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कहां हो रायपुर काॅफी हाउस?

कनक तिवारी

by satat chhattisgarh
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Where is Raipur Coffee House?

रायपुर के पुराने कॉफी हाउस के इर्द-गिर्द पत्रकारों, साहित्यकारों, कला, संगीत प्रेमियों की अद्भुत कहानियां हम यहां पर प्रस्तुत कर रहे है। वरिष्ठ अधिवक्ता, कानून विद, साहित्यकार कनक तिवारी जी के यादों के झरोखों के माध्यम से ।

काॅलेज, क्रिकेट और आलराउंडर

(22) दिलचस्प किरदार तो खलीकुर रहमान का भी रहा है। काॅलेज की क्रिकेट टीम का आलराउंडर था। बहुत सधे कदमों से छोटा रन अप लेते स्पिन गेंदबाजी कर लेता। टीम मुसीबत में हो तो बैटिंग आॅर्डर में कुछ नीचे होने के बावजूद स्कोर को कुछ ऊंचा पहुंचाने की कोशिश करता। समूह वार्तालाप में खलीकुर शुरुआत में तो चुप ही रहने में यकीन रखता। वह हर एक गाल बजाने वाले को मौका देता। बहुत इत्मीनान के साथ अपनी बारी की प्रतीक्षा करता। जब बोलता तो बातें कम करता। एकालाप की मुद्रा में दूसरों की आंखों में आंखें गड़ाकर अपनी आवाज के साथ कथन को भी सामने वाले के जेहन में धंसा देने के करतब ही करतब दिखाता। बाद में अपनी दाढ़ी बढ़ाकर मुल्ला मौलवी कहा गया। लेकिन काॅलेज की उसकी चाल में फक्कड़ किस्म की प्रौढ़ता होती थी। लंबे लंबे डग भरना। बहुत तेजी से नहीं चलना। लेकिन सजग हिरण की तरह चारों तरफ निगाहों की चौकड़ी भरना। वाह रे खलीकुर तेरी याद तो आती है! क्रिकेट में तो सिक्स डाउन आता था रजनीकांत चावड़ा। बाॅलिंग भी करता था। उसे अपने बड़प्पन का कोई दिखाऊ गुरूर नहीं था। काॅफी हाउस की टेबल पर हर एक को सुनना। ठिठोली करना, उन्नत होकर खुश रहना और अपनी मौजूदगी का अहसास इस तरह कराना कि जिस महफिल में रजनी न हो। उसे तो अधूरा ही कहा जाता। पता नहीं वर्षों से उसकी खोज खबर नहीं रही है।

Where is Raipur Coffee House?

(23) साइंस काॅलेज की क्रिकेट टीम याने फस्ट इलेवन के कप्तान हेमेन्द्र मानिक रहे हैं। एक अद्भुत स्पिनबाज। अच्छे अच्छे बैट्समैन को उनकी लेग स्पिन की बाॅल आउट कर देती। मैं तो क्रिकेट का दुश्मन था। राजनांदगांव का होने के नाते हम हाॅकी के अलावा और कोई खेल नहीं जानते थे। मैं हेमेन भाई से कहता। यार लेग स्पिन का तो हिन्दी में मतलब यही है कि तुम लंगी मारते हो। वे बातचीत में बहुत मीठे लेकिन क्रिकेट में बहुत पक्के थे। हम साथ साथ काॅफी पीने बैठते। तो काॅफी नहीं पीते थे। मैंने कभी उनको पान खाते या सिगरेट पीते नहीं देखा। जबकि उस धाकड़ क्रिकेट टीम में विनोद पेंढारकर जैसा बैट्समैन फिर वन डाउन राजकुमार मुखर्जी था जो नील हार्वे की याद दिलाता था।

प्रथम देखे 

कहां हो,रायपुर काॅफी हाउस?

(24) मजा यह हुआ कि 1995-96 में मैं मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन था। प्रदेश के सरकारी हवाई जहाज में एक शानदार नया पायलट रखा गया है। ऐसा मुझको मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने बताया था। मैं मुख्यमंत्री के साथ उसी हवाई जहाज में दिल्ली जाने भोपाल एयरपोर्ट पर पहुंचा। लोगों से बातचीत करते मुख्यमंत्री ने मेरा परिचय पायलट से कराया। बोले ये हमारे नए पायलट हैं। इनसे मिलो और पायलट से परिचय कराते वक्त मेरा नाम पता नहीं बताया। वह पायलट मेरी ओर बेहद विनम्रता से बढ़ा। मुझे सलाम किया। फिर मैंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया। उसने भी हाथ बढ़ाया। वह लगभग अदब से अपनी आंखें नीचे कर रहा था। अब मुझसे रहा नहीं गया। भोपाल में मैं बहुत सरल लोकसेवक के रूप में नहीं जाना जाता था। जुबान की रोटी खाता था।

Where is Raipur Coffee House?

जो तीखी और तल्ख तो थी। लल्लो चप्पो नहीं करती थी। लाग पलेट भी नहीं। मैंने उससे सीधे छूटते कहा। क्यो बे पायलट तुममें इतनी तमीज नहीं है कि मुझ जैसे प्रमुख नेता से हाथ मिलाए। दुआ सलाम भी करेगा। पैर नहीं छू सकता था? साले जिसने तुझको पायलट बनाया। क्रिकेट खेलना सिखाया। साथ में लिखता पढ़ता नहीं तो पास भी नहीं हो सकता था। उसका पैर क्यों नहीं छू सकता? पायलट भौंचक! दिग्विजय सिंह परेशान! बोले आप क्या कह रहे हैं? मैंने कहा आप नहीं जानते। यह गधा पायलट नहीं है। यह राजकुमार मुखर्जी है हमारा राजू। हमारा जिगरी यार।

इसकी आंखों पर पर्दा क्यों है? उसके बाद तो राजू मुझसे बुरी तरह लिपट गया। बोला साले डराता है। मेरी नौकरी पर खतरा आ जाता। बेहद शानदार शख्सियत का मेरा दोस्त स्वभाव से बहुत मीठा था। अशोक कुमार और जाॅय मुखर्जी का चेहरा मिलाकर कोई चित्रकार चित्र बनाता तो वह राजकुमार बन जाता। क्या बैटिंग करता था? लेकिन काॅफी हाउस में सबकी बातें बेहद मासूम चेहरा बनाकर सुनता रहता था। राजू हमसे बिछड़ क्यों गया यार! वक्त इतना निर्मम क्यों होता है?

द्वितीय देखे 

कहां हो, रायपुर काॅफी हाउस?

(25) फिर सुभाष याने बाडू कुलकर्णी जिसके एक बार 37 रन देकर 7 विकेट लेने पर मैंने उसके लिए एक लंबा निबंध लिख दिया था। उसे नकल मारकर प्री प्रोफेशनल पास कराने के यज्ञ में मेरी भी समिधा की भूमिका अहम थी। रमा जरगर भी था। डाॅक्टर भागवत का साला फनसालकर भी। बाद में खिलाड़ियों की इलेवन का कप्तान बाईस नंबर बीड़ी का मालिक हो गया। हेमेन भाई की दुकान पर बैठकर उनको जब मैंने पहली बार बीड़ी पीते देखा। तो मैं अपनी यादों में क्लीन बोल्ड हो गया। इनमें जितने लोग भी काॅफी हाउस जाते, बात करते या हुल्लड़ करते तो क्रिकेट इनके जेहन में छाया रहता।

हमारे दोस्त ललित किशोर मिश्र अम्बिकापुर से आए थे। काॅफी हाउसिया महफिल में भी बैठे बैठे बात करने लगते। शायद 1960 का बंबई टेस्ट था। भारत बैटिंग कर रहा था। लंच तक 108 रन बिना विकेट खोए बने थे। पंकज राय और शायद मांजरेकर ओपनिंग में गए थे। क्रिकेट खिलाड़ियों की महफिल में मासूम ललित ने पूछा। ‘इसमें नाडकर्णी का स्कोर कितना है?‘ फिर जो हंसी का बगूला उठा। तो ललित क्लीन बोल्ड हो गए। उनको पूरी भारतीय क्रिकेट टीम में नाडकर्णी को छोड़कर और किसी का नाम मालूम कहां था?

(26) अशोक चौहान उर्फ मुन्ना भैया हमारे अंगरेजी के प्रोफेसर ही नहीं थे। उन्होंने शगल में ‘इलेवन डक‘ नाम की टीम बना ली थी। जिसमें मुझे बतौर ट्वल्फथ मैन बतौर रखा गया था। अगर कोई आउट होता तो डक बनाने के लिए मैं मैदान में आ सकता था। काॅफी हाउस का रिश्ता मुन्ना भैया के कारण बहुत प्रगाढ़ हो गया था। वे तो एक साथ क्रिकेट, सिगरेट और शेक्सपियर भी साध सकते थे। मुन्ना भैया धाकड़ थे। उनकी रोबदार मूछें, भारी भरकम आवाज, बड़ी बड़ी आंखें लेकिन उनमें एक साथ मुस्कान और दबंगई का काॅकटेल चेहरे पर फैलाते। तो लोग प्रभावित हो जाते। वे काॅफी हाउस के किचन में घुस जाते। वैसे भी उसका मुख्यालय जबलपुर में रहा है। तो सब उनको जानते थे। वे कहते मैं तुमको आॅमलेट बनाकर खिलाता हूं। और सच है उनका बनाया आॅमलेट भटूरे या पुए की शक्ल में मोटा मोटा गुदगुदा होता था।

(27) हम लोग साइंस काॅलेज में थे। छत्तीसगढ़ काॅलेज के दादाद्वय मोघे और रियाज मैदान की दुनिया में हर फन के माहिर थे। कोई तो खेल होता जो उनसे छूटता। दोनों आज मैदान पर हैं। याने सामने वाले के छक्के छूटेंगे। मोघे और रियाज छक्के लगाएंगे। इस तरह क्रिकेट के खेल की पौबारह हो जाएगी। चीनी नायडू, रामसजीवन, राम खिलावन, मधु थिटे, करनैल सिंह और जाने कितनी बड़ी दुनिया छत्तीसगढ़ काॅलेज अपने इतिहास और भूगोल में समेटे हुए रहा। वहां के मुझसे सीनियर रहे पंकज शर्मा अपने समय के असल स्टूडेंट हीरो थे। बोलने में तो पंकज का जवाब नहीं था। वह तो जैसे मंच के मुखिया की हैसियत में ही नैचुरल रह पाता था। पंकज ने कई झंडे गाडे़। रायपुर उसे कभी कैसे भूल पाएगा? वर्षों बाद जब पत्रकार के रूप में राष्ट्रपति वी. वी. गिरि के एनटूरेज में हिमालय की ओर गया। तो शायद वहीं कहीं सिक्किम के आसपास वह पहाड़ी की गोद में समा गया। पंकज के नहीं रहने की खबर सभी को विचलित कर गई। मुझे अब तक उसकी आंखें, उसका डीलडौल, उसकी आवाज, उसके हंसने की शैली कुछ भी तो विस्मरण नहीं हुआ। उसे पूरा जीवन मिला होता। तो जीवन को भी पता चलता कि एक छत्तीसगढ़िया बुद्धिजीवी कहां कहां फतह हासिल कर सकता है!

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