गणपति ही क्यों ? भाग 2 -शरद कोकास

विघ्नकृत , विघ्नेश, विघ्नराज, विघ्नेश्वर,गणपति

गणपति के कुछ सुप्रसिद्ध नामों के बारे में हम अधिकृत या अधअधिकृत साहित्य में व्यक्त की गई इन प्रारंभिक धारणाओं के सम्बन्ध में अच्छी तरह समझ सकते हैं । ये नाम हैं विघ्नकृत , विघ्नेश, विघ्नराज, विघ्नेश्वर इत्यादि । इन सबका शाब्दिक अर्थ है विघ्न डालने वाला किन्तु बाद में विकसित विचारों के प्रभाव के अधीन इन नामों के शाब्दिक अर्थ की अनदेखी कर दी जाती है और सामान्यतः आधुनिक विद्वान यह मानना चाहते हैं कि इन नामों का अर्थ था देवता जो कठिनाइयों और विघ्नों के समय में मनुष्य की इनसे पार पाने में और सफलता प्राप्त करने में सहायता करता है ।

जैसा कि मोनियर विलियम्स ने कहा “यद्यपि गणेश बाधाएँ उत्पन्न करते हैं वह उन्हें दूर भी करते हैं इसलिए सभी कार्यों के आरंभ और सभी प्रकार की रचनाओं का आरंभ करने से पूर्व ‘नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय’ शब्दों के साथ उनका स्मरण किया जाता है (99.343 ) इसका अर्थ है कि “मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ ।“

यह तथ्य तो सत्य ही है किन्तु यह वास्तविकता बदली हुई परिस्थितियों में है यानी ऐसा बाद में विकसित गणेश सम्बन्धी परिवर्तित भावनाओं के कारण हुआ । विघ्नकृत आदि शब्दों का अर्थ है विघ्न या बाधाएं उत्पन्न करने वाला । पहले जिन विधि सम्बन्धी पुस्तकों का उल्लेख किया गया है उनमे मूल अर्थ यही था । हमने देखा कि याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा है “ विनायक गुणों का देवता इसलिए बना कि वह बाधाएं उत्पन्न कर सके” ( कर्म विघ्न सिद्धार्थम ) और बौद्धायण के धर्मसूत्र ( एस ई बी xiv 254 ) में इस सम्बन्ध में निर्णायक बात कही गई है ।

गणपति को सीधे एक शब्द से संबोधित किया जाता था और वह शब्द था ‘विघ्न अर्थात बाधा’ । तो गणपति का अर्थ था बाधा । पौराणिक साहित्य तो हमें इससे भी आगे बढकर यह समझने के लिए प्रेरित करता है कि गणपति न केवल विघ्न उत्पन्न करने वाले थे बल्कि ऐसा करते हुए वे रक्त भी बहा देते थे ।

गणेश परशुराम युद्ध की कथा

ऐसा कहा जाता है कि गणपति के हस्तिशीश में केवल एक दांत रह गया था । इसी से उसका नाम ‘एकदंत’ पड़ा। और यह बचा हुआ एक दांत रक्त वर्ण था । तांत्रिक साहित्य में [विश्व कोश (बं.) v . 202] में इसका स्पष्टीकरण यह कहकर दिया गया है कि इस दांत के ऊपर उन शत्रुओं का रक्त लगा था जिनका संहार किया गया। कितु शत्रु कौन हो सकते.थे ? “ब्रह्मवैवर्त पुराण” (॥. 40) ने इसका उत्तरः एक बहुत ही रोमांचक कथा सुनाकर दिया कि किस प्रकार गणपति का दूसरा दांत खो गया था।

एक बार परशुराम और गणपति के बीच युद्ध हुआ था। परशुराम ने एक कुल्हाड़ा गणपति के ऊपर दे मारा । तह कुल्हाड़ा स्वयं गणपति के पिता ने ही बनाया था ।परशुराम ने जब कुल्हाड़ा मारा तो गणपति का एक दांत टूट गया। – ऐसी बात नहीं कि गणपति परशुराम के बराबर नहीं थे। क्योंकि ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि गणपति कुल्हाड़े का प्रहार सहन करने की क्षमता रखते थे, कितु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वह पिता द्वारा तैयार किए गए कुल्हाड़े को एक अशक्त अस्त्र के रूप में नहीं देख सकते थे । (09- ।3.60)

इस कथा की रोचक बात परशुराम के स्वभाव से इंगित होती है। जैसा कि सभी जानते हैं परशुराम ब्राह्मणों अथवा पुरोहित वर्ग की सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे। क्या इसका तात्पर्य यह है कि अपने काल में या अपने समय में गणपति का प्रमुख शत्र पुरोहित वर्ग था ?

पहला भाग

गणपति ही क्यों ? -शरद कोकास

प्राचीन ब्राह्मण साहित्य में गणपति के प्रति जो तिरस्कार भाव है उससे तो इसी धारणा की पुष्टि होती है।

गणपति के प्रति यह घुणा केवल साहित्य के स्रोतों तक ही सीमित नहीं थी । गुप्त का कहना है कि गणपति की कुछ प्रतिमाओं में उन्हें बहुत भयावह दानव के रूप में दिखाया गया है और
यह इस बात का संकेत है कि प्रारंभ में गणपति के प्रति किस प्रकार की धारणाएं थीं (शिक्षा
और सभ्यता 44) । वास्तव में गणपति संबंधी प्रारंभिक शिल्प भिन्ने प्रकार का था।

उनको भोंडी नग्तता और साथ ही उनका आभूषण रहित होना इस बात का आभास देते हैं कि तब तक वह साधारणजन के स्तर से ऊपर नहीं पहुंचे थे । (26 xix ) यह सब बातें सत्य हैं कितु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण वे प्रतिमाएं हैं जिनमें गणपति के प्रति विरोधी और तिरस्कारात्मक भाव स्पष्ट रूप से झलकते हैं।

बंगाल में पत्थर की बनी हुई ऐसी मूर्तियां पाई गई हैं जिनमें गणपति को भृकुटितारा
के पदमासन के नीचे या पर्णएश्वरी के कमल सिंहासन के नीचे पड़ा हुआ दिखाया गया है (वही. 37 .8 )। कमल सिहासन के नीचे पड़े हुए गणपति के हाथ में तलवार और ढाल होने से यह संकेत मिलता है कि उन्होंने संघर्ष किए बिना आत्म समर्पण नहीं किया था।

इसको भी देख ले

भगवान गणेश और गणेश चतुर्थी

इसके अलावा तिब्बत की कुछ कांस्य प्रतिमाओं में गणपति को महाकाल के चरणों के नीचे दबा हुआ दिखाया गया है (वही. 43) । ऐसा माना जाता है कि वह महाकाल नियम और व्यवस्था के देवता हैं।

चीनी लेखक और यात्री यी-त्सिंग ने वर्णन किया है कि भारतीय बिहारों या मठों के द्वार पर आमतौर पर एक देवता की मूर्ति होती थी–जिसके हाथ में सोने की थैली थी और इस देवता का नाम महाकाल (बौद्ध देवता) था (27.161 ] ।

मंगोलिया के तानाशाह अल्तात खान ने इस महाकाल को छोड़कर अपने राज्य में अन्य सभी प्रतिमाएं जला डाली थीं (वही) । इसलिए ये सभी बातें इस बात के प्रमाण हैं कि महाकाल का संबंध अभिजात्य वर्ग और शासक वर्ग से था।

इसके अलावा मंजुश्री द्वारा गणपति को पददलित करने के दृश्य वाली मूर्तियां भी बहुत
दुर्लभ नहीं है (26.43) | संभवत: इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रतिमा एक ऐसे देवता की मिली है जिसका नाम विध्नांतक (वही) था और जिसका सीधा अर्थ है विघ्नों को नष्ट करने वाला या
बाघाओं को पार करने वाला।

इस देवता के पैरों के नीचे गणपति का होना केवल यही अर्थ रखता है कि वह विपत्तियां उत्पन्न करता है। नेपाल की पुरानी लोक कथाओं से भी इस बात
को पुष्टि होती है । ”

लोककथा

ओडियान का एक पंडित काठमांडू के पास बागमती नदी के तट पर कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त करने के लिए अनुष्ठान कर रहा था। गणेश ने इस बौद्ध को सिद्धि प्राप्त करने से रोकने के लिए कई अलंघ्य बाधाएं खड़ी की । यह पंडित आवश्यक क्रियानुष्ठान पूरे न कर सका। उसने इस संकट की घड़ी में बाधाओं का नाश करने वाले बौद्ध देवता का आह्वान किया जो विघ्नांतक का भयंकर रूप धर कर आए और गणेश को पराजित किया (वही) ।

यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि मंजुश्री, महाकाल और अन्य सभी तो बौद्ध देवी-देवता थे । इसलिए गणपति के प्रति उनकी घृणा हिंदू धर्म के प्रतिनिधि ग्रंथों मानव गह्मसूत्र याज्ञवल्क्य स्मृति के रचयिताओं की घृणा से कुछ भिन्न थी।

यह सत्य है कितु इससे यही पता चलता है कि
एक समय ऐसा था जब गणपति से बौद्ध भी उतनी ही घृणा करते थे जितनी कि हिंदू । जो भी हो, गणपति को अभी भी देवता के स्तर तक पहुंचना बाकी था ।

विध्नेश्वर से सिद्धिदाता

गणपति के संबंध में आश्चर्यजनक बात यही प्रतीत होती है कि रक्तरंजित हस्तिदंत वाले विघ्न उत्पन्न करने वाले गणपति अंततः देवता घोषित कर दिए गए जो मनोकामना सफल होने का वरदान देते थे। विध्नराज, सिद्धिदाता बन गए। स्वाभाविक ही, गणपति के प्रति इस परिवर्तित भावना को लोकप्रिय बनाने के लिए व्यापक प्रचारात्मक साहित्य की आवश्यकता थी।

गणेश अथवा गणपति को पुराणों में बहुत प्रमुखता दी गई। कम से कम दो प्रमुख पुराणों के काफी अधिक भागों में गणपति के वैभव का ही वर्णन किया गया है । ये पुराण हैं ब्रह्म वैवर्त पुराण और ‘स्कंद पुराण” (दोनों का गणेश-खण्ड)। यहां अतिशयोक्तियों का खूब खुलकर प्रयोग किया गया है। ‘स्कंद पुराण’ में गणपति को स्वयं ईश्वर का अवतार बताया गया । एक अन्य ग्रंथ “गणपति तत्व” (विश्व कोश ब॑ ए.202) में इससे भी अधिक कहा गया। इसमें गणपति को समस्त आध्यात्मिक सत्य वाले सर्वव्यापी ब्रह्म के बराबर बताया गया ।

गणपति की स्तुति के लिए कम से कम एक उप पुराण और एक छोटे उपनिषद की रचना की गई। ये ग्रंथ थे “गणेश पुराण” और “गणपति उपनिषद” । गणपति स्तुति कहां तक और कितनीं अतिशयोक्तिपूर्ण थी इसका उदाहरण “गणपति उपनिषद’ में मिलता है । इसमें गणपति को इस प्रकार संशोधित किया गया है :

यह विश्व उन्हीं में अभिव्यक्त है : पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश तुम्हीं ब्रह्म हो, तुम्हीं
विष्णु हो, तुम्हीं रुद्र हो ।
तुम त्रिमूर्ति से भी श्रेष्ठ हो। (26.5)

यहां विशेष ध्यान इस बात की ओर जाता है कि गणपति की कीर्ति के लिए किस प्रकार से
सोच समझकर उनके सुनियोजित प्रचार के लिए प्रयत्न किया गया है । ‘नारद पुराण में गणेश स्तोत्र में कहा गया है :

जो इसकी (गणपति स्तोत्र की) आठ प्रतियां बनाता है और उन्हें आठ ब्राह्मणों में बांटता
है उसे गणेश की कृपा से अपने अध्ययन का में तत्काल सफलता प्राप्त होना: निश्चित है।
(“वृहत्‌ स्त्रोत्र रत्नाकर”)

भारतीय शिल्पकारों में गणेश एक नए चरित्र के रूप में उभरने लगे। किसी अन्य द्वारा पद- दलित होने की बात तो छोड़िए, अब उन्हें बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत किया जाने लगा। हम देखेंगे कि गणपति के प्रति यह नया उत्साह अचानक ही उपजा ।

यह प्रचार अभियान भले ही बड़ा भव्य रहा हो, कितु इसके कुछ छिद्रों की छिपाया न जा
सका। इनका अध्ययन करने पर हमें पता चलता है यह कि सब बाद में सोचे गए भोंडे प्रयासों का परिणाम था। आश्चर्य जनक आकस्मिकता के साथ यह घोषित कर दिया गया कि गणपति, प्रज्ञा और विद्वत्ता के देवता हैं। यह ‘मानव गृह्यसूत्र” और ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ के रचयिताओं द्वारा गणपति के प्रति व्यक्त किए गए भावों के पूर्ण रूप से विपरीत रहा होगा । क्योंकि दोनों के अनुसार विनायक के कारण ही किसी विद्वान पंडित को कोई शिष्य नहीं मिलते थे और विद्यार्थियों को अपने अध्ययन कार्य में सभी प्रकार की बाधाओं और विध्नों का सामना करना
पड़ता था।

गणपति को अचानक ही जिन गुणों से सम्पन्न बना दिया गया उसे उचित बताने के लिए कोई देव कथा गढ़ने की स्वाभाविक आवश्यकता समझी गई । इसीलिए कहा गया कि केवल गणेश ही वेद व्यास द्वारा रचित और उच्चरित महाभारत को लिखने का अति कठिन कार्य करने योग्य थे । कितु विटरनित्स पहले ही सिद्ध कर चुके हैं कि यह प्रसंग भले ही महाभारत के कुछ संशोधित संस्करणों में आता है कितु चूंकि यह अन्य संस्करणों में नहीं है, इसलिए निश्चित ही यह रचना महाभारतोत्तर होगी अर्थात्‌ यह किसी स्थानीय विद्वान के मस्तिष्क की
उपज होगी जिसे बाद में येनकेन प्रकारेण महाभारत के साथ जोड़ दिया गया होगा (जे.आर. ए. एस. xxvii 47 और आगे)

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