को असम का चाय बगान, आज़मगढ़

कलकत्ता, करनाल, चंड़ीगढ़

लगेगा कैसा उनको, कलकत्ता महानगर!!

याद आने की होगी

बहुत थोड़ी सीमा—

चंद्रमा को देखेंगे वहाँ

तो याद आएगा शायद

गाँव के छानी छप्पर का, सफ़ेद रखिया

आकाश की लाली से

लाल भाजी की बाड़ी

नहीं होगी ज़मीन

जहाँ जरी खेड़ा भाजी

आँगन में करेले का घना मंडप

जिसमें कोई न कोई हरा करेला

छुपकर हरी पत्तियों के बीच

टूटने से छूट जाता

दिखलाई देता

जब पककर लाल बहुत हो जाता—

देखेंगे जब पहली बार

सुबह-शाम का सूरज

छूटकर रह गया वहाँ दिन

छूटकर सुबह-शाम का सूरज।

दूर हो जाएगी गँवई, याद आने की अधिकतम सीमा से भी

क्षितिज के घेरे से मज़बूत और बड़ा

कलकत्ते का है घेरा

कि अपनी ही मजबूरी की मज़दूरी का

ग़रीबी अपने में एक बड़ा घेरा।

नहीं, नहीं मैं नहीं पहुँच सकूँगा नाँदगाँव

मरकर भी ज़िंदा रह

टिकट कर दूँ वापस

चला जाऊँ तेज़ भागते

गिरते-पड़ते हाँफते

देखूँ झोपड़ी एक-एक

कितनी ख़ाली

क्या था पहले

क्या है बाक़ी

छूट गई होगी धोखे से

साबुत कोई हंडी

पर छोड़ दिया गया होगा दु:ख से

पैरा तिनका तक

अरहर काड़ी एक-एक।

समय गुज़र जाता है

जैसे सरकारी वसूली के लिए साहब दौरे पर

फ़िलहाल सूखा है

इसलिए वसूली स्थगित

पिटते हुए आदमी के बेहोश होने पर

जैसे पीटना स्थगित।

देखना एक ज़िंदा उड़ती चिड़िया भी

ऊँची खिड़की से फेंक दिया किसी ने

मरी हुई चिड़िया बाहर का भ्रम

कचरे की टोकरी से फेंका हुआ मरा वातावरण

मर गया एक बैल जोड़ी की तरह

एक मुश्त रायपुर और बिलासपुर

इस महाकौशल कहूँ या छत्तीसगढ़!!

मर गया प्रदेश

मर गई जगह पड़ी हुई उसी जगह

उत्तर प्रदेश राजस्थान

बिहार कर्नाटक आंध्र

बिखर गई बैलों की अस्थिरपंजर-सी सब ज़मीन उत्तर से दक्षिण

ज़मीन के अनुपात से

आकाश को गिद्ध कहूँ

इतना भी नहीं काफ़ी

जितना, अकेला एक गौंठिया काफ़ी

फिर मरे हुए दिन की परछाईं रात अँधेरी।

शब्द खेत शब्द पत्थर।

मेड़ के नीचे धँसे पत्थर

बल्कि चट्टानें

फ़ॉसिल हुई फ़सलें

दृश्य तालाब का

गड्ढे का दृश्य साफ़ है

तालाब का पंजर

पपड़ाया हुआ मन तालाब का भीतरी

जिसमें सूखी हरी काई की परत

सूख गया हरा विचार तालाब का

पार के ऊपर जाकर

मंदिर के पास खड़ा

किसी पेड़ का जैसे एक पुराना बरगद

पेड़ का नीम सूखा

‘था एक पेड़’ की कहानी की शुरुआत

लकड़ी के पेड़ के बबूल पीपल

लकड़ी की अमराई।

एक ग़रीब खेतिहर के बेदख़ल होते ही

छूटकर रह गई ज़मीन

ज़मीन का नक़्शा होकर

टँग गई ज़मीन दीवाल पर

कि हिमालय एक निशान हिमालय का नक़्शे में

नदियाँ बड़ी-बड़ी बस चिह्न नदियों के

पुल, रेलगाड़ी की पटरी, सड़क

और निशान समुद्रों के

नक़्शा पूरा टँगा हुआ देश का दीवाल पर

कहाँ नाँदगाँव उसमें मेरा घर

बहुत मुश्किल ढूँढ़ने में

पार्री नाला, नदी मुहारा

रास्ता पगडंडी का

घर आँगन, एक पेड़ मुनगे का

अजिया ने जिसे लगाया था

दो पेड़ जाम के

बापजी, बड़े भय्या के, और चाचा की छाया,

अम्मा से तो एक-एक ईंट घर की

और चूल्हे की आगी

बहुत थककर एक कोने में पड़ जाती,

बहुत मुश्किल इन सबका उल्लेख नक़्शे में।

नहीं कोई चिह्न

तालाबों में खिले हुए कमल का

तैरती छोटी-छोटी मछली

झींगा, सिंगी, बामी, कातल

कूदते नंग-धड़ंग छोटे-बड़े, गाँव के लड़कों का

तकनीकी तौर पर भी मुश्किल

यह सब नक़्शे में

जब गाँव बहुत से और छोटे-छोटे हों

ग़रीब करोड़ों और रईस थोड़े हों

जब तक न वहाँ बड़े कल-कारख़ाने

या बाँध ऊँचे हों।

बिना जाते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े-खड़े

जब याद आते हैं नाँदगाँव पहुँचने के

छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन

इधर से रसमड़ा, मुड़ीपार, परमालकसा

उधर से मुसरा, बाँकल

तब लगता है मैं कहीं नहीं

बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से—

निहारते नक़्शे को नक़्शे के बाहर खड़े-खड़े

लिए हाथों में एक झोला

एक छोटी पेटी का अपना वज़न—

फिर थककर बैठ जाता हूँ पेटी के ऊपर

और इस तरह खड़े-खड़े थकने से पछताता हूँ—

कि तालाब की सूखी गहराई के बीच

मैं भी तालाब का कोई छोटा-सा जीवित विचार दिखूँ

ज़िंदगी में गीले मन से रिसता हुआ

पीपल की गहरी जड़ों को छूता

खेत के बीच कुएँ के अंदर

झरने-सा फूटूँ

मेहनत के पसीने से भीग जाऊँ

पलटकर वार करते हुए

बुरे समय के बाढ़ के पानी को

दीवाल-सा रोकता

बाँध का परिचय दूँ

कि मैं क्या हूँ आख़िर

मेरी ताक़त भी क्या है

बाढ़ को रोकने वाली दीवाल

छोटे से गाँव के तालाब का छोटा-सा विचार है

बिखर गए एक-एक कमज़ोर को

इकट्ठा करता हुआ

ताक़त का परिचय दूँ

कि मैं क्या हूँ

मेरी ताक़त भी क्या है

इकट्ठी ताक़त को एक-एक कमज़ोर का विचार है।

गूँजी तब गाड़ी की तेज़ सीटी

कानों में हवा साँय गूँजी

अँधेरे अधर में लहर गई एक हरी बत्ती

किसी ख़ूँख़ार जानवर की अकेली आँख अँधेरे में हरी चमकी

चलने को है अब हरहमेश की रेलगाड़ी

हड़बड़ाकर मैं पेटी से उठा

कि हाथ का झोला छिटक दूर जा पड़ा

गिर गया टिफ़िन का डिब्बा झोले से बाहर

लुढ़कता खुलता हुआ

रोटी और सूखी आलू की सब्ज़ी को बिखराता

ढक्कन अलग दूर हुआ

अचानक तब इकट्ठे भूखे-नंगे लड़कों में

होने लगी उसी की छीना-झपटी

मेरी छाती में धक्-धक्

मेहनत को आगे भूख का ख़तरा हरहमेश

काँप गए पैर

अरे! रोक दो मत जाने दो

मजबूर विस्थापित मज़दूरों को

कहाँ गया लाल झंडा! लाल बत्ती!! गाड़ी रोकने को

आ क्यों नहीं जाता सामने सूर्योदय लाल सिग्नल-सा

खींच दे उनमें से ही कोई ज़ंजीर ख़तरे की

या पहुँचे कोई इंजन तक

कर ले क़ब्ज़ा गाड़ी के आगे बढ़ने पर

पलटा दे दिशा गाड़ी की

कूदें सब खिड़की-दरवाज़े से डिब्बे की

लौटें लेकर फ़ैसले का विचार लश्कर

छोड़ दें पीछे मोह कचरे की गृहस्थी का

टट्टा कमचिल बासी की बटकी हंडी भी

पर भूल न जाएँ ढिबरी कंदील

ज़रूरत अँधेरे में रास्ता ठीक देखने की।

एक ग़रीब जैसे हर जगह उपलब्ध आकाश पर

गोली का निशान गोल सूरज

रिसता रक्त पूरब कोई सुबह

उसी सुबह एक ज़िंदा चिड़िया का हल्ला

देखने को टोलापारा उमड़ा

सुनाई देती है सीटी उस चिड़िया की

बुलबुल ही शायद दिखलाई नहीं देती

कहाँ है? कहाँ है?

एक ने कहा—मुझे दिखी

उसे घेरकर तुरंत जमघट हुआ

चिड़िया बुलबुल दिखाने को

बच्चों को कंधे पर बैठाए लोग

इस तरह भविष्य तक ऊँचे लोग

सबकी इशारे पर एकटक नज़र

उधर वहाँ

‘था एक पेड़’ की कहानी का जहाँ ख़ात्मा

नहीं चला होगा लंबा क़िस्सा

समाप्त बीच में ही हुआ होगा

वहीं सुरक्षित पीपल का एक बीज अंकुर

‘एक पेड़ है’ कहानी की शुरुआत

उसी पेड़ पर

जिस पेड़ की फुनगी को सारे आकाश का निमंत्रण।

हरा मुलायम

हरा ललछौंह चमकते

नए पत्ते के बीच

बस, उसी पेड़ पर।

 

  • किताब  : कविता से लंबी कविता (पृष्ठ 11), कवि : विनोद कुमार शुक्ल, प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

You may also like

managed by Nagendra dubey
Chief editor  Nagendra dubey

Subscribe

Subscribe our newsletter for latest news, service & promo. Let's stay updated!

Copyright © satatchhattisgarh.com by RSDP Technologies 

Translate »
Are you sure want to unlock this post?
Unlock left : 0
Are you sure want to cancel subscription?
-
00:00
00:00
Update Required Flash plugin
-
00:00
00:00