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सतत् छत्तीसगढ़

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विद्रोह का मूल स्वर है आनन्द।

अजय तिवारी

by satat chhattisgarh
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The basic voice of rebellion is joy.

नृत्य मनुष्य की उच्छल अभिव्यक्ति का आदिम रूप है। देवी-देवता मनुष्य की आदिम कल्पना की उपज हैं जिनमें प्रकृति से उसके सम्बन्ध की द्वंद्वात्मकता झलकती है। मनुष्य ने जब देवी-देवताओं को मानव रूप दिया तब उन्हें अपने सुख-दुःख का अभिन्न हिस्सेदार बना दिया। अब देखिए न, नृत्य की आदिम अभिव्यक्ति मनुष्य के आनन्द से सम्बंधित थी, उसने अपने देवी-देवताओं को भी उस नृत्य का अंग बना दिया। आदिदेव शिव नटराज बन गए, परब्रह्म विष्णु अपने पूर्णावतार कृष्ण रूप में नटनागर बन गए!!

शुरू मेँ तो मनुष्य ने जड़ प्रकृति और सजीव प्राणी के भेद को समझने के लिए दैवी शक्तियों की कल्पना की थी। इसीलिए भारत मेँ ही नहीं, सभी प्राचीन सभ्यताओं मेँ नदी, पहाड़, सूर्य, वृक्ष आदि प्राकृतिक उपादानों को ही दिव्य शक्तियों के रूप मेँ पूजने की प्रथा दिखायी देती है। इस समूचे दौर में आस्था या विश्वास का सम्बंध मनुष्य के आनन्द से अधिक था। मानव प्रकृति पर निर्भर था, उसके कोप से डरता था, उसे वशीभूत करने के लिए जादू, पूजा, सेवा आदि विभिन्न कर्म करता था।

The basic voice of rebellion is joy.

जिन शक्तियों से डरता था, उन्हें डराता नहीं था, खुश करने का उपाय करता था। यह कार्य आतंक से नहीं, प्रसन्नता से ही सम्भव था। इसलिए प्रारम्भिक उपासना मेँ जादू, अंधविश्वास आदि तत्व भले मिलते हों, न उनके नामपर दूसरे को डराता था। समाज जब आपस में विभाजित हुआ, तब विश्वास के भीतर से संस्थागत धर्म का उदय हुआ।

धर्म के आने के बाद सबल मनुष्यों द्वारा शेष को दबाने के लिए आस्था में भय का समावेश हुआ। भय मनुष्य की मूल वृत्तियों मेँ है लेकिन उसका सामाजिक उपयोग तब आरम्भ हुआ जब व्यवस्था और विधान की रक्षा करने वाला एक मानव समुदाय हुआ तथा उस व्यवस्था और विधान का पालन करने वाला दूसरा। इस प्रकार समाज आगे भी बढ़ा लेकिन भीतर से विभाजित भी हुआ।

ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक समुदाय रचना करता रहे, दूसरा उपभोग करता रहे। आनन्द और वेदना में आवाजाही होती है, उसी प्रकार रचना और उपभोग में भी आवाजाही है। आनन्द को वेदना से, रचना को उपभोग से पूर्णतः विलग करना निहित स्वार्थों के उद्देश्य हो सकता है, जीवन का यथार्थ नहीं। जब जब इस तरह के बंटवारे को कोशिशें होती हैं, तब उसके विरुद्ध बड़े विद्रोह जन्म लेते हैं। हम पूरे इतिहास पर चर्चा न करें, अपने देश में आधुनिकता के प्रारंभिक चरण पर ध्यान दें तो पाएँगे कि भक्ति के रूप में समाज के नाना-स्तरीय बंटवारों के विरूद्ध देशव्यापी व्यापक विद्रोह उभरा।

इस विद्रोह का मूल स्वर है आनन्द। वह आदिम सामुदायिक आदर्शों को अपनाता है जिनमें न वर्गभेद है, न वर्णभेद; न स्त्रियाँ पराधीन हैं, न सर्जक समुदाय उपभोग से बहिष्कृत है। इसीलिए भक्ति को “सामंतवाद विरोधी विद्रोह” माना जाता है। लेकिन भक्ति की आत्मा इस विरोध में नहीं, जीवन के उल्लास की पुनर्प्रतिष्ठा में है। जो बात इस रास्ते में बाधा बनती है, भक्त उसका जीजान से विरोध करते हैं।

यह बात दोहरा कर कही जानी चाहिए कि विरोध प्राथमिक नहीं है, प्राथमिक है सकारात्मक उद्देश्य। कभी किसी “विरोध” की भावना इतनी बड़ी प्रेरणा नहीं होती कि मनुष्य उसके लिए स्वेच्छा से, हँसते-हँसते प्राण दे दे! एक अंडाल, एक अक्क महादेवी, एक ललद्यद, एक मीराँ यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि इतना विरोध, इतनी यातना, इतना निषेध कोई तभी सहन कर सकता है जब एक सकारात्मक आदर्श, एक महान उद्देश्य सामने हो। जैसे, आज़ादी के उद्देश्य के लिए लोग नौकरी, परिवार और जीवन सब समर्पित कर देते थे। अगर केवल अंग्रेजी शासन का “विरोध” करना होता तो दमन का डर, पुलिस की यातना, परिवार की तबाही आदि बहुत सी बातें रास्ता रोकतीं। इन रुकावटों की परवाह न करके चलते रहना सकारात्मक लक्ष्य से ही सम्भव है। यह बात आज के क्रांतिकारी क्यों नहीं समझते, मुझे आश्चर्य होता है!

फिर कहना चाहता है कि मनुष्य आदिम उल्लास की खोज में ही बड़े, सामूहिक कार्य करता है। उस आदिम उल्लास में मनुष्य की रचनात्मकता के स्रोत हैं। जब तक अन्याय का बोध आत्मसात नहीं होगा, तब तक उसके विकल्प के लिए सृजन और उल्लास के मूल स्रोतों की तरफ़ ध्यान नहीं जाएगा। इस लिहाज से सवेरा अभी दूर है!

(अक्क महादेवी पर सुभाष राय की पुस्तक पढ़ते हुए, उसपर तैयारी के क्रम में स्फुट विचार।)

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