TOP NEWS: “राम” राज बैठे त्रैलोका

रामराज्य

लोक-मानस में ‘रामराज्य’ की अवाधारणा एक न्यायपूर्ण समाज के स्वप्न के रूप में है. इस अवाधारणा को हिन्दी भाषी जाति के बीच लोकप्रिय बनाने का श्रेय तुलसीदास को है और आधुनिक भारतवासियों में उसे ‘सुराज’ से जोड़कर व्यापक स्वीकृति दिलाने में गाँधी का बड़ा योगदान है. भारत की और विश्व की जिन भाषाओँ में तथा लोककथाओं में राम का चरित प्रचलित है, सबमें राजा बनने के बाद का उनका जीवन भी वर्णित है. ऐसी तीन सौ ‘रामकथाओं’ का उल्लेख फादर कामिल बुल्के ने किया है. मैंने सभी न पढ़ी हैं, न यह संभव हुआ. लेकिन जिन रामकथाओं से हम परिचित हैं, उनके कथानक में बहुत अंतर है. इसे विविधता भी कह सकते हैं. इनमें सबसे प्राचीन वाल्मीकि की ‘रामायण’ है. लेकिन वाल्मीकीय रामायण रामराज्य के लिए नहीं जानी जाती. इसका श्रेय तुलसीदास को है जिन्होंने प्रारंभिक आधुनिकता की उथल-पुथल भरी परिस्थितियों में सगुण नायक राम का भरोसा दिया जो दीन-दुखियों की आत्मा के निकट है और उनके सहयोग से समाज को एक आदर्श का रूप देने में सक्षम है.

‘राम’ का कोई एक रूप नहीं बनता

इतनी रामकथाओं और इतने कवियों के वृत्तान्त से जनसमाज में व्याप्त ‘राम’ का कोई एक रूप नहीं बनता. उनके शासन का भी एक स्वरुप नहीं है. इसलिए काव्य से निर्मित चेतना को वास्तविकता मान लेने की कुछ समस्याएँ हैं. जैसे, राम के चरित्र और तुलसी के वर्णन में घालमेल कर देना. प्रायः देखा जाता है कि नयी चेतना के विचारक वाल्मीकि के कथानक और तुलसी के कथानक का फर्क न समझ कर राम की आलोचना करते समय तुलसी पर निशाना साधते हैं. इसीसे ज़ाहिर है कि लोकमानस में बसे राम का गहरा संबंध तुलसीदास से है. यहाँ कहना चाहिए कि ‘रामराज्य’ की जिस अवाधारणा का उपयोग स्वाधीनता आन्दोलन में हुआ अथवा वर्तमान राजनीति में हो रहा है, उसकी मूल बातें रामचरित के वाल्मीकीय वृत्तान्त से न होकर तुलसी की परिकल्पना से हैं. सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि परंपरा से प्राप्त राम के स्वरुप, रामराज्य की विशेषताओं और स्वयं तुलसी के वर्णन में न केवल बहुत अंतर है बल्कि इन सबमें गंभीर अंतर्विरोध भी हैं. वाल्मीकि के राम राजा की तरह पहला काम करते हैं सीता का परित्याग. ‘रामायण’ के युद्धकाण्ड के अंत में अयोध्या पहुँचने से पहले ही राम यह स्पष्ट कर देते हैं कि ’प्राप्तचारित्रसंदेहा मम प्रतिमुखे स्थिता.’ (तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है; फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो.) (६/११५/१७) वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि रावण को पराजित करके उसके चंगुल से तुम्हे छुड़ाने के लिए ‘युद्ध का परिश्रम…तुम्हे पाने के लिए नहीं किया किया गया है.’ (६/११५/२, १५) और राजकाज सँभालने के बाद सबसे पहले ‘लोकोपवाद’ के कारण सीता को त्याग देते हैं.

सीता के त्याग को लेकर राम की आलोचना

तुलसी के राम सीता को न कटुवचन बोलते हैं, न उनका परित्याग करते हैं. राम और सीता का संबंध इस तरह अविच्छेद्य है कि तुलसी ‘सीयराममय सब जग जानी करहुं प्रनाम जोरि जग पानी.’ राम सीता के लिए संघर्ष कर सकते हैं, उन्हें त्याग नहीं सकते. अधिकांशतः प्रगतिशील और नारीवादी लोग सीता के त्याग को लेकर राम की आलोचना करते हैं. वे यह नहीं देखते कि राम का जीवन दो स्पष्ट भागों में बंटा है—राजा बनने से पहले और दूसरा राजा बनने के बाद. राजा बनने से पहले राम बचपन में अवध की गलियों में सामान्य बच्चों के साथ खेलते हैं, वनगमन के बाद समाज के उपेक्षित-बहिष्कृत लोगों के साथ रहते हैं, केवट, जटायु, शबरी के निकट हैं, अहल्या के उद्धारक हैं; राजा बनने के बाद राम केवट की बिरादरी के शम्बूक का वध करते हैं, शबरी की सहोदरा सीता का त्याग करते हैं, जबकि अहल्या जानते-बूझते हुए इंद्र से समागम करती हैं और सीता अग्नि परीक्षा देकर अपनी निर्दोषता सिद्ध करती हैं. यह अंतर्विरोध राम के संघर्षशील जीवन और शासक के जीवन का भेद उपस्थित करता है. वाल्मीकि और भवभूति की रामकथा में यह राजा राम का कलंकपूर्ण जीवन है, तुलसी के लिए रामकथा के यह अंश ही त्याज्य है. सीता का अलग से उल्लेख यही है कि ‘पति अनुकूल सदा रह सीता. सोभाखानि सुसील विनीता..’ (७/२३/२) तुलसी के लिए बात केवल राम और सीता की नहीं है, सामाजिक जीवन में दांपत्य के निर्वाह की है. खुद उनका दांपत्य किसी कारण नहीं चला. रामराज्य तब आदर्श होगा जब सामान्य नागरिक का दांपत्य निभे. इसके लिए राम उदहारण प्रस्तुत करते हैं. रामराज्य की विशेषताओं में एक यह है कि ‘एक नारिव्रत रत सब झारी. ते मन क्रम वच पति हितकारी.. दशरथ के तीन रानियाँ थीं, आपस की इर्ष्या में वे राम के वनगमन और दशरथ की मृत्यु का कारण बनीं. रामराज्य में सभी पुरुष एक्नारिव्रत रहते हैं इसलिए पत्नियाँ पति की हितकारी हैं. इसमें कार्य-कारण संबंध है.

तुलसी ‘रामराज्य’ का आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे

जैसा पहले कहा गया, तुलसी के लिए रामकथा का अंत रामराज्य की स्थापना के साथ हो जाता है. उसके बाद राम के जीवन में उन्हें सार नहीं दिखता. जितना उनका संघर्ष विषम, बहुमुखी और व्यापक था, उतना ही ऊँचा रामराज्य का आदर्श था. हम जानते हैं कि ‘रामचरितमानस’ में कथा का अंत राम के राजा बनने के साथ हो जाता है. तुलसी रामराज्य का वर्णन बड़े मनोयोग से करते हैं. प्रारंभ ही में वे कहते हैं: ‘राम राज बैठे त्रैलोका. हर्षित भये गए सब शोका.. बयरु न कर काहू सन कोई. रामप्रताप विषमता खोई..’ अब कोई किसी से वैर नहीं करता क्योंकि राम के प्रताप से विषमता का अंत हो गया है. विषमता और दरिद्रता तुलसी के सबसे बड़े अनुभव थे. रामराज्य अगर इन समस्याओं का हल न करे तो उसका क्या लाभ? कलियुग की पहचान थी—कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै. यह अनुभव तुलसी का\ निजी था और उनके जैसे करोड़ों भारतवासियों का भी. जनसाधारण के अनुभव में अब तक कोई मौलिक अंतर नहीं आया है. इसीलिए रामराज्य का स्वप्न तुलसी के काव्य से निकलकर लोकमानस में घर बना सका और वह आज भी प्रेरित करता है. उल्लेखनीय है कि  १६वीं सदी में जिस समय तुलसी ‘रामराज्य’ का आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे, उसी समय इंग्लैण्ड में टॉमस मोर ‘यूटोपिया’ की रचना कर रहे थे. टॉमस मोर को मृत्युदंड मिला, तुलसी को बनारस के ब्राह्मणों द्वारा लाठी-डंडे मिले! अब यही पण्डे-पुजारी तुलसी और उनके आदर्श का राजनितिक उपयोग कर रहे हैं. प्रारंभिक आधुनिकता के समय व्यापार-वाणिज्य ने संसार को परस्पर जोड़ा ही नहीं, सर्वत्र एक जैसी आकांक्षाएँ भी जगाईं. तुलसी के अवध में नगर तो सजा ही है, साथ ही, ‘बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गत पाइए….बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुं कुबेर ते.’

मानस के बाद ‘कवितावली’

   दूसरी बात यह कि तुलसी अपने रुचिकर प्रसंगों को बार-बार मनोयोग से रचते हैं. लंकादहन का दृश्य मानों उन्हें परितृप्त करता है. मानस के बाद ‘कवितावली’ में उसे और रूचि से गढ़ते हैं. इसी तरह रामराज्य उन्हें अपनी और प्रजा की पीड़ाओं का अंत प्रतीत होता है. मानस के बाद ‘दोहावली’ में उसे नए आयामों में विस्तृत करते हैं. मानस में विषमता के साथ विविध तापों का भी अंत होता है, ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा. रामराज नहिं काहुहि व्यापा..’ चूँकि ‘तुलसी तिहूँ दाह दहो है’, इसलिए उन्हें तीनों प्रकार के दाहों का दुःख पता है. उनके रामराज्य में विषमता तो मिट गयी, वर्ण समाप्त नहीं हुए. बेशक, उनका विरोध-वैषम्य समाप्त हो गया. सरयू में राम-लक्षमण के साथ चारों वर्ण के लोग साथ-साथ नहाते हैं. शुद्र-विरोधी तुलसी न दलितों का अलग घाट बनाते हैं, न शम्बूक का वध करते हैं! रामराज्य की दो बातें महत्वपूर्ण हैं. एक, राजा का आचरण. राम कहते हैं कि ‘जौ कछु अनुचित भाषहूं भाई, तौ मोहि बरजेउ भय बिसराई.’ (मानस, ७/४३/२-३) प्रजा राजा के अनुचित कृत्य पर रोक लगाये—यह इतना लोकतान्त्रिक है कि २१वीं सदी में भी सपना ही है! दूसरा, राज्य की नीति. ‘दोहावली’ में कहा गया है: ‘मणि माणिक महँगे किये, सहँगे तृण जल नाज. एते तुलसी जानिए राम गरीब नेवाज’. यह राम की अर्थनीति है. जनता के उपयोग की वस्तुएँ संस्ती कर दीं, विलासिता के साधन महँगे. राम ‘गरीब नवाज’ हैं. क्या ‘रामराज्य’ की राजनीति भी इस अर्थनीति पर चलती है?

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