राजाराम त्रिपाठी (अध्यक्ष सीएचएएमएफ और एआईएफए, सदस्य सचिव एपीजीएआई एनएचबी भारत सरकार, सदस्य एनएमपीबी आयुष मंत्रालय भारत सरकार,) के सोशल मीडिया पोस्ट से। https://www.facebook.com/drrajaram?mibextid=ZbWKwL
असल मायने में आजादी क्या होती है? यह सवाल आज भी कई लोगों के लिए अनभिज्ञ है। विकास से क्या मायने है उससे समाज के इन लोगों का परिचय नहीं है। जिसमे छत्तीसगढ़ के वस्तर में रहने वाले ये आदिवासी समुदाय की गिनती भी इसी में आती है।
आदिवासी समुदाय
बस्तर के घनघोर जंगलों के बीच बस छोटा सा गांव आज भी मुख्य धारा से काफ़ी पीछे है। ये समुदाय उन मूल निवासियों में से हैं जिनके पूर्वजों ने हजारों साल पहले बस्तर की लोहे की पहाड़ियों से लौह पत्थर लाकर, उसे गलकार इस धरती पर सबसे पहले लोहा बनाया था। टाटा से भी पहले और अन्य उन सभी से पहले,जो इस बात का दावा करते हैं।
आदिवासी लोगों का जीवन।
इनका रहन सहन, बोली भाषा ,देवी देवता, तिथि त्योहार ,शादी विवाह जीवन मरण संस्कार, गीत संगीत ,नृत्य, बाजे, खानपान, कपड़ा लत्ता, घर की बनावट सब कुछ अन्य आदिवासियों की भांति ही है, क्योंकि यह उन्हीं में से एक रहे हैं हमेशा। सदियों सदियों से। यहां तक कि इनके कुल गोत्र, टोटम सभी अन्य सहजीवी आदिवासियों की भांति ही हैं। किंतु आजादी के उपरांत संभवतः त्रुटिपूर्ण विधिक सर्वेक्षण की अक्षम्य गलती के कारण इन्हें आदिवासियों से विलग मान लिया गया और उस छोटी सी गलती की अंतहीन कठोर सजा पिछले लगभग 70 सालों से यह समुदाय भुगत रहा है।
इनके पास ना तो खेती की जमीन है और ना ही जल जंगल जमीन का शाश्वत नैसर्गिक अधिकार। और सर्वव्यापी वैश्विक बाजारवाद के चलते कल-कारखानों की बनाई कुल्हाड़ी, फावड़े ,गैंती , छुरी व सभी जरूरी कृषि औजार अब इनके द्वारा कठोर श्रम कर, भट्टी में अपने आप को तपाकर अपने हाथों से बनाए गए बनाए गए कृषि औजारों की तुलना में काफी सस्ते पड़ते हैं। इसलिए इनका लोहे का कार्य भी पिछले कई दशकों से लगभग समाप्त हो चला है।
Independence Day पर छत्तीसगढ़ के गांवों को तोहफा , गाँवों में पहली बार बिजली आपूर्ति।
स्थानीय छात्रावासों में भी इन के बच्चों के लिए जगह नहीं होती। कुछ परिवार लौह शिल्प कला की ओर उन्मुख हुए हैं और किसी तरह जीवन यापन करने की कोशिश कर रहे हैं।