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स्वामी विवेकानंद -एक दीर्घ शोध विनिबंध

"कनक तिवारी"

by satat chhattisgarh
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Swami Vivekananda

विवेकानन्द का जन्म एक साधारण घटना नहीं

(1) ‘हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।‘ जब करोड़ों कष्ट में तपते हैं। तब किसी देश की आत्मा शुद्ध होती है। वक्त को भी सदियों तक इंतज़ार होता है। तब कोई कालजयी आत्मा देह के घेरे में कैद होती है। विवेकानन्द का जन्म एक साधारण घटना नहीं है। मैं स्वामी विवेकानन्द को केवल भगवा साधु के रूप में स्वीकार करने से इंकार करता हूं। नरेन्द्र विवेकानन्द के रूप में तब्दील हुए थे। तब उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण देव की बात को भी सहसा नहीं माना। उन्होंने अपने होने वाले गुरु से लगातार सवाल किए। इसलिए भी मैं विवेकानन्द से लगातार जिरह करता रहता हूं। मैं विवेकानन्द के बौद्धिक और ऐतिहासिक अवमूल्यन के खिलाफ लगातार संघर्ष करने को भी अपने जीवन के उद्देश्यों में से एक मानता हूं। विवेकानन्द को लेकर ऐसी कोई कशिश होनी चाहिए कि हम सही ढंग से इतिहास में उनका मूल्यांकन करने की कोशिश तो करें।

हिन्दुस्तान का आधुनिक इतिहास

(2) हिन्दुस्तान का आधुनिक इतिहास कुछ नायक चरित्रों के कारण बहुत स्फुरणशील है। नए कालखंड में उन्नीसवीं सदी को इस बात का श्रेय है कि उसकी कोख से कई युग निर्माता पैदा हुए। उनका असर आज तक भारत के दैनिक जीवन पर उनकी यादों की भुरभुरी के साथ स्पंदित होता रहता है। उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में जन्मे तीन कालजयी नाम नए भारत का त्रिलोक रचते हैं। कालक्रम के अनुसार रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानन्द और महात्मा गांधी के यश-त्रिभुज के अंदर ही भारत का पूरा संसार समाहित हो जाता है। मेरे लिए यह जानकारी छात्र जीवन से उद्वेलित करती रही कि विवेकानन्द के किशोर जीवन का दो वर्षों से अधिक समय हमारे छत्तीसगढ़ के रायपुर में बीता। यह विनम्र गर्व के साथ कहा जा सकता है कि विवेकानन्द ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का साक्षात्कार छत्तीसगढ़ में किया, बल्कि थोड़ी बहुत छत्तीसगढ़ी भी बोली होगी। जबलपुर से जंगल के रास्ते रायपुर आते विवेकानन्द को आसमान में ईश्वरीय आभा का इलहाम भी हुआ था, जो उनके जीवन की पहली घटना हुई।

विवेकानन्द की अंतर्राष्ट्रीय शोहरत

(3) मैं विवेकानन्द की अंतर्राष्ट्रीय शोहरत, एक धार्मिक उन्नायक और युवकों के समझे जा रहे आदर्श चरित्र से भौंचक होकर प्रभावित नहीं होता। विवेकानन्द के निर्माण में उनके नरेन्द्र होने का समय सबसे ज्यादा अचंभित करता है। पिता हों या श्रीरामकृष्ण देव या धर्म और संस्कृति तथा इतिहास का कोई अन्य नामचीन स्थापित विद्वान, नरेन्द्र ने कभी भी जिरह, जिज्ञासा और जांच के बिना अपने तर्कों को भोथरा नहीं किया। मैं खुद इसलिए विवेकानन्द को बार बार पढ़कर समीक्षित करने की कोशिश करता रहा कि कहीं महानता का कोई प्रचलित आडंबर मुझे तर्कसिद्ध विवेकानन्द से हटाकर उनके प्रति केवल श्रद्धावनत न बना दे।

भगवाधारी  विवेकानन्द

(4) भगवाधारी बताए जाते विवेकानन्द का परिचय इसलिए किताबों से हटकर उनके चारों ओर उगा दी गई कूढ़मगज भ्रांतियों के जंगल में गुम हो गया है। विवेकानन्द पारिभाषिक धार्मिक नहीं, धर्म-वैज्ञानिक थे। इतिहास की मजबूरी के कारण वे क्रांतिकारी नहीं बन सके, लेकिन जीवन भर उनमें सियासी लक्षणों का गुबार उठता रहा और उनके आह्वान में बाद की भारतीय पीढ़ी ने राजनीतिक आज़ादी हासिल करने की हिम्मत और समझ देख ली थी। विवेकानन्द ने कभी नहीं कहा कि वे अंधभक्त हिन्दू हैं, जिन्हें धर्म के इलाके में पैदा हो चुकी सामाजिक विकृतियों के जंगल में गुम होने दिया जाए। उन्होंने अपनी असाधारण समझ के चलते धार्मिक अनुष्ठानों, प्रथाओं, रूढ़ियों और आडंबरों के जंजाल के बरक्स मनुष्य होने के सबसे बड़े अहसास को अपने समय के इतिहास के चेहरे पर लीप दिया। वे लगभग सबसे पहले भारतीय बने, जिन्होंने अपने मुल्क की सभी अच्छाइयों को दुनिया के उपवन में बोया और वहां से भी वे सभी वृत्तियां आत्मसात कर ले आए जिनकी विकसित होने वाले नए भारत की ज़रूरत से परिचित रहे थे। विवेकानन्द के योगदान को इतिहास की पुस्तकों से मिटा दिया जाए तो बीसवीं सदी का भारतीय इतिहास उस बुनियाद के बिना भरभरा कर गिर जाने को होता है।

विवेकानन्द सर्वज्ञ नहीं थे

(5) विवेकानन्द सर्वज्ञ नहीं थे। कोई नहीं होता। उनके वक्त और तत्कालीन भारतीय समाज ने उन्हें वह सब नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। परिवार में अचानक आई असाधारण गरीबी और अंगरेजियत से लकदक नवजागरण काल की प्रवृत्तियों के भी रहते विवेकानन्द ने भारतीय प्रज्ञा के उस वक्त के अंधेरे को दूर किया। उन्हें अपने देश के प्राचीन इतिहास और उसकी उपलब्धियों को लेकर किताबी अहंकार नहीं रहा है। वे कालपरीक्षित भारतीय गुणों को औसत आदमी के कर्म में गूंथकर सभ्यता को मानक पाठ पढ़ाना चाहते थे। इसमें वे काफी हद तक सफल रहे। कई ऐसी संकोची सामाजिक अवधारणाएं रही हैं जिनसे विवेकानन्द कई कारणों से दूर नहीं हो सकते थे। इसलिए उन्होंने अपनी भूमिका के लिए बेहतर प्राथमिकताओं का चुनाव किया। उनकी ऐसी दूरदृष्टि बाद के भारत के गाढ़े वक्त में बहुत काम आई। मुझे विवेकानन्द कभी भी गालबजाऊ किस्म के धार्मिक प्रवाचक नहीं लगते, जिन व्यावसायिक धर्मधारकों की फसल आज भारत में सत्य की प्रज्ञा को ही चर रही है। मेरा विवेकानन्द एक वीर, उर्वर, प्रयोगशील और साहसी अभियान का आत्मिक योद्धा है जिसके साए तले भारत का हमारी पीढ़ी का इतिहास सिर उठाकर दुनिया की सबसे बड़ी भौतिक ताकतों के सामने खड़ा हो गया है। जब कोई अपने देश या समय का मेरुदंड बन जाए तब उसे विवेकानन्द तो कह सकते हैं।

उनतालीस वर्ष की उम्र

(6) उनतालीस वर्ष की उम्र में वैचारिक अनगढ़ता भी हो सकती है। कई अनगढ़ प्रस्तर प्रतिमाएं लेकिन खंडित होने पर भी शाश्वत कलाबोध की पहचान होती हैं। विवेकानन्द का जीवनदर्शन शास्त्रीयता की कसौटी पर कसे जाने से भी व्यक्तित्व की नैतिक ऊंचाई का प्रमाणपत्र तो ज़रूर हासिल करेगा। उसे अतीत से भविष्य की जनयात्रा का प्रतीक समझा जाए, तो विवेकानन्द भारतीय कारवां का जरूरी पथ संचलन बन जाते हैं। उनकी समझ को इसी ढंग से स्वीकार बेहतर लगता है। विवेकानन्द की स्तुति करना, कालांतर में उनकी उपेक्षा या तिरस्कार करना, उनसे उदासीन हो जाना बौद्धिक स्खलन का नाम है। जीवन-विरत होकर संन्यासी अधिकतर उदासीन होते हैं। कुछ संन्यासी लेकिन उदासीन नहीं होते। सभी उदासीन संन्यासी भी नहीं होते। इस प्रचलित रूढ़ अर्थ में विवेकानन्द न तो सेवानिवृत्त संन्यासी थे और न ही उन्हें कोई उदासीन कहेगा। उन्होंने सोई हुई भारतीय कौम को जगाने के लिए परम्परादायिक होकर धर्म या धार्मिक तात्विकता के माध्यम को अन्य किसी माध्यम के मुकाबले तरजीह तो दी। यह समकालीन इतिहास और भूगोल की भी उनसे मांग थी।

विवेकानन्द का योगदा

(7) अंततः चालीस वर्ष से पहले ही कालकवलित हो जाने का प्रारब्ध या संयोग होने पर राजनीति में उनके चले ही जाने से विवेकानन्द का योगदान और यश तुलनात्मक लिहाज़ से खंडित हो जाते। उन्होंने अंततः सिद्ध किया कि राजनीति जीवन का लक्षण भले हो लेकिन संस्कृति ही उसका प्रयोजन-मूल्य है। यहां लोहिया की ऐतिहासिक उक्ति अपनी व्याख्या के लिए याद की जा सकती है। राजनीति है अल्पकालीन धर्म और धर्म है दीर्घकालीन राजनीति। लोहिया के अर्थ में विवेकानन्द धर्म की उस दीर्घकालीन राजनीति के पक्षधर थे जिसका काम है अच्छाई को करे। बुराई से लड़ने का काम अल्पकालीन धर्म कहलाती राजनीति के लिए छोड़ दे। विवेकानन्द यदि भारतीय इतिहास में कुछ वर्षों पहले पैदा नहीं हुए होते अथवा उन्हें अकाल मृत्यु का अहसास नहीं हुआ होता तो उन्होंने राजनीति को दीर्घकालीन धर्मनीति बनाने के किसी प्रकल्प को लेकर उस दिशा में मौलिक साहस दिखाया होता। मौतें देशों या इतिहास की दुर्घटनाएं भी बन जाती हैं। यह पेचीदा सूत्र भी विवेकानद जाते जाते हमको समझा जाते हैं।(कई किश्तों में जारी रहेगा)।

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