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साहिब बीबी और ग़ुलाम : गुरुदत्त(1962)

औद्योगिक विकास के साथ पूंजीवाद

मानव सभ्यता के विकास में माना जाता है कि एक दौर मातृसत्तात्मक का था। कई जनजातीय समाजो में यह हाल तक रहा है। लेकिन सभ्यता के इतिहास में एक लम्बा दौर सामंतवादी युग का रहा है। औद्योगिक विकास के साथ पूंजीवाद इसे अपदस्थ करता रहा। बावजूद इसके सामंती मूल्य पूरी तरह अपदस्थ न हुए, इनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। जरूर विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में इसके स्तर भिन्न-भिन्न रहे हैं।

विभिन्न धार्मिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत

भारतीय ‘नवजागरण’ की शुरुआत बंगाल से मानी जाती है।ब्रिटिश शासन की सुदृढ़ता पहले-पहल यहीं से शुरू हुई।जाहिर है इसके सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव भी पड़े। शिक्षा का प्रसार हुआ, विभिन्न धार्मिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत हुई; इनमें राजा राममोहन राय का ब्रम्ह समाज प्रमुख है।ब्रम्ह समाज ने बहुत से ‘शुद्धतावादी’ परम्पराओं का निषेध किया, जिसके कारण सनातनी परंपरा से उसका द्वंद्व भी रहा।

अंग्रेजो की पहली राजधानी कलकत्ता

कलकत्ता भारत मे अंग्रेजो की पहली राजधानी थी। इसलिए इसका ‘आधुनिकीकरण’ तेजी से हुआ।इस आधुनिकीकरण से सामंती मूल्यों से द्वंद्व हर जगह की तरह यहां भी हुआ। इसलिए एक तरफ जहां आधुनिक शिक्षा, समानता, स्वतंत्रता के मूल्य बढ़ें तो दूसरी तरफ सामंती, ज़मीदारी मूल्य भी दृढ़ता से जमे रहे। ये मूल्य परम्परागत ज़मीदारों, चौधरियों, रजवाड़ो मे अधिक कायम रहे।इधर ब्रिटिश शासन अपनी जड़ें मजबूत करता रहा और ये किसी और दुनिया मे जीते रहे। अपने सड़ान्ध जीवन मूल्यों और खोखले प्रतिष्ठा से बंधे रात-दिन अय्याशी में डूबे इन सामन्तो का पतन होना ही था। हुआ। इसी बीच बंगाल के विभिन्न सुधार आंदोलनों से प्रेरित नयी पीढ़ी ब्रिटिश चालबाजी और शोषण के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन के तरफ आगे बढ़ी।

‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ की पृष्ठभूमि

संक्षेप में गुरुदत्त की फ़िल्म ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ की पृष्ठभूमि यही है।फ़िल्म के कथा का आधार बिमल मित्र का बंगाली उपन्यास ‘शाहेब बीबी गोलाम’ है।फ़िल्म के केंद्र में एक परम्परागत ज़मीदार परिवार की हवेली है, जहां विभिन्न घटनाएं-दुर्घटनाएं घटित होती हैं। हवेली में तीन भाइयों की बहुएं हैं, बड़ी बहू, मँझली बहू और छोटी बहू। बड़े भाई का निधन हो चुका है;बांकी दोनो भाई सामंती ठसक और अय्याशी में डूबे दुनिया से बेखबर हैं। मंझला चापलूसों से घिरे नाचगान और कबूतर बाजी में मगन है। छोटा दिन-रात एक पतुरिया के कोठे में गुजारता है। देर रात शराब के नशे में डूबे हवेली लौटता है और बरामदे में ही सो जाता है। रोजगार-व्यापार सब मुनीमों के भरोसे;ये केवल हस्ताक्षर करते हैं।इनकी नज़र केवल अपने प्रतिद्वंदी चौधरियों तक जाती है, जो किसी भी हालत में उनसे ‘ऊपर’ न दिखे। इस मदहोशी में इनका एक दिन पतन होना ही था। होता है। व्यापार में घाटा, कर्ज इसके कारण बनते हैं।

सामंती समाज में स्त्रियों

सामंती समाज में स्त्रियों की स्थिति विडम्बनापूर्ण होती है। खासकर अभिजात वर्ग के स्त्रियों की। सबकुछ होते हुए भी इनके पास कुछ नहीं होता।ये केवल प्रतिष्ठा के लिए होती हैं।कंडीशनिंग इस कदर की वे इसे स्वाभाविक समझती हैं। पूजा-पाठ और पति सेवा ही इनका जीवन होता है। आश्चर्य नहीं कि ये कभी हवेली के बाहर की दुनिया नहीं देखी होतीं।फ़िल्म में बड़ी बहू तो पूजा-पाठ, शुचिता-अशुचिता में दिन काटती है,मँझली के बारे कुछ दिखाया नहीं गया है, मगर अनुमान लगाया जा सकता है। सबसे त्रासद स्थिति छोटी बहू की है।

फ़िल्म ‘सारांश’ : महेश भट्ट (1984)

आकर्षक विज्ञापन

छोटी बहू(मीना कुमारी) यों तो सामंती सामाजिक मूल्यों से संस्कारित है, जहां पति कैसा भी हो, उसे देवता माना जाता है। मगर इन स्थितियों के बीच भी उसका स्त्रीत्व जाग्रत है। वह पति से प्रेम चाहती है, उसका साहचर्य चाहती है, जो उसे नहीं मिल रहा। वह किसी भी हद में जाकर पति का सानिध्य चाहती है।यह जानकर कि भूतनाथ ‘मोहनी सिंदूर’ के कारखाने में काम करता है, उसके आकर्षक विज्ञापन से प्रभावित होकर वह उसे भी मंगाती है, मगर सब बेअसर। पति के अय्याशी के लिए उसके कहने पर शराब तक पीने लगती है।अपना जीवन बर्बाद कर देती है, मगर उसे सही दाम्पत्य सुख नहीं मिलता। वह जब भी अपने पति(छोटे बाबू) से अपने जीवन की बात करती है उसे उपेक्षा और उलाहना ही मिलता है।

पति देवता तुल्य

उसे कहा जाता है तुम्हारे पास क्या कमी है, गहने पहनो ,गहने तुड़वाओ! इस पर छोटी बहू की मार्मिक हँसी कारुणिक है। वह पितृसत्ता के मूल्यों में पीस रही है। उसकी त्रासदी यह है कि वह इन मूल्यों को स्वीकार नहीं करती मगर उससे बगावत भी नहीं कर पाती। अन्ततः जब उसका पति अपनी अय्याशी में घायल होकर लकवाग्रस्त हो जाता है, तब भी वह उसे देवता की तरह पूजती है, उसकी सेवा करती है। इधर जायदाद बिकती जाती हैं और उनकी आर्थिक स्थिति गिरती जाती है, तब भी उस परिवार की सामंती ठसक नहीं जाती और जब छोटी बहू भूतनाथ(गुरुदत्त) के साथ छोटे बाबू के लिए एक महात्मा से दवाई लेने एक ही पालकी में जाती है, तब यह मँझले बाबू के लिए बर्दाश्त से बाहर हो जाता है कि उनकी बहू किसी पराये मर्द के साथ जाए ,और उनके इशारे ओर गुर्गों द्वारा उनपर हमला कर छोटी बहु की हत्या कर उसे हवेली में दफना दिया जाता है।भूतनाथ केवल घायल होता है।

नाटकीय रूप से विवाह

भूतनाथ और जबा (वहीदा रहमान)की पूरक कथा कहानी को गति देने के लिए है। दोनो में प्रेम है। नाटकीय रूप से विवाह भी होता है। भूतनाथ सहज, सरल, ईमानदार व्यक्ति है, इसलिए सब उसका विश्वास करते हैं, छोटी बहू भी। वह छोटी बहू की सलामती के लिए परेशान रहता है क्योंकि उसे उसकी त्रासद जीवन का अहसास है और वह चाहता है कि स्थिति सुधर जाय। मगर दोष व्यक्ति से अधिक परिस्थिति जनित मूल्य में है, जिससे मुक्त होना आसान नहीं। छोटी बहू के पति कितने भी बुरे हो मगर उसके लिए ‘देवता’ है। एक बार शराब पीने से रोकने के लिए जब भूतनाथ उसका हाथ पकड़ लेता है तब वह भड़क जाती है कि तुमने पराये स्त्री का हाथ कैसे पकड़ लिया। जबा जैसी आधुनिक स्त्री भी बचपन के बालविवाह के उस पति के लिए प्रतिबद्ध हो जाती है,जिसे उसने कभी देखा तक नहीं है। वह उसके लिए ‘जन्म-जन्मांतर’ का सम्बन्ध है।

पितृसत्ता

इस तरह फ़िल्म में पितृसत्ता के अधीन दम तोड़ती स्त्री अस्मिता का चित्रण है, जो स्वभाविक रूप से अपने देशकाल से बद्ध भी है। उन्नीसवीं शताब्दी की आखिरी दौर का वह समय बदलाव का दौर था। समाज बदल रहा था, मूल्य बदल रहे थे, नए-पुराने का द्वंद्व था।शहरी जीवन अपेक्षाकृत तेजी से बदल रहा था जबकि बड़ी ज़मीदारी परिवारों मे बदलाव अपेक्षाकृत धीमा था।यह सांस्कृतिक समूह और वर्ग सापेक्ष भी था। बावजूद इन सबके मानवीय प्रेम और करुणा कहीं न कहीं जीवित रहती है। इस फ़िल्म में छोटी बहू और भूतनाथ के चरित्र में इसे देखा जा सकता है।

 

अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा

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