...

सतत् छत्तीसगढ़

Home Chhattisgarh News कहां हो,रायपुर काॅफी हाउस?

कहां हो,रायपुर काॅफी हाउस?

कनक तिवारी

by satat chhattisgarh
0 comment
Where is Raipur Coffee House?
(1) जिंदगी की ढलान के दिनों में वे दिन सघन हो जाते हैं जो जेहन में संस्कार रचते, गढ़ते गए होते हैं। वैसी पूंजी के ब्याज से इकट्ठी हो खुशियों, एडवेंचर और जोखिम का भी हिसाब किताब सांस्कारिक होता चलता है। जीवन जीने लायक ही होता है, यही तो उस उम्र में सीखते हैं जिसे उल्लास नौजवानी कहता है। सत्रह बरस की उम्र में रायपुर के साइंस काॅलेज में भर्ती हुआ था। उसी काॅलेज में अंगरेजी व साहित्य पढ़ाते जीवन के शुरुआती 12 साल निकाले। भूगोल में नहीं, इतिहास में रायपुर कहता और समझता हूं। दूसरों को क्या, खुद को जानने का अहसास भी मुझे रायपुर ने दिया। साइंस काॅलेज, रायपुर के दोस्तों, फिर विद्यार्थियों, सहकर्मियों, वरिष्ठों के साथ जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक हिस्सा बीता। फिर तो अनुभवजन्य दुहराव तिहराव ही हुए। देह पर गोश्त चढ़ा और दिमाग पर अहंकार। देह भी बेडौल होती गई। विचार विकृत भी होते रहे। वह लेकिन जीवंत प्रज्ञा थी जिसने युवा होने के अहसास में जीस्त का आशियाना ढूंढ़ लिया था। उस आशियाना का ही नाम है रायपुर का रजबंधा स्थित काॅफी हाउस। प्राध्यापकी के दिनों में गैरशादीशुदा मैं नौजवान पूरी तनख्वाह उड़ाने के लिए पहली ही बार आज़ाद और खुद मुख्तार हुआ था। सप्ताहांत के दो दिनों में तो समय को बंधक बनाकर काॅफी हाउस में घुसना और तब तक बैठे रहने की जुगत बिठाना जब तक दरवाजे बंद करने की हालत आते आते रुखसत होने के लिए वहां का स्टाफ हाथ न जोड़ने लगे।
(2) कितना जीवंत रहा है मेरा ऐसा वाला काॅफी पिलाता रायपुर का काॅफी हाउस! स्कूल के जमाने से मेरे बड़े भाई रम्मू श्रीवास्तव की मोहक मुद्राएं। उनकी बतकहियां। किसी भी राजनेता, विधायक या अफसर को यूं झिड़कना मानो रम्मू भैया उसी विधा के विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। चुटकुले, लतीफे, कटाक्ष, सहमति, असहमति, किस्से, कहानियां, गप्पें। यही तो काॅफी हाउस के गर्भगृह में सांसों की हमारी धकड़नें रही हैं। अब तो रायपुर के पत्रकारों की नई पीढ़ी तक को बोधनकर याद नहीं होंगे। वे ‘हितवाद‘ के ब्यूरो प्रमुख होते हमारे संस्कारों की भाषा की अंगरेजियत को मार्केट सुलभ बना देते। बोधनकर की याद आने से बेहद तमीजदार, अखबारनवीस जेहन में आकर पैठ जाता है। पूछ रहा है ‘यार हमारा वो समय कहां गुम हो गया? तुमने तो बताया भी नहीं। अब तो टुच्चई को भी पत्रकारिता कहा जाता है।‘ राजनीतिक चिंतन से फारिग आज की सियासत को कवर करने वाले कलमकार अखबारनवीसों को नेता अपने इजलास का विदूषक या किराए का टट्टू क्यों समझने लगे हैं। कई पत्रकार मंत्री या राजनेताओं के दरबार में कोर्निश क्यों बजाते रहते हैं? यह काम मायाराम सुरजन, रामाश्रय उपाध्याय, ललित सुरजन, राजनारायण मिश्रा, सुनील कुमार, सत्येन्द्र गुमाश्ता, बसंत कुमार तिवारी बल्कि बाद की पीढ़ी के रुचिर गर्ग और आलोक प्रकाश पुतुल सहित और सहकर्मियों ने नहीं करते हुए देशबंधु की प्रतिष्ठा बचाए तो रखी। इनमें से कई काॅफी हाउस में पेशे नज़र होते ही रहते थे।
(3) रामाश्रय उपाध्याय से बहस मुबाहिसे में निपटना असंभव काम था। पंडित जी के हाथ में जलती सिगरेट हो। सामने काॅफी का कप हो। दो चार श्रोता आसपास मुसाहिबों की मुख मुद्रा लेकर बैठने की स्वान्तः सुखाय भूमिका में हों। फिर सुनो पंडित जी से किस्से ही किस्से। ‘क्या ससुरा वह जानता है?‘ पंडित जी का अहम बताता। वे धाराप्रवाह पांडित्य में इतिहास, भूगोल, सामाजिकता, राजनीति सबका बखान करते। उनका साथ जीवन को इतनी भुरभुरी देता था कि लगता था जिंदगी में सबसे अच्छा काम जिंदादिली के साथ जिंदा रहना ही है। कहां चले गए पंडित जी? तुम्हारा सफेद कुरता, पाजामा, तुम्हारी बोलती हुई आंखें, तुम्हारा धीरे धीरे सड़कों पर सरकना, लेकिन बहुत तेज गति से तर्कों की व्यूह रचना करना हमारे सुनने देखने के भी नसीब में था। वह नसीब तो बर्फ की सिल्ली की तरह जिंदगी की आपाधापी की गर्मी में पिघल गया। यादों से गुम हो गया। बस तुम्हारी कई यादें बाकी हैं। तुम्हारे हाव भाव, तुम्हारे हाथ पैर, तुम्हारी आवाज़ की प्रतिध्वनि सब हमने सुरक्षित रखी है।
(4) ललित सुरजन से मेरी पटती नहीं थी लेकिन पटती भी थी। जब मैं कांग्रेसमय होता तो ललित वामपंथी हो जाते। जब मैं वापमंथ की आलोचना करता। तो ललित मुझे जनसंघी कहते। जब मैं गांधी की तारीफ करता। तो ललित मुकाबले में नेहरू को खड़ा करते। लेकिन हमारी दिमागी रसमयता किसी आॅरकेस्ट्रा की सिम्फनी की तरन्नुम की तरह सबको सुनाई पड़ती रहती और समय सबका बीतता। बातों का खजाना तो रमेश नैय्यर के भी पास था। इस आदमी ने कच्ची उम्र में गृहस्थी और परिवार का बोझ ढोया। वह पाकिस्तान पर बोलने के लिए अथाॅरिटी था। पंजाब पाॅलिटिक्स पर भी। रमेश ने बहुत पापड़ बेले। कई अखबारों में रहा। मन उसका कहीं नहीं लगा। लेकिन नौकरी उसकी लगती रही। कई झमेले किए। जब मैं सरकारी नौकरी में था, तो रमेश के कहने से मैंने एक बहुत तीखा लेख कांग्रेस सरकार की आलोचना करते लोहिया के समर्थन में लिखा था। उस कारण मुझे नौकरी के सिलसिले में सरकारी नोटिस भी मिली थी। हम और रमेश हमउम्र थे। मेरी उम्र के सबसे निकट वही था। हमारे ऊपरी सोच एक जैसे, लेकिन अन्दर कहीं अलग अलग।
( जारी रहेगा)।

You may also like

managed by Nagendra dubey
Chief editor  Nagendra dubey

Subscribe

Subscribe our newsletter for latest news, service & promo. Let's stay updated!

Copyright © satatchhattisgarh.com by RSDP Technologies 

Translate »
Are you sure want to unlock this post?
Unlock left : 0
Are you sure want to cancel subscription?
-
00:00
00:00
Update Required Flash plugin
-
00:00
00:00
Verified by MonsterInsights