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धरती तप रही है, हमारे माथे पर शिकन तक नहीं !

डॉ. राजाराम त्रिपाठी

by satat chhattisgarh
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the earth is heating up

अबुझमाड़ के आदिवासी जहां जंगल बचा रहे हैं, हम एसी में जलवायु जलते देख रहे हैं!

कैलेंडर के पलटते के पन्नों के साथ ही भारत शनै शनै तापमान की भट्टी नहीं, एक चलती-फिरती रोटिसरी में बदल चुका है, जिसमें आम आदमी ही नहीं, संविधान, विकास और लोकतंत्र तक उल्टे लटकाए जा चुके हैं—धीमी आंच पर, हीटवेव की चुपचाप सुलगती आग में। ‘विकास’ की हमारी गगनचुंबी गाथाएं अब धुएं में लिपटी लाशें बन चुकी हैं, जिन्हें हर साल तापमान के रजिस्टर में दर्ज किया जाता है— भुज के 44.5 डिग्री के रूप में, तो कभी राजस्थान के 45 डिग्री के ताप-यज्ञ में आहुति देते हुए। भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक, अप्रैल-जून के बीच उत्तर-पश्चिम भारत में सामान्य से 5 से 8 गुना ज़्यादा हीटवेव के दिन देखने को मिल सकते हैं। दिल्ली का पारा जब बसंत के अंतिम दौर में ही 42 डिग्री को चूम रहा हो और गांवों में बिजली 4 घंटे की भी न मिल रही हो, तब यह सिर्फ मौसम नहीं बिगड़ रहा—यह पूरी व्यवस्था की पोल खोल रही है।

the earth is heating up
“धर्मो रक्षति रक्षितः”— के लगातार रटंत के बावजूद परंतु हमने न तो धर्म को बचाया, न ही प्रकृति को। और अब दोनों ही बदले की मुद्रा में खड़े हैं। यह कोई साधारण गर्मी नहीं है, यह ग्लोबल वार्मिंग के उस फुफकारते नाग का पहला विष है, जिसे हमने खुद अपने औद्योगिक लालच से, जंगलों की कटाई से, और मुनाफाखोर विकास के नाम पर जल-जंगल-जमीन का चीरहरण कर बुलाया है।
2024 का साल भारत के इतिहास में 1901 के बाद का सबसे गर्म साल था। लेकिन यह केवल एक आँकड़ा नहीं है, यह एक अशुभ संकेत है। इस बार मार्च में ही कई राज्यों में तापमान 40 डिग्री को पार कर गया। और अब अप्रैल में मौसम विभाग साफ कह रहा है कि अगले एक सप्ताह में उत्तर-पश्चिम भारत के कई हिस्सों में तापमान 3-4 डिग्री तक बढ़ सकता है। पश्चिमी विक्षोभ की थोड़ी-बहुत फुहार राहत नहीं, भ्रम है।
भारत जैसे देश, जिसकी रीढ़ आज भी खेती है, और खेती का आधार आज भी वर्षा है, और वर्षा का आधार पर्यावरणीय संतुलन है—वह देश आज सबसे अधिक संकट में है। फसलें समय से पहले सूख रही हैं, या समय से पहले पक रही हैं। यह सिर्फ उत्पादन नहीं घटा रहा, यह किसानों की उम्मीदें, आत्माएं और भविष्य को भी राख में बदल रहा है। गर्मी जितनी बढ़ रही है, बीज उतने ही कमज़ोर हो रहे हैं, मिट्टी की नमी चुराई जा रही है, और सिंचाई की लागत आसमान छू रही है।

Transformers are melting

एक ओर हीटवेव की मार, दूसरी ओर बिजली की मांग में 9-10% की बढ़ोतरी। ग्रिड की क्षमता जवाब दे रही है, ट्रांसफॉर्मर पिघल रहे हैं, और गाँवों में बिजली की आँखमिचौली बढ़ रही है। और ये सब तब हो रहा है जब हम केवल अप्रैल की दहलीज़ पर खड़े हैं। मई-जून का दावानल तो अभी बाकी हैं।
“Nature provides enough to satisfy every man’s need, but not every man’s greed.” महात्मा गांधी की यह बात आज सत्य से भी आगे की प्रतीति देती है। हमने ज़रूरत की सीमाएं पार कर लालच की सुरंग में घुसपैठ की है, जहाँ से न प्रकृति को छोड़ा गया, न जल को, न जंगल को। परिणामस्वरूप अब नदियाँ सूख रही हैं, पहाड़ दरक रहे हैं, और ग्लेशियरों का रोना हमें सुनाई नहीं, दिखाई दे रहा है।
जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा असर उन वर्गों पर पड़ता है जो सबसे कम इसके लिए ज़िम्मेदार हैं—हमारे आदिवासी, हमारे किसान, हमारे मज़दूर। इनका कार्बन फुटप्रिंट न्यूनतम है, लेकिन असर अधिकतम।
और इन आदिवासियों में भी, बस्तर के अबुझमाड़ के घने जंगलों में हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ ताने-बाने की तरह जुड़े ‘बायसन हार्न माड़िया’ जनजाति का उदाहरण देना अत्यंत प्रासंगिक है। इनका जीवन दर्शन ही सहजीवन पर आधारित है। इनके सारे पर्व, त्यौहार, शादी-ब्याह, मृत्यु संस्कार—सब कुछ प्रकृति के संरक्षण से जुड़ा हुआ है। कोई भी पर्व पेड़ की पत्ती के बिना नहीं होता, कोई विवाह तब तक नहीं होता जब तक वर और वधू दोनों मिलकर गांव के वनों में एक पवित्र पेड़ की पूजा न कर लें। मृत्यु पर ये लोग वृक्षारोपण करते हैं, क्योंकि उनके अनुसार जीवन और मृत्यु एक ही चक्र की दो छायाएँ हैं, जो पेड़ों की जड़ों में समाहित रहती हैं।
इनके प्रमुख उत्सव जैसे “माड़ी परब”, “लोगा परब”, या “बीज पोंडूम” सीधे बीज, मिट्टी, वर्षा और वनों के सम्मान से जुड़े होते हैं। इनकी पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली भी वनस्पतियों पर आधारित है, जिसमें हर पौधे को ‘देवता’ माना जाता है। इनकी दुनिया में बाजार नहीं, बोधन है; भोग नहीं, भक्ति है; और उपभोग नहीं, उपासना है।

market culture
आज की तथाकथित उपभोक्तावादी और बाजारवादी सभ्यता, जो हर चीज़ को ‘उत्पाद’ और हर व्यक्ति को ‘उपभोक्ता’ में बदल चुकी है, इन अबुझमाड़ के बायसन हार्न माड़िया लोगों के सामने खड़े होकर जैसे आईना देखती है—एक ऐसा आईना जो उसकी आत्मा का विकृत चेहरा दिखा देता है।
पश्चिम की पर्यावरण वेदों में से IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) पर्यावरण परिवर्तन पर बनी अंतरराष्ट्रीय कमेटी की रिपोर्ट साफ कहती है कि अगर वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर गया, तो मौसम की चरम घटनाएं जैसे हीटवेव, बाढ़, सूखा, और समुद्री तूफान मानव सभ्यता के लिए सामान्य हो जाएंगी। और हम उस रेखा को पार करने के एकदम करीब हैं।
भारत की राजनीति, जो हर साल चुनावी तापमान में उलझी रहती है, जलवायु के इस बढ़ते तापमान पर अब भी मौन है। घोषणाएं होती हैं, योजनाएं बनती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत में न तो वनवासी बचते हैं, न वन। पर्यावरण बजट में कटौती कर, और कंक्रीट के शहरों को जंगलों के बीच खड़ा कर हम किस विकास की बात करते हैं? यह विकास नहीं, विनाश का ब्लूप्रिंट है।

अब प्रश्न यह है कि इसका समाधान क्या है?

उत्तर एक ही है—वापसी। वापसी उस जीवन पद्धति की ओर, जो सदियों से इस धरती को पालती आई है। हमारे आदिवासी समाज, विशेषकर अबुझमाड़ के माड़िया लोग, जिन्होंने बिना कागज़ी डिग्रियों के जल-जंगल-जमीन के साथ समरसता में जीवन जिया, आज उनके पास ही वह समाधान है जो विज्ञान नहीं दे पा रहा। उनके परंपरागत बीज, वर्षा आधारित खेती, साझा संसाधन व्यवस्था, और सबसे बड़ी बात—प्रकृति के प्रति श्रद्धा—यही है हमारी अंतिम आशा।
संस्कृत में कहा गया है—“येन पर्यावरणं रक्षितं तेन जीवनं रक्षितं।” जिसने पर्यावरण की रक्षा की, उसने जीवन की रक्षा की। लेकिन हमने आधुनिकता के नाम पर वह हर चीज़ नष्ट की जो जीवन की रक्षा करती थी। छायादार वृक्ष काट डाले, नदी की धार को बांध डाला, हवा को जहर बना डाला। अब परिणाम भुगतने का समय है।
हमारे पास समय है—but only just. यानी कि बहुत ही कम, क्योंकि उल्टी गिनती चालू हो चुकी है। हमें नीतिगत बदलाव लाने होंगे, खेती के तरीकों को पारंपरिक और जैविक दिशा में मोड़ना होगा, जनजातीय ज्ञान को मुख्यधारा में लाना होगा, और सबसे ज़रूरी—प्रकृति से पुनः संवाद स्थापित करना होगा।

the earth is heating up
हमारा नीला ग्रह, यह “Blue Planet” आज आग का गोला बनता जा रहा है। अगर हमने अभी नहीं संभाला, तो ‘होमो सैपियन्स’ “Homo Sapiens” के लिए यह अंतिम अध्याय हो सकता है।
अंततः, यह लड़ाई किसी एक सरकार, एक देश या एक संगठन की नहीं है—यह हर मनुष्य की है। क्योंकि अगर वातावरण को हमने न बचाया, तो यह वातावरण हमें नहीं छोड़ेगा। और उस दिन कोई विकास, कोई तकनीक, और कोई सत्ता हमारी रक्षा नहीं कर सकेगी।
हमें प्रकृति के साथ नहीं, प्रकृति की तरह जीना सीखना होगा। यही एकमात्र विकल्प है। और विकल्प जब एक ही हो, तो निर्णय स्पष्ट होता है।
अब भी वक्त है। नहीं तो अगली गर्मी शायद आखिरी चेतावनी न होकर अंतिम प्रलय बन जाएगी।

लेखक :

डॉ. राजाराम त्रिपाठी 

प्रख्यात ग्रामीण अर्थशास्त्री, जैविक कृषि और पर्यावरण संरक्षण के विशेषज्ञ

आदिवासी समुदायों के सहयोग से सतत विकास के पक्षधर; एवं राष्ट्रीय संयोजक

अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)’

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