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गणपति ही क्यों ? -शरद कोकास

by satat chhattisgarh
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भूमिका

देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी दर्शन शास्त्री रहे हैं । उन्होंने इतिहास पुरातत्व और मिथकों पर काफी काम किया है । उनका 600 पेज का ग्रंथ ‘लोकायत’ भी काफी प्रसिद्ध है जिसमें आदिम काल से लेकर अद्यतन लोक परंपराओं तथा संस्कृति पर उन्होंने अनेक लेख लिखे हैं। उनकी पुस्तक ‘लोकायत’ के एक खंड ‘गणपति’ का हमारे समय के सुप्रसिद्ध कवि कथाकार, विचारक ,दर्शन व मनोविज्ञान के अध्येता शरद कोकास ने लिप्यंतरण किया है । लोकायत यह ग्रंथ राजकमल प्रकाशन द्वारा 2005 में पुनर्मुद्रित किया गया है।

क्या आपको पता है गणपति शुरू से देवता नहीं थे

उन्हें विघ्न पैदा करने वाला देवता माना जाता था । उनका नाम भी गणपति नहीं था।

भारत के सामाजिक इतिहास के, विशेषकर प्राचीनकाल के इतिहास के प्रश्नों में कई कठिनाइयां हैं। जैसा कि सर्वविदित है, धार्मिक और पौराणिक दृष्टिकोण पर बहुत सामग्री है किंतु सामाजिक इतिहास की दृष्टि से अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इसलिए हम एक भिन्न बिंदु से शुरुआत करेंगे। यदि यह सच है कि धार्मिक विचार अंततः परिस्थितियों से बनते हैं तो धार्मिक विचारों, जिनमें ये भौतिक परिस्थितियां प्रतिबिंबित हैं का अध्ययन करके इन परिस्थितियों के संबंध में कुछ पता लगाना हमारे लिए सम्भव होना चाहिये।(46.38)।

जैसाकि मार्क्स ने कहा है, अतीत की वास्तविकता, पौराणिक परिकल्पनाओं में प्रतिबिंबित होती’ (4.170) इसलिए पुरातन वास्तविकता तक पहुंचने के लिए परिकल्पनाओं का अध्ययन कर सकते हैं।*

गणपति सदा से देवता नहीं थे

आइए किसी देवता के जन्म की कथा से प्रारंभ करें। और चूंकि हमारी मूल रुचि लोकायत अर्थात् साधारण जन के विश्व दृष्टिकोण की समस्या में है इसलिए हमें देवता भी ऐसा चुनना चाहिए जिसका नाम विशेष रूप से जनसाधारण से जुड़ा हुआ हो। वह देवता है गणपति जिसका
अर्थ है लोगों का देवता। (शिक्षा ओ सभ्यता. 144)

गणपति की कथा को यहां हमने कई कारणों से चुना है। इससे हमें प्राचीन भारत की जनजातियों का कुछ आभास मिलेगा और साथ ही इस पक्ष पर भी प्रकाश पड़ेगा कि जनजातीय व्यवस्था के भग्नावशेषों पर राज्य व्यवस्था का उदय कैसे हुआ होगा । वैसे दार्शनिक पक्ष से भी यह महत्व ही नहीं है क्योंकि,गणपति सदा से देवता नहीं थे कम से कम आधुनिक अर्थ में तो नहीं प्राचीन पौराणिक कथाकारों और नियम बनाने वालों की दृष्टि में भी गणपति कोई श्रेष्ठ स्थान नहीं था। वह तो बहुत बाद में देवता बने और जिस प्रक्रिया से वह देवत्व को प्राप्त हुए वह उसी प्रक्रिया का सैद्धांतिक प्रतिबिंब थी जिससे राजसत्ता का उदय हुआ।

संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित राजसत्ता का उदय वर्गीकृत समाज से पूर्वकालीन आदिम साम्यवाद के अवशेषों पर हुआ, उसी प्रकार मानव चेतना में आध्यात्मिक विचारों का प्रादुर्भाव, आध्यात्मिकता से पहले के काल के आदिम विचारों के अवशेषों पर हुआ ।

वास्तव में हम गणपति से यह मानने के लिए प्रेरित होते हैं कि आध्यात्मिकता से पूर्व के काल की विचार-धारा भौतिकवादी थी या कम से कम आदिम भौतिकवादी, यानी लोकायत थी और वह भी उन्हीं अर्थों में जिन अर्थों में हमने इसे समझा है।

भगवान गणेश और गणेश चतुर्थी

लेकिन अकेले गणपति ही देवता नहीं थे। इसलिए यदि आध्यात्मिक मूल्यों के विकास की प्रक्रिया, जिस रूप में हम इसे समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, वैध थी तो यही प्रक्रिया अन्य देवताओं के अस्तित्व में आने के इतिहास के लिए भी वैध होनी चाहिए। यह सत्य है।

गणपति ही क्यों ?

इसलिए गणपति की बजाय हम किस अन्य देवता, शिव अथवा कृष्ण की कथा भी ले सकते थे। या फिर प्राचीन वैदिक देवता बृहस्पति की कथा भी उठाई जा सकती थी जिसे परंपरा से ही प्राचीन भारत में भौतिकवादी दृष्टिकोण से संबद्ध माना गया है। बाद में भले ही इस संबंध के वैचित्र्य को छिपाने के लिए बड़ी चतुराई से गल्प कथाओं का उपयोग किया गया हो।

किंतु गणपति की जीवन कथा की खोज करने के कई लाभ हैं। उनके देवत्यपूर्व काल के संबंध में पर्याप्त सामग्री है। और इससे जनजातीय समाज व्यवस्था के साथ उनका सीधा संबंध जुड़ता है। क्योंकि गणपति का अर्थ था गणों अथवा साधारण जनों का मुखिया या नायक और जैसाकि हम देखेंगे, गण का अर्थ था जनजातीय समूह, यद्यपि हमारे आधुनिक विद्वानों ने इस शब्द का बहुधा गलत अर्थ लगाया है।

वैसे भी गणपति की कथा में काफी विशिष्टता है। भारत की देवकथाओं में विचित्र संदिग्धता और अनेकार्यता के कारण, शिव (99. 343) तथा स्वयं बृहस्पति का भी नाम गणपति था ।

गणपति और बृहस्पति के नाम की समानता के लक्षण ऋग्वेद (ii. 23. 1) में भी मिलते हैं। यहां तक कि ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में कहा गया है कि वैदिक मंत्र ‘गणनामत्व आदि ब्राह्मणास्पति या बृहस्पति के लिए संबोधित किया गया। (12. 122)

इससे एक दिलचस्प बात उभरती है

यदि इस पुरानी बात में सचमुच कोई तथ्य है कि प्राचीन भारत में भौतिकवाद के साथ बृहस्पति का कोई संबंध था, और जैसाकि वैदिक साहित्य में संकेत मिलता है, यदि गणपति और बृहस्पति नामों को एक दूसरे से बदला जा सकता था, और फिर यदि गणपति शब्द इसलिए बना कि वह व्यक्ति गणों का नायक था तो क्या हम यह मानने के लिए प्रेरित नहीं होते कि वर्गीकृत होने से पहले के आदिम समाज और प्राचीन युग के भौतिकवादी दृष्टिकोण के बीच कोई संबंध था।

कुछ भी हो गणपति हमें प्राचीन भारतीय दर्शन की ओर आकृष्ट करते हैं क्योंकि कई दार्शनिक मतों के साथ उनका संबंध था । विलसन ने गण को किसी दार्शनिक मत या धार्मिक संप्रदाय का नाम बताया है। इस मत के स्वरूप का आभास संभवतः परोक्ष प्रमाणों से मिल सकता है। (12. 343)

गणपति के कई अन्य नाम थे। इनमें से दो नाम थे लोकबद्ध और लोकनाथ। पहले का अर्थ था लोगों का मित्र और दूसरे का लोगों का रक्षक। इसमें सांकेतिक शब्द है लोक यानी साधारण जन । लोकायत नाम भी इसी लिए बना था क्योंकि साधारण जनों ‘लोक’ में प्रचलित ‘आयत’ था। इसलिए लोकायत विचारों के साथ लोकबंधु का संबंध होना कोई बहुत असंभव बात नहीं है ।

गणपति तेरे कितने नाम

लोकायत संबंधी बचीखुची सामग्री के पुनरावलोकन से यह धारणा बनती है कि कम से कम तांत्रिकवाद के साथ तो उसका गहरा संबंध था । क्या हमें तांत्रिकवाद के साथ गणपत्ति का संबंध भी कहीं दिखाई देता है ? वास्तव में कई रूपों में यह संबंध देखने को मिलता है।॥

तांत्रिक साहित्य में गणपति पचास से अधिक वैकल्पिक नामों से संबोधित हुए हैं। इसके अतिरिक्त ._

आनंदगिरि के ‘शंकर विजय’ में कई गणपत्य संप्रदायों अर्थात गणपति के अनुयायियों का वर्णन है (जब. »५)। हमारी रुचि विशेष रूप से ‘उच्छिष्ट गणपति’ के अनुयायियों में है। इनका जो वर्णन आनंदगिरि ने किया है वह गुणरत्न द्वारा किए गए लोकायतिकों के वर्णन से बहुत भिन्न नहीं है। दोनों में स्वच्छंद यौन संभोग क्रिया एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। वास्तव में आनंदगिरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘उच्छिष्ट गणपति’ के अनुयायी, और कोई नहीं, केवल वामाचारी यानी तांत्रिक थे ।

प्राचीन भारत के दाशंनिक मतों के साथ, या विशेषकर प्राचीन भारतीय दर्शन में भौतिक वादी वृत्ति के साथ गणपति का यह संबंध परोक्ष , और कहीं-कहों अति क्षीण हो सकता है कितु यह अवास्तविक नहीं है। यदि हम गणपति अथवा लोकबंधु या लोकनाथ के विचित्र इतिहास का, कम से कम सामान्य रूप से अस्थाई पुनर्निर्भाण कर सकें तो संभवत: इन उपरोक्त बातों के महत्त्व को सही ढंग से समझ पाएंगे।

गणपति का अर्थ

गणपति संबंधी पौराणिक कथाएं बहुत जटिल और दुर्बोध हैं कितु इस नाम का शाब्दिक अर्थ बहुत सरल है। यह है गण और पति यानी गणों का नायक या रक्षक। इसमें निहित धार्मिक
महत्व कितना था यह एक संदेहास्पद प्रश्न है। गणपति का दूसरा समानार्थंक शब्द है ‘गणेश’ यानी ग़णों का ईश अथवा देवता । कितु छठी शताब्दी में गणपति को गणनायक और वराहमिहिर भी कहा जाता था (ब्‌. सं. ४५. 5)। जिसका अर्थ था किसी जन समुदाय या पौर संघ का मुखिया।

और फिर देवता शब्द का जो अर्थ हम लगाते हैं वैसा कुछ भी, ‘वाजसनेयी संहिता’ या “ऋग्वेद में प्रयुक्त गणपति शब्द में नहीं है। मोनियर विलियम्स ने कहा कि इन ग्रंथों में गणपति का अर्थ
केवल किसी वर्ग या सैन्य दल या समुदाय का नायक था (99.343)। महिधर ने मोनियर विलियम्स से बहुत पहले, ‘वाजसनेयी संहिता” पर अपने भाष्य में इस नाम की व्याख्या की—‘गणनाम गणरूपेण पालक’ अर्थात जो गणों या सैन्य दलों की रक्षा करता है (आन वाज. सं. >छत. 9 )। तांत्रिक साहित्य में गणपति या गणेश के पचास वैकल्पिक नामों में एक नाम गण था [विश्वकोश (बं) ४. 202 ] | शायद विलसन ने भी इसी आधार पर कहा कि गणेश के कई नामों में से एक नाम गण था (99. 343) । गण शब्द में देवता सूचक कुछ नहीं था।

गणपति एक विपत्ति

यह सब बातें अपने आपमें तो दिलचस्प है कितु गणपति की सबसे महत्वपूर्ण बात उनके नामों में नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि गणपति के प्रति भावनाओं में बड़ा विचित्र परिवर्तन हो गया ।

पहले तो गणपति को कष्ट ओर विपत्तियां लाने वाला माना जाता था और बाद में वह सद्भाव ओर सफलता का देवता बन गए और भावनाओं तथा आस्थाओं में इस परिवर्तन की कहानी, गणपति के देवत्व तक पहुंचने की भी कहानी है।

हम सदा यही समझते रहे हैं कि गणपति केवल मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले देवता हैं । लेकिन प्रत्यक्षतः यह भावना तो बाद में पहले वाली भावना पर थोपी गई । पहले तो गणपति को विपत्तियों का अवतार माना जाता था। यह विचार बहुत पहले पांचवीं शताब्दी में विद्यमान था और आमतौर पर कहा जाता है कि ‘गृद्य सूत्र’ उसी में लिखे गए। प्रथम तो यह याद रखना है कि कुछ अन्य प्राचीनग्रंथों की भांति महाभारत” में भी एक की बजाय कई गणपतियों की कल्पना की गई थी ।

‘यहां गणेश्वरों या गणपतियों और विनायकों का प्रतिनिधित्व है” वे संख्या में बहुत अधिक हैं और सत्र उपस्थित हैं (72.47) । कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन्हें विनायक कहा गया वे वैसे ही थे जैसे गणपति।

‘गृह्य सूत्रकाल’ में यह गणपति या विनायक केवल भय तथा तिरस्कार की भावना उत्पन्न करते थे। ‘मानव गृह्यसूत्र’ में कहा गया । इनसे आक्रांत व्यक्ति मिट्टी के ढेले तोड़ता है घास काटता है अपने शरीर पर आलेखन करता है और उसे स्वप्न में जल सिर मुंडे आदमी, ऊंट, सूअर, गधे आदि दिखाई देते हैं और उसे ऐसा लगता है मानों वह हवा में उड़ रहा हो, और चलते समय उसे आभास
होता है जैसे कोई उसका पीछा कर रहा है। (॥.4)

यह सब मनोव॑ज्ञानिक. भ्रम के लक्षण थे जिन्हें उन दिनों भूत पिशाच से आक्रांत होने के परिणाम समझा जाता था ।

किंतु गणपतियों के दुष्कृत्य केवल यही नहीं थे । ग्रंथ में आगे वर्णन है कि किस प्रकार विनायकों के कारण शासन करने की योग्यता रखते हुए भी राजकुमारों को राज्य नहीं मिलता। सभी आवश्यक गुणों से संपन्न होते हुए भी कुमारियों को पति नहीं मिलते । संतान उत्पन्न करने की क्षमता होते हुए भी स्त्रियां बांझ रहती हैं । अन्य स्त्रियों की संतानों की मृत्यु हो जाती है।

यही नहीं योग्य और विद्वान अध्यापक को छात्र नहीं मिलते और छात्रों की शिक्षा-दीक्षा में व्यवधान आ जाता है । व्यापार और कृषि में विफलता का मुंह देखना पड़ता है। उस समय के मानव के सीमित सुखों को देखते हुए, विपत्तियां इससे अधिक क्या हो सकती थीं । गणपति को अमंगल का जीता जागता रूप माना जाता था और गणपति के संबंध में यह धारणा बहुत समय तक वनी रही होगी ।’मानव सूत्र’ से कई शताब्दियों के अंतर पर याज्वल्क्य द्वारा लिखी संहिता में इसी को प्रेषित किया गया ।

याज्ञवल्क्य ने प्रारंभ में कहा कि रुद्र और ब्रह्मा ने बाधाएं उत्पन्न करने के लिए विनायक को यबणों का मुखिया (गणानाम्‌ आधिपत्ये) नियुक्त किया । उससे आक्रांत व्यक्ति स्वप्न में देखता है कि वह डूब रहा है, लाल कपड़े पहने हुए सिर मुंडे लोग हैं, मांसाहारी पशुओं की सवारी कर रहा है, चांडालों, गधों, ऊंटों आदि के साथ वास कर रहा है, अपने शत्रुओं से दूर भागने का प्रयत्न कर रहा है, कितु ऐसा न कर सकने के कारण उनके चंगुल में आ जाता है। उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है, किसी भी उद्यम में विफल हो जाता है और अकारण ही खिन्ततता का अनुभव करता है। गणपति से आक्रांत होने से राजकुमारों को राज्य नहीं मिलता । ($.27] और आगे. भावानुवाद)

इसके बाद शेष भाग वही है जो “मानव गृह्य सूत्र’ में है। ‘मानव गृद्य सूत्र” के बाद और “याज्ञवाल्क्य स्मृति” से पहले, ‘मनु स्मृति’ ग्रंथ लिखा गया । मनु (.64) ने निर्देश दिया कि जो लोग गणयज्ञ करते हैं उन्हें अंत्येष्टि भोज में सम्मिलित न होने दिया जाए। गणयज्ञ का क्या अर्थ था ? पुराने भाष्यकार गोविंदराज ने इसे गणपति के अनुयायियों का यज्ञ बताया है। कितु : गणपति के प्रति बदलते हुए विचारों के कारण आधुनिक विद्वानों को यह सीधी सरल व्याख्या –
स्वीकार करने में कठिनाई हो रही है। इसलिए वे जानना चाहते हैं कि मनु का तात्पर्य वास्तव में क्या था ? कितु स्वयं मनु भी उन दिनों की प्रचलित भावनाओं को ही व्यक्त कर रहे थे। एक श्लोक (वी. क्यू. 93-2.475) है कहा जांता है कि इसे मनु ने ही लिखा है और इसमें गणपति को दलित वर्गो और शूद्रों का देवता बताया गया है। यह ब्राह्मणों के देवता शंभु कत्रियों के देवता माधव के स्पष्ट रूप से विपरीत है।

मनु के अनुसार शूद्र केवल अन्य लोगों के उत्तरे छ्कुए कपड़े ही पहन सकते थे और दूसरों का जूठन खा सकते थे (४.25) | इसलिए तो नहीं कर सकते कि मनु के हृदय में शूद्वों के देवता गणपति के अनुयायियों के प्रति आदर भाव रहा होगा । इसलिए गण यज्ञ के प्रति मनु का तिरस्कार भाव युक्तिसंगत ही है। कितु मनु से पहले कात्यायन ने इस गण यज्ञ के संबंध में रोचक संकेत दिए हैं (काव्यायन श्रौत सूत्र, उएप-.2) । उनकी व्याख्या के अनुसार गण यज्ञ इस प्रकार की उपासना क्रिया नहीं थी जैसी कि हम समझते हैं : यह बंधुओं ‘भातृनाम्‌” और मित्रों सखिनाम्‌” द्वारा मिलकर सामूहिक रूप से किया जाने वाला अनुष्ठान था।

 

सुप्रसिद्ध दर्शनशास्त्री देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘लोकायत’ के ‘गणपति’ खंड से प्रस्तुत है उनके विस्तृत विवेचनात्मक लेख का यह प्रथम भाग । इसे पढ़कर आप नई जानकारियों से समृद्ध हो सकेंगे ।

( राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक “लोकायत” (अनुवाद बृज शर्मा) से साभार

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