समाजवाद के बल पर स्कूल की कप्तानी
(16) मेरे पिता तो सुभाषचंद्र बोस के ,फालोअर थे। नेहरू, गांधी, सुभाष, तिलक पर भाषण दे देकर मैं भी स्कूल में भाषण और निबंध प्रतियोगिताओं में इनाम पाता रहा। 17 वर्ष की उम्र में 11 वीं क्लास में पहुंचने पर राममनोहर लोहिया नाम के मनुष्य से सामना पड़ा। पता नहीं क्यों मैं उनके प्रभामंडल के चंगुल में आ गया। समाजवाद के बल पर स्कूल की कप्तानी का चुनाव लड़ा और जीत गया। 4 साल बाद काॅलेज यूनियन का चुनाव समाजवाद के सहारे लड़ा और फिर जीत गया। हालात के बदलते 1972 में कांग्रेस पार्टी में शामिल हुआ और 25 साल से ज्यादा वहां रहा। फिर तो राजनीति को ही छोड़ दिया।
(17) रायपुर काॅफी हाउस में समाजवादियों का साथ मिला। उसने जीवन को विचार के इलाके में दाखिल होने के लिए बार बार न्यौता दिया। मुझे कई बार लगता है छत्तीसगढ़ के बडे़े समाजवादी नेता पुरुषोत्तमलाल कौशिक गैरजरूरी विनम्रता के साथ रहते थे। उनकी शराफत आकर्षित करती थी। मैं घंटों काॅफी हाउस में बैठकर कौशिक जी को समाजवाद पर लेक्चर देता रहता था। लोहिया से अपने संपर्क की अप्रत्याशित घटना के बावजूद मैं नहीं जानता था कि कौशिक जी मुझे शराफत में सुन रहे हैं या वे एक समाजवादी कार्यकर्ता को अपने बाड़े से बाहर नहीं जाने देने का हौसला कायम रख रहे होंगे।
आते तो एक अच्छे वकील एच. वी. नारवानी भी थे। नारवानी में किसी भी हालत में समझौता करने वाला तत्व मुखर नहीं होता था। वे बहुत परिश्रमी और तर्कशील व्यक्ति थे। किसी भी स्थानीय मुद्दे पर या राजनीतिक समझ को लेकर नारवानी के साथ जिरह करना या उन्हें सुनना दोनों ही मुफीद होते थे। उनके चले जाने से काॅफी हाउस की धड़कनों में गिरावट हो गई। इन सबके गुरु एडवोकेट कमलनारायण शर्मा एक खांटी गांधीवादी लोहियावादी थे। उनका चरित्र गर्म तवे की तरह था जिस पर भ्रष्टाचार की पानी की बूंद गिरना चाहे। तो छन्न करके उड़ जाती। मैं तो मुदर्रिस था। समाजवादी वकीलों को काॅफी हाउस में बैठने का बहुत समय मिलता था।
समाजवादी ज्यादातर सड़क पर ही रहते थे
(18) यह गलती कांग्रेसी वकील बहुत कम करते रहे। कांग्रेसी नेता आपस में युवा पीढ़ी से बहस और जिरह करने में भरोसा नहीं रखते। उनकी सत्तालोलुपता ऐसा करने से उन्हें रोकती है। मैं उन्हें आज भी औडम बौडम ही समझता हूं। पता नहीं गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, सुभाष अपनी संततियों को ठीक पढ़ा लिखा नहीं पाए। इसीलिए कई ने पार्टी छोड़ दी। समाजवादी ज्यादातर सड़क पर ही रहते थे। तब भी खुद को बौद्धिकता के विश्वविद्यालय का कुलपति समझते रहे। यही काॅफी हाउस में होता रहता था। हमें लगता था कि हम किसी प्रबुद्ध विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग में बैठकर प्राध्यापकों की तरह रिसर्च को लेकर जिरह में तल्लीन हैं। मुझसे उम्र में थोड़े छोटे लेकिन हमउम्र रमेश वर्ल्यानी भी जोशीले समाजवादी थे। वे कोई बात बोलते थे, लेकिन उसी वक्त ठीक दूसरी बात उनकी आंखों में सवाल बनाकर पूछती रहती। ऐसा हुनर तो रमेश में ही था। वह माहौल को गंभीर लेकिन तनावरहित बनाए रखता था। समाजवादी जीवनलाल साव महासमुंद से कई बार काॅफी हाउस आते थे हम लोगों की सोहबत में। लगता था जैसे वे रायपुर और कोई कारण से नहीं काॅफी हाउस में बैठकर गपियाने ही आए हैं। घंटों की सोहबत मिनटों की तरह लगती और फिर किसी अगले दिन की चाह में।
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(19) मेरे लिए महत्वपूर्ण था कि महात्मा गांधी सौ बरस के हुए। 2 अक्टूबर 1969 को पुरुषोत्तम कौषिक और जीवनलाल साव ने एक बड़ा परिसंवाद महासमुंद में गांधी जी को लेकर किया। वैसा कांग्रेसियों ने कभी नहीं किया। आज भी नहीं करते हैं। दादा भाई नाइक और अगली पीढ़ी के प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक कृष्णनाथ के साथ मुझे फिर अगली पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में व्याख्यान देने के लिए चुना गया था। यह मेरे लिए गौरव का क्षण रहा था। मेरा व्याख्यान सुनते ही कृष्णनाथ ने अपनी यात्रा की टिकट मुल्तवी कर दी। फिर तो उनसे बहुत घनिष्टता हो गई उनके अंतिम समय तक। लोहिया के सच्चे चेलों में यही तो एक बात है कि कुछ मिले ना मिले। लेकिन वचनों से दूर नहीं हो सकते। धन तो वे कमा ही नहीं सकते। काॅफी हाउस को अपना घर समझते समाजवाद की जितनी तालीम मुझे लोगों से मिली। उनमें छत्तीसगढ़ के अपने समय के रहे सबसे मशहूर वकील वी. के. मुंशी का नाम जरूर है। समाजवादी तबियत के मिन्टो भैया महफिल की शान होते थे। बहुत ऊंची आवाज में बोलते मुझे उस वक्त बहुत अच्छे लगते थे। जब पूरे काॅफी हाउस में आकर्षण का केन्द्र होकर वे मेरी किसी बात का अपनी शैली में समर्थन कर देते। कई और जूनियर साथी रहे हैं। जो इस यज्ञ में समिधा बनते रहे। मनोज दुबे, अंबर शुक्ला जैसे बहुत से नाम होंगे। उम्र का दोष होने के कारण मैं कई नाम भूल भी तो रहा हूं।
(20) यही तो दिल्ली के टी हाउस में भी होता था। जब वहां कनाॅट प्लेस में ऐसा कोई केन्द्रीय काॅफी हाउस नहीं था। टेंट जैसे लगे संरक्षण में सैकड़ों कुर्सियों वाला टी हाउस अपने समय की दिल्ली की धकड़न तो था। उससे भारत की राजनीति में सुगबुगाहट होती थी। पत्रकारिता को उसके ब्रेकिंग न्यूज़ जैसे अवतरण के मौके मिलते थे। उस टी हाउस की भूमध्य रेखा पर जो बौद्धिक बैठा होता था, वही तो राममनोहर लोहिया था। उस जमाने के बुद्धिजीवी लेखक, पत्रकार, कवि, संस्कृतिकर्मी अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल, रघुवंश, कृष्णनाथ, अशोक वाजपेयी, ओंकार शरद, विजय देवनारायण शाही, त्रिलोक दीप, निर्मल वर्मा, ओमप्रकाश दीपक, कृष्णनाथ और न जाने कितने होंगे। उन्होंने देश की धड़कनों को अपनी प्रज्ञा के जरिए जीवन्त करना सिखाया था। वही तो मोटे तौर पर ‘दिनमान‘ नामक संज्ञा बनकर ख्यातनाम हुआ था। नाम भले ‘दिनमान‘ था लेकिन विस्मृति के अस्ताचल में डूब तो गया। यादें ही खुरच खुरचकर वह सब किस्सागोई कर रही हैं।
काॅफी हाउस को बुद्धिजीवियों का अड्डा
(21) अधबीच बहस में वर्ल्यानी बोलते। ‘हम लोग काॅफी हाउस को बुद्धिजीवियों का अड्डा बनाकर मानेंगे। हमारे नेता डाॅक्टर लोहिया दिल्ली में यही तो करते रहते हैं? उन्होंने टी हाउस में या काॅफी हाउस में बैठकर शहर के बौद्धिकों को अपने आसपास इकट्ठा कर लिया है। दही बिलोकर ही उसमें से मक्खन निकाला जाता है। यही डाॅक्टर साहब का हुनर है कि मुट्ठी भर साथी होने के बावजूद अपनी काॅफी हाउस संस्कृति की आदत के चलते संसद को हिलाकर रखते हैं। हम लोग कम से कम छत्तीसगढ़ को तो हिलाएं। कौशिक जी काॅफी को इतने सलीके से धीरे धीरे पीते। कई बार लगता कि ये कहीं कांग्रेसी तो नहीं हो गए हैं। उद्दंडता में नफासत और नफासत में उद्दंडता कौन ज्यादा कौन कम मिकदार में है। यही तो समाजवादियों का तेवर रहा है। जब तक समाजवादी खेमा जीवित जागृत रहा। काॅफी हाउस गुलजार रहा करता।(जारी रहेगा)