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राम से ज्यादा किसी ने खोया भी नहीं

राम भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े स्वप्न और यथार्थ एक साथ हैं। राम ऐतिहासिक कहे जाते हैं और पौराणिक भी। राम का असर लोकतंत्र की अंकगणित के लिहाज से हिन्दुस्तान के अवाम पर सबसे ज्यादा है। असंख्य हिन्दुओं ने मौत के बाद लगाए जाने वाले सामाजिक नारे को राम के साथ कर दिया है। तैंतीस करोड़ देवी देवताओं के बावजूद राम आखिरी सच हैं। इतिहास के सबसे एकनिष्ठ पति होने पर भी सीता के निर्वासन के लिए तमाम औरतें उन्हें माफ नहीं कर पा रही हैं। राम से ज्यादा सांस्कृतिक इतिहास में अन्य किसी ने खोया भी नहीं है। पत्नी, बच्चे, मां-बाप, राजपाट, भाई बहन, परिवार, नगर, समाज या जीवन का समन्वित सुख? अपरिमित दैवीय शक्ति लिए वे बेचारे मनुष्य बने सहानुभूति बटोरते प्रतीत होते हैं।

राम का देवत्व हमारे काम क्या खाक आएगा जब वह उनके काम नहीं आया। राम असल में इस देश के बहाने पूरी दुनिया में लोकतंत्र का थर्मामीटर और मर्यादा का बैरोमीटर हैं। वे जनतंत्रीय चिंतन के सभी प्रश्नों के अनाथालय है। वे कुतुबनुमा हैं। जिधर राम हैं उधर ही उत्तर है। अयोध्या की भूगोल में नहीं। उनको लेकर चलाई गई साम्प्रदायिक बहसें ठीक अयोध्या में दम तोड़ती नज़र आ रही हैं।सबसे बड़े, पहले और अकेले लोकतंत्रीय शिखर पुरुष राम ने राजनीतिक भाषा का ककहरा पढ़ाने की स्थापना की। वे वास्तविक, वैधानिक प्रजातंत्र के मर्यादित नेता थे। राम ने उस अंतिम व्यक्ति का सम्मान किया जिसे रस्किन ने गांधी की चिन्ता के खाते में डाला था। वे दुनिया में लोकतंत्र का थर्मामीटर और मर्यादा का बैरामीटर हैं। वे जनतंत्रीय चिन्तन के उपेक्षित प्रश्नों के अनाथालय हैं। वे कुतुबनुमा हैं। जिधर राम होते हैं, उधर ही उत्तर है। राम को कई रूपों, घटनाओं, व्यवहार, शक्लों और फितरतों में अवाम ढूंढ़ता है। तुलसीदास ने राम का सबसे ज्यादा लोकव्यापीकरण किया। लाखों घरों की सांसों में रामचरितमानस ने पैठ जमा ली। राम के चेहरे पर करुणा के कंटूर हैं। राम सांस्कृतिक मुहावरा हैं। हिदुस्तान के जीवन की एक शब्द में पहचान हैं।

राम को आदिवासियों, दलितों, पिछड़े वर्गों, मुफलिसों, महिलाओं और पशु पक्षियों तक की सेवा के अवसर मिले। बिना कुब्जा, अहिल्या, शबरी, हनुमान, सुग्रीव, जटायु के वंशजों से विमर्श किए राम नहीं हैं। राम केवल अयोध्या नगर निगम के मतदाता नहीं हैं। राम का लोकतंत्रीय आचरण पाठ्यक्रम से हटा दिया जाता है। शबरी, जटायु, त्रिजटा, सुग्रीव जैसे चरित्र सांस्कृतिक हाशिये पर धकेले जाते हैं। रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद वगैरह तख्ते ताऊस पर कब्जा करते हैं। काल दहाड़ें मारकर रोता है। सदियां बेवा की तरह चीखती हैं। परम्पराएं मवाद से भर जाती हैं। इत्तिहाद, अदमतशद्दुद, मजहब, ज़मीर, सुकून जैसे शब्दों का हिन्दी में अनुवाद उपलब्ध नहीं हो रहा है। भारत, भारतीयता, वंदेमातरम्, राष्ट्रवाद जैसे शब्दों पर पेटेंट हो गया है। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का भी। विचारों की लड़ाई में जीतना है तो राम के चरित्र की कथा घर घर बताने वाली पार्टी ही केन्द्रीय हो सकती है।

असाधारण प्रेमी, पत्नीपरस्त, राजसत्ता से निरपेक्ष रूप में अपनी जगह सुरक्षित रखने के बदले राम ने नियमों और मर्यादाओं के नाम पर दाम्पत्य जीवन, पुत्र मोह, परिवार सुख और सत्ता की बलि चढ़ा दी। खुद को अत्याचारी के रूप में कलंकित कर लिया लेकिन मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया। शिकायत करने का सार्वजनिक अधिकार राम की वजह से जिन्दा है। हर मुसीबतजदा, अन्यायग्रस्त, व्यवस्थापीड़ित व्यक्ति के दिल में जो साहस है, उसमें राम की बाती है। राम परिवारवादी नहीं थे। लक्ष्मण और सीता को छोड़ लंका विजय तक कोई रिश्तेदार नहीं था। उन्होंने दलितों का साथ लिया। आदिवासियों को लोकतंत्र के युद्ध का साहसिक पुर्जा बनाया। आज राजनेता अपने परिवारजनों के कारण मारे जा रहे हैं। सत्ताधीश खुद के खर्च से प्रायोजित मौसमी संस्थाओं की नकली उपाधियों से अपनी रामलीला में रमे हैं। अभियुक्त न्याय सिंहासन पर काबिज हैं। विद्वानों का स्थान सेवानिवृत्त, त्यागपत्रित और बर्खास्त नौकरशाही धीरे धीरे ले रही है। वे रामराज्य के धोबी की लोकभाषा नहीं बल्कि शासन का अहंकार हैं।

राम फिर सांसत में हैं। राम का जीवन एकांतिक है। राम को भीड़ के नारों की लहरों पर बिठाया जाता है। विष्णु, ब्रह्मा और शिव के मुकाबले राम जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर मृतक का साथ सबसे ज़्यादा देते हैं। ‘जयश्रीराम‘ के उत्तेजक नारे से छिटका हर आदमी हिन्दू विश्वास में बहता है कि आखिरी यात्रा पर चलेगा, उसके पीछे ‘राम नाम सत्य है‘ गूंजेगा। राम सदियों से देश के बहुत काम आ रहे हैं। देश उनके काम कब आएगा? लोग आपस में मिलते ही ‘राम राम‘ कहते हैं। वीभत्स दृश्य या दुखभरी खबर मिले तो भी मुंह से ‘राम राम‘ निकल पड़ता है। लोग ‘जयराम‘ कहने के बदले ‘जयसीताराम‘ क्यों नहीं कहते। राम भारत की आत्मा हैं।

राम हमारी दार्शनिक यात्रा के मील के पत्थर हैं। उनके साथ भारतीय इतिहास अपनी जांच करता है। राम इक्कीसवीं सदी के वातायन हैं। राम को जांचने की को​शिश लोकतंत्रीय चुनौती है। उसके अक्स को समझे बिना साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से लड़ाई नहीं जीती जा सकती। जाहिर है साम्प्रदायिक कठमुल्लापन हिन्दू और मुसलमान दोनों में है। राम उत्तर-दक्षिण एकता के नायक हैं। कृष्ण हमारी पूरब पश्चिम एकता की धुरी बने। राम देशांश और कृष्ण उसके अक्षांश हैं। राम के पास केवल सच का हथियार था। वही एक आधारभूत स्थापना के लिए काफी था। देश के सबसे बड़े, पहले और अकेले लोकतंत्रीय शिखर शासक पुरुष राम ने भारत को राजनीतिक भाषा का ककहरा पढ़ाने के विश्वविद्यालय की स्थापना की। लोकतंत्र को राम-मूल्यों से बींधने की कोशिश में सीता का निर्वासन राम के बेदाग जीवन पर न धुलने वाला कलंक तो है। साथ ही यह भी है कि शासक नियम और कानून से बंधने के बाद हर शिकायत की जांच के लिए प्रतिबद्व है। यह उसकी संवैधानिक शपथ का तकाजा है।

राम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा उच्चतम न्यायालय खुद थे। फिर भी उन्होंने सब कुछ नष्टकर लोकनीति और न्यायिक निष्कपटता सुनिश्चित की। राम वास्तविक, वैधानिक प्रजातंत्र के मर्यादित नेता थे। राम का मंत्रिमंडल संविधान वेष्ठित नहीं था। वे जानते थे कि एक व्यक्ति द्वारा लिए गए निर्णयों के खतरे ज्यादा होते हैं। इसके बावजूद राम ने उस अंतिम व्यक्ति का सम्मान कर निर्णय किए जिसे रस्किन ने गांधी की चिन्ता के खाते में डाला था। राम मंदिर में धार्मिक व्यक्ति की शक्ल में सर झुकाने वाले राजनेता अपने काबीना सहयोगियों को ‘यसमैन‘ बनाकर खुद को महिमामंडित करना चाहते हैं। यह राम का रास्ता नहीं है। अपनी विद्या का गलत प्रयोग करने के बावजूद रावण के पास राम ने भाई लक्ष्मण को शिष्टाचार सीखने भेजा। राम परिवारवादी नहीं थे। लक्ष्मण और सीता को छोड़कर लंका विजय तक कोई रिश्तेदार साथ नहीं था। उन्होंने दलितों, आदिवासियों को लोकतंत्र के निर्णायक युद्ध का साहसिक पुर्जा बनाया।

गांधी की उत्तराधिकारी कांग्रेस ने राम को फकत हिन्दुओं का सरगना समझ लिया। इतिहास दंड दे रहा है। संघ परिवार के राम में उच्च वर्गों की जय है। धनपतियों का श्री है। फिर पीछे राम हैं। ये लोग मिथकों को मुहावरों में तब्दील करने के विशेषज्ञ हैं। संघ परिवार ने गांधी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम‘ को बापू की झोली से निकालकर ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं।‘ के रंग में रंग दिया। राम को संघ परिवार के लोग कांग्रेस से उठा ले गए हैं जिसके सबसे बड़े मसीहा ने छाती पर गोली खाने के बाद ‘हे राम‘ कहा था।

धार्मिक और राजनीतिक माहौल में राम को लेकर इतना हंगामा बरपा है। वह खुद राम को नागवार गुजरे। देश ने सामूहिक चुनौती ली होती कि ऐसा राममन्दिर बनाएगा जिसके मुकाबले धरती पर कोई दूसरा धर्मगृह नहीं होगा। तो इस प्रकल्प में राम खुद मदद करते। सब मिलकर राममन्दिर और बाबरी मस्जिद को लेकर एक जैसा क्यों नहीं सोचते? करोड़ों ग्रामीण राम की शिक्षाओं के अनुकूल संवैधानिक आचरण कर रहे हैं। ‘जयश्रीराम‘ की आड़ में संकीर्ण हिंसा और कारपोरेटी धनलिप्सा की जीभों को हिलाने खुला आसमान भी मिल गया है। अपने सच्चे पारमार्थिक अर्थ में धर्म हिंदुस्तान की जनता का अस्तित्व है। धर्म की हेठी औसत भारतीय को कुबूल नहीं है।

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