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प्रेम की जगह अनिश्चित है (कविता )

प्रेम की जगह अनिश्चित है

यहाँ कोई नहीं होगा की जगह भी कोई है।

आड़ भी ओट में होता है

कि अब कोई नहीं देखेगा

पर सबके हिस्से का एकांत

और सबके हिस्से की ओट निश्चित है।

 

वहाँ बहुत दुपहर में भी

थोड़ी-सा अँधेरा है

जैसे बदली छाई हो

बल्कि रात हो रही है

और रात हो गई हो।

 

बहुत अँधेरे के ज़्यादा अँधेरे में

प्रेम के सुख में

पलक मूँद लेने का अंधकार है।

 

अपने हिस्से की आड़ में

अचानक स्पर्श करते

उपस्थित हुए

और स्पर्श करते हुए विदा।

पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 29) रचनाकार : विनोद कुमार शुक्ल प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन संस्करण : 2012

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