दुर्गा महाविद्यालय
1. हमारे काॅफी हाउस में जलवा तो दुर्गा महाविद्यालय का भी होता था। हालांकि कई दुर्गा जैसी हस्तियां निजी महाविद्यालय में आती थीं। जब शहर या आसपास के प्राध्यापक नियुक्त होते रहें और तबादले का सवाल नहीं हो। तब स्थायित्व के कारण एक सुरक्षा आंतरिक रूप से हासिल हो जाती है। आत्मविश्वास भरा मनुष्य खुद का विस्तार भी करने देखने, हासिल करने लगता है। यूं तो दुर्गा महाविद्यालय में प्राचार्य एम. वी. रामचंद्रन बहुत विद्वान व्यक्ति थे, लेकिन थे पारंपरिक किस्म के नैतिक शिक्षाशास्त्री भीड़ से अलग थलग। उप प्राचार्य रणवीर सिंह शास्त्री बाद में प्राचार्य बने और रिटायर होकर चुनाव लड़कर मंत्री भी। वे भी अपनी प्रायवेसी सम्हालते रहते थे। आलिम फाज़िल उस दस्ते में प्रोफेसर यतेन्द्र कुमार गर्ग, मधुसूदन दुबे, बालचंद सिंह कछवाहा, शुभेन्दु मजूमदार, वीरेन्द्र मिश्र, विजय चक्रवर्ती, गुणवंत व्यास, चंद्रमाधव मुखर्जी, विभु खरे जैसे एक से एक अध्यवसायी शिक्षकों की सोहबत मिलती थी।
2. यतेन्द्र कुमार मेरे ही विषय अंगरेजी के प्राध्यापक थे। उन्हें मैं एक रोल माॅडल के रूप में आज भी याद करता हूं। यतेन्द्र कुमार का सम्मान बाद की पीढ़ियों में वाचाल और कर्तव्योन्मुख नहीं रह पाया। वे रायपुर के ऐसे बुद्धिजीवी थे जिनका अपने अंगरेजी साहित्य के विषय के परे भी हिन्दी साहित्य के भी सबसे बड़े विद्वानों में अज्ञेय, पंत, हजारी प्रसाद द्विवेदी और न जाने कितनों से लिखा पढ़ी का संबंध रहा था। चिट्ठियों के आने जाने का भी। उन्होंने काफी शोध भी करवाया था। हम उनके मित्र होते हुए भी शिष्यवत सुनते रहते। यह क्लास काॅफी हाउस में ज्यादा लगती। क्योंकि वही तो कबीर चौरा या जहां सुनो भाई साधो होता रहता। यतेन्द्र कुमार ने अंगरेजी के महान कवियों वड्र्सवर्थ, शेले, कीट्स और न जाने कितने रहे होंगे जिनकी छंदबद्ध कविताओं का हिन्दी में छंदबद्ध अनुवाद किया था। वह भी बिना मूल कविता को क्षतिग्रस्त किए। काश ऐसा होता कि उनकी बैठकी की सभी बातें उस वक्त कभी रेकाॅर्ड करने की सुविधा या अक्ल होती। तो आज की पीढ़ी को मालूम होता कि शाइस्तगी के साथ साहित्य की उस्तादी का मतलब क्या होता है।
हिन्दी कविता के रहस्य लोक
3. बालचंद सिंह कछवाहा की बनावट निहायत गांधीवादी, विनोबावादी खादी की धोती कुरते वाली थी। उनका रामकृष्ण मिशन से गहरा लगाव भी था और स्वामी आत्मानन्द से निकटता भी। ऐसी तमाम शोहरत के बावजूद बालचंद भैया ने आखिर साहसिक रूप से अंतर्जातीय प्रेम विवाह एक पहलवान से मुकाबला करते निपटते भी किया। वे मेरे जिगरी दोस्त प्रोफेसर जवाहरसिंह कछवाहा के बड़े भाई होने से बहुत आत्मीय हैं। मूड में आते तो हमें हिन्दी कविता के रहस्य लोक में ले जाते। सिखाने लगते। वहां हमें लगता कि आॅक्सीजन कम हो रही है। हिन्दी के अध्यापकों के साथ यही तो है कि उनके अंदर व्याकरणसम्मत हिन्दी बहुत होती है। अंगरेजी डरी हुई सी दूर भागती है जब वे उसका राष्ट्रवादी उच्चारण करते हैं। इस सिलसिले में चुटकुला याद आ रहा है। एक बेहद सुपठित जज ने एक वकील की अंगरेजी सुनकर कहा था। ‘वकील साहब! आप ऐसी अंगरेजी क्यों बोलते हैं जिससे लगे कि आप अंगरेजों से बदला ले रहे हैं।‘
काॅफी हाउस पब्लिक प्लेस
4. विभु कुमार तो हमारा बहुत अच्छा दोस्त था। शारीरिक कद में तो छोटा सा लेकिन उसमें ऊर्जा और वाणी विकराल थी। धीरे और कम तो बोल ही नहीं सकता था। सप्तम स्वर में बोलता। हमने उसे टोका भाई। ‘काॅफी हाउस पब्लिक प्लेस है। यहां धीरे बोलो। अपनी टेबल के बाहर आवाज क्यों जानी चाहिए। कुछ तो कंट्रोल करो।‘ तो झल्लाकर बोलता। ‘तुमने रेलवे कम्पार्टमेन्ट में ओरियंट का पंखा लगा देखा है? रेल के डिब्बे में पंखे के लिए कोई रेगुलेटर नहीं होता। काॅफी हाउस में मैं विभु कुमार ओरियंट का पंखा हूं। फुल स्पीड में हवा दूंगा। धीरे नहीं बोलूंगा।‘ कभी कोई उसे चिढ़ाता। ‘अरे यार। तू पत्रिका निकालता है ‘हस्ताक्षर।‘ और कोई नाम नहीं सूझा?‘ विभु जवाब देता। ‘अबे! मेरी पत्रिका का नाम तो हस्ताक्षर है। अगर तू निकालेगा तो उसका नाम ‘अंगूठा‘ रख लेना।‘ वह असमय चला गया। वह काॅफी हाउस में उसी तरह था जैसे तालाब के शांत जल में कोई कंकड़ या पत्थर मार दे। तो लहरें उठने लगती हैं। फिर थोड़ी देर में शांत हो जाती हैं। विभु हम जैसे लोगों की धड़कनों में ज़्यादा जिंदा है बजाय यादों में।
5. इसी टोली में साइंस काॅलेज से हमारे साथी राजेन्द्र मिश्र आते। तो जैसे पतझड़ में बहार आ जाती। बेहद कायदे और सलीके के कपड़े लत्ते और अपनी जुल्फों के मामले में बहुत सावधान और बंग कन्या से ब्याह के कारण मिश्र बहुत रोमांटिक किस्म के प्रचारित थे। एक से एक सुंदर रंगीन और छींटदार पोशाकें पहनने में राजेन्द्र मिश्र का जवाब नहीं था। वे बेहद अच्छे वार्तालापकार भी थे। धीरे धीरे संभल संभलकर और फिर अचानक तरन्नुम में आकर राग भैरवी की तरह ऊंची स्वर लहरी में भी बोलने लगते। वह एक दिलचस्प नजारा होता। हिन्दी के अध्यापकों के बहुमत की टीम कबड्डी के खेल की तरह माहौल को जीवंत बनाए रखती।
6. दुर्गा महाविद्यालय से ही प्रोफेसर हरिशंकर शुक्ल अपना मीठा स्वभाव लेकर आते रहते थे। वे हरि ज्यादा थे, शंकर कम थे। सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलसचिव परमानन्द बाजपेयी के दामाद और साहित्यकार तथा नए नए आई.ए.एस. होकर रायपुर जिले में पदस्थ अशोक वाजपेयी के बहनोई थे। मसखरे किस्म के लोग वहां काॅफी हाउस में आते ही कहते थे। ‘आइए विश्वविद्यालय के दामाद और आई. ए. एस. साहित्य के बहनोई।‘ शुक्ल हंसकर टाल देते और कभी इस बात का बुरा नहीं मानते।
डाॅ. नरेन्द्रदेव वर्मा
7. हिन्दी का ही एक अध्यापक पी.एच.डी. कर रहा था। उसकी गाड़ी अभी गंतव्य स्टेशन पर पहुंची नहीं थी। रास्ते में कहीं पहुंचा होगा। वह अपनी डिग्री लिखता एम. ए. पी एच. डी. (प्रीवियस)। साइंस काॅलेज के अंगरेजी विभाग के हम अध्यापकों ने हिन्दी की पी.एच.डी. का इतना हंगामा मचा रखा था कि हमारा दोस्त डाॅ. नरेन्द्रदेव वर्मा शिक्षक होने के बावजूद इन चीजों का बुरा नहीं मानता था। हंसता रहता था। उन्हीं दिनों साइंस काॅलेज के हिन्दी विभाग में तबादले पर प्रमोद वर्मा आए। हम सब लोगों का परिचय हुआ। मेरी ओर पहुंचकर हाथ मिलाया और तपाक से बोले। ‘कनक जी! मैं हिन्दी का केवल एम. ए. हूं। पी.एच.डी. नहीं हूं।‘ फिर तो हंसी का बगूला उठा। प्रमोद वर्मा जब तक रहे, विद्वता के मामले में हिन्दी और अंगरेजी विभाग को मिलाकर ‘एकमेवो द्वितीयो नास्ति‘ रहे। हम अंगरेजी के अध्यापकों से वे बाकायदा नोकझोंक करते। समीक्षकों को लेकर जिरह और विचार विमर्श किया करते थे। प्रमोद जी इतने महत्वपूर्ण थे जैसे एक अकालिया सिक्ख सवा लाख के बराबर कहलाता है। साइंस काॅलेज में तब प्रोफेसर डी. के. जैन भी थे। हिन्दी विभाग के इस अध्यापक को अपने कक्ष में आते देखते ही हम लोग छींटाकशी करते थे। अपभ्रंश काव्य उनका विषय पी.एच.डी. का था। हम कहते ‘आओ अपभ्रंश! और हंसी का माहौल आबाद हो जाता।
सरस्वती की सेवा करने का दस्तूर मिटता जा रहा
प्रोफेसर यतेन्द्र कुमार, शुभेन्दु मजूमदार, मैं या बाद में विमल अवस्थी भी हिन्दी प्रहार के हमलों से बचते हुए उनकी आंखों में मृगतृष्णा घोलते। यही तो उन दिनों था कि अंगरेजी में द्वितीय श्रेणी का एम. ए. होना बड़ी उपलब्धि माना जाता है। अंगरेजी में फस्ट डिवीजन तो मिलता ही नहीं था। अलबत्ता अंग्रेजी का इस मामले में हिन्दीकरण हो गया है। हिन्दी वालों को लेकर हम कटाक्ष करते रहते ‘यार! तुम लोग पहले पी. एच. डी. कर लेते हो। उसके बाद ही क्या एम. ए. करते हो?‘ अजीब चुहलबाजी का दौर था। आज क्या ऐसा होता होगा? अब तो रायपुर में हमारे वालों जैसा काॅफी हाउस ही नहीं है। तो कैसे होगा? आज के अध्यापकों के बारे में मेरी कोई खास राय नहीं है। इन दिनों सरस्वती की सेवा करने का दस्तूर मिटता जा रहा है। वे दिन और थे। जब क्लास में पढ़ाना किसी यज्ञ की तैयारी के बराबर होता रहता था। उन शिक्षकों की याद भी लोग करते हैं। जैसे मैं करता हूं।,,,,