बस्तर केंद्रित; चुनाव श्रंखला (आलेख – 10)
चुनावी नतीजों का बस्तर के परिप्रेक्ष्य मे विश्लेषण कई कारणों से आवश्यक है। पहला यह कि कोई गलतफहमी न पाले कि बस्तर का मतदाता गंभीर मामलों के प्रति संजीदा नहीं है या यह न समझ बैठे कि क्षेत्रीय मुद्दों पर प्रत्याशी खडे नहीं किये गये और वे सफल नहीं हुए। अतीत के चुनाव परिणामों पर हम चर्चा कर चुके हैं कि कैसे मुचाकी कोसा से ले कर महेंद्र कर्मा तक निर्दलीय प्रत्याशियों ने मुद्दा आधारित राजनीति का सार्थक प्रदर्शन करते हुए राष्ट्रीय राजनैतिक दलों को पराजित कर दिया था। इसलिए हमेशा यह प्रश्न उठता है कि नक्सलवाद ने बस्तर के चुनावों को कभी प्रभावित क्यों नहीं किया? वह लोकसभा हो या कि विधानसभा के चुनाव, नक्सली उसे कभी प्रभावित नहीं कर सके। यदि उनके आकवान में प्रभाव होता तो चुनाव परिणामों में उसका असर हमें दिखाई पडना चाहिए था? महाराजा प्रवीर का प्रभाव था, उन्होंने चुनावों को प्रभावित किया; बाबा बिहारी दास का प्रभाव था, उन्होंने चुनावों को प्रभावित किया, महेंद्र कर्मा का प्रभाव था, उन्होंने चुनावों को प्रभावित किया लेकिन नक्सली केवल पोस्टर रंगते ही रहा गए, आखिर क्यों?
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नक्सलियों का बस्तर में कोई जनाधार नही है, इसे समझने के लिए बस्तर का चुनाव पर्याप्त है। इस प्रकरण में हमें वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव को एक केस स्टडी की तरह लेना चाहिए। इन चुनावों में आम आदमी पार्टी की ओर से प्रत्याशी थी सोनी सोरी, जोकि वर्तमान में सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका में हैं। यह जानकारी सार्वजनिक है कि पार्टी को सोनी सोरी के नाम पर बहुत अच्छा चन्दा मिला जिसमें विदेशों से भी लोगों ने मोटी मोटी धनराशि भेजी थी। इस राशि और उसके इस्तेमाल पर प्रश्नचिन्ह लगाना मेरे आलेख का उद्देश्य नहीं है अपितु जो महिला आन्दोलन की वैश्विक प्रतीक बना दी गयी हो उसका अपने ही निवास क्षेत्र में जनाधार क्यों नहीं पन सका, इसपर तो बात होनी ही चाहिये। स्वामी अग्निवेश तथा प्रशांत भूषण जैसे प्रभावशाली लोगों ने नक्सलियों से अपील की थी कि आम आदमी पार्टी के इस उमीदवार का समर्थन करें। अर्थात प्रत्याशी के पास एक्टिविस्ट और ओपीनियन मेकर्स का बड़ा समर्थन था, जंगल के भीतर से समर्थन की गुहार भी थी तो भी ऐसा क्या हुआ कि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सोनी सोरी ठीक ठाक वोट पाना तो दूर रहा, अपनी जमानत तक नहीं बचा सकीं।
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पहले वर्ष 2014 के चुनाव परिणामों पर बात करते हैं, तत्पश्चात नक्सल प्रभाव और चुनाव की विवेचना करेंगे। इन चुनावों में बस्तर लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने पचास प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त कर अब तक की सबसे बडी जीत हासिल की किंतु ऐसा नहीं कि अन्य पार्टियाँ एकदम हाशिये पर ही चली गयी हों। कॉग्रेस के दीपक कर्मा को चौंतीस प्रतिशत मत प्राप्त हुए जबकि भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की बिमला सोरी को साढे चार प्रतिशत मत मिले। ऐसा क्यों हुआ कि बस्तर के आम मतदाता ने सोनी सोरी को वोट देने के स्थान पर उससे अधिक नोटा के बटन दबाये। बस्तर में नोटा मत पडे 38772 अर्थात कुल प्राप्त मतों का पाँच प्रतिशत, जबकि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सोनी सोरी को केवल सोलह हजार नौ सौ तीन मत प्राप्त हुए अर्थात महज दो प्रतिशत। यदि आम आदमी पार्टी को प्राप्त मतो का विश्लेषण किया जाये तो ये मत किसी भी राजनीतिक दल के जनाधार में सेंध नहीं लगाते अपितु उससे भी कम हैं जितने कि बस्तर में अनेक निर्दलीय प्रत्याशी बिना प्रोपागेंडा के लड कर हासिल करते रहे हैं।
तो क्या यह निष्कर्ष निकाला जाया कि आम आदमी पार्टी बस्तर में कोई प्रभाव नही रखती? अब तक तो यही सत्य प्रतीत होता है लेकिन निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि आम आदमी नक्सलियों से इस चुनाव में समर्थन और दखल की जो अपेक्षा रखी गई थी वह नकारा सिद्ध हुई। बस्तर का आमजन जानता है कि उसके वोट की कीमत क्या है औरअ उसने प्रत्येक चुनाव में अपने बोध को स्पष्ट भी किया है। नक्सलवाद बस्तर के बाहर लोगों को कैसा भी दिखाई देता हो, बस्तर का वोटर इसे खारिज करता है।