महाकोशल के किस्से कहानियां और काॅफी
(11) कई गैरमनहूस लेखकों को हमने एक जैसा अपनी संगति का पाया। अब सब कुछ बिखर गया है। रिजवी परिवार का वह मकान जिसके किराए में रजबंधा का वह काॅफी हाउस था। टूट गया है। खत्म हो गया है। काॅफी हाउस से लगी ‘रायपुर बुक डिपो‘ किताब की दुकान हमारा आत्मालय थी। वह काॅफी हाउस के एक्सटेंशन काउंटर की तरह रहा है। कुंजबिहारी दुबे या कुंजू बाबू हमारे बौद्धिक पिता थे। वह हमारे राजनांदगांव के इन्कम टैक्स के शीर्ष वकील अटल बिहारी दुबे के छोटे भाई थे। उनकी दुकान में बैठकर दर्जनों किताबें उलटना पलटना, जबलपुर और महाकोशल के किस्से कहानियां सुनना, काॅफी पीना, घर गृहस्थी की तमाम बातों की उल्था करना। सब खत्म हो गया। हिन्दी के शीर्ष कवि रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल‘ के साथ साइंस काॅलेज से कुंजू बाबू की दुकान तक पांच किलोमीटर पैदल चला जाता था। प्राचार्य अंचल को तो किसी ओलंपिक प्रतियोगिता में मैराथन वाॅकिंग प्रतियोगिता के वास्ते भेजना चाहिए था। हाथ में सोंटा लिए, फिर पांच किलोमीटर साइंस काॅलेज तक वापसी। ऐसा भी किसी ने देखा, सुना, सहा, भोगा होगा, जो मैंने किया?
(12) ‘अंचल जी‘ तो कविता के महारथी थे। मौके बे मौके वक्त बावक्त कम से कम मुझे तो जाड़े के दिनों में ठंडे पानी जैसी कविताओं से नहलाते रहते थे। एक युवा प्राध्यापक प्राचार्य के बंगले में बैठकर चाय पकोड़ों का लुत्फ उठाते एक कान से सुनकर दूसरे कान से कविता को बेदखल कर दे। तो किसी के बाप का क्या बिगड़ता? एक दिन अचानक कुंजू बाबू की दुकान में बैठे। तो दोनों में जबलपुर की बातें होने लगीं। वह शहर मेरे लिए बिल्कुल नया और नामालूम था। अचानक किसी महिला प्राध्यापक का जिक्र आया। मैं आज संकोच के साथ लिख तो रहा हूं। लेकिन तब वहीं बैठे बैठे अंचल जी ने मेरी परवाह न करते हुए यानी मेरी नौजवानी की कुंजू बाबू से कहा। ‘अरे वह फलानी। वह महिला नहीं है। मात्रा है। मात्रा को शब्द के चाहे आगे लगाओ, चाहे पीछे लगाओ, चाहे ऊपर लगाओ चाहे नीचे लगाओ।‘ मैंने अदब और शर्मिंदगी के कारण आंखें नीचे कीं। लेकिन अंचल जी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। बोले साहित्य और मनुष्य को इस तरह भी पढ़ा जाता है।
(13) एक बार मैं अचानक प्राचार्य अंचल के घर गया। वे बाहर बरामदे में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। मुझसे पूछा। कैसे आए हो। उनकी कविता की एक प्रसिद्ध पंक्ति में तुरंत कहा। ‘मैं अप्रस्तुत चू पड़ा हूं।‘ अंचल जी हंसने लगे। हंसने तो मैं भी लगा। लेकिन मेरा कारण दूसरा था। अंचल के काव्य को लेकर हम दोस्त लोग बातचीत करते रहते थे। मेरे एक मित्र को टाॅयलेट में अक्सर कठिनाई होती थी। एक दिन अचानक वे वहां बैठे बैठे सफल हो गए। तो ‘अंचल जी की कविता की याद कर जोर से बोल उठे। ‘मैं अप्रस्तुत चू पड़ा हूं।‘ उनकी पत्नी दौड़ी आईं और बाहर दरवाजा खटखटा कर कहा। क्या हो गया है। उन्होंने कुछ नहीं कहा। बाद में मुझे यह किस्सा सुनाया था। मैं उसकी याद करके हंसने लगा था। मैंने मन ही मन कहा। ‘हर साहित्य और मनुष्य को इस तरह भी पढ़ा जाता है।‘
साहित्य, संगीत, कला, संतति, राजनीति और काॅफी
(14) उन्हीं दिनों हमसे कुछ वरिष्ठ लेकिन बेहद जिगरी दोस्त बनकर संस्कृत काॅलेज के सहायक प्राध्यापक श्याम किशोर श्रीवास्तव नियुक्त हुए थे। उनका घर मेरे घर के पास था। उनका ब्याह नहीं हुआ था। लिहाजा हमारी जिंदगी काॅफी हाउस में अपनी संभावित शादी की कल्पना में डूबी दिन भर बैठे साहित्य, संगीत, कला, संगीत, संतति, राजनीति और न जाने कितने विषयों पर डींग मारती रहती। मैं और श्याम किशोर श्रीवास्तव हमारे सहपाठी प्रसिद्ध संगीतज्ञ गुणवंत व्यास के कहने पर श्रीराम संगीत महाविद्यालय में संगीत की प्राथमिक कक्षा में भर्ती होने गए थे। मेरा आलाप सुनकर पंडित जोशी ने मुझे बाहर निकलने का हुक्म दिया। लेकिन श्याम किशोर पास होकर भर्ती हो गए। दस बारह साल के बच्चों के साथ बैठकर शास्त्रीय संगीत सीखने रियाज करने लगे। मैं श्रीराम संगीत महाविद्यालय की सीढ़ियों पर अपने मित्र गुणवंत व्यास द्वारा भी फेल कर दिया जाने से बैठा रहता। काॅफी हाउस में एक छोटा कमरा भी था। हम वहां उस वक्त पहुंचते, जब भीड़ नहीं हो। फिर उस छोटे कमरे में बैठकर वे अपना गर्दभ स्वर वाला रियाज दोहराते। उसे सुनकर मुझे उबकाई आने लगती और वेटर भी आकर उनसे कहता। ‘हाॅल थोड़ा डिस्टर्ब हो रहा है।‘ महीने भर बाद हुए प्राथमिक टेस्ट में श्याम किशोर फेल होकर महाविद्यालय से निकाले गए। काॅफी हाउस में उनकी शादी को लेकर उनसे दोसा, इडली खिलाने कहते। जैसे आजकल तारक मेहता का उल्टा चष्मा में जैसी हालत पोपटलाल की हो रही है। श्याम किशोर काॅफी हाउस से मुझे सपत्नीक खुद रिक्षा चलाते साइन्स काॅलेज तक तफरीह करा लाए थे। रिक्शे वालों को साइंस काॅलेज जाने चवन्नी मिलती थी। एस. के. ने एक रिक्शे वाले को एक रुपया पकड़ाकर घन्टे दो घन्टे के लिए वह रिक्षा किराए पर ले लिया था।
(15) काॅफी हाउस की बैठकी में कई दुर्धर्ष चरित्र के लोग भी अपनी मौजूदगी से छत्तीसगढ़ी नस्ल की क्षेत्रीय बौद्धिकता को भयभीत जैसा कर देते थे। दादा काॅमरेड सुधीर मुखर्जी बूढ़ापारा से धीरे धीरे चलकर काॅफी हाउस में दाखिल होते। मानो बौद्धिक वातावरण उनके केवल बैठने से छितरा जाता। वे अपने अंदाज में सिगरेट की धूनी में रमकर पीते रहते। गहरी सोचती आंखों से यहां वहां देखते। सुनते सबकी लेकिन क्रिकेट के ओवर की आखिरी गेंद पर छक्का मारने जैसी शैली में जब दादा बोलते। तो वहां माक्सवाद की क्लास खुलती। भारतीय राजनीति के तेवरों की। इंसान के सिस्टम द्वारा शोषण की। और सबसे बढ़कर निराशा में आस्था ढूंढ़ने की एक खोजी ललक। अपने खरखराते गले से मुखर्जी फतवा देने की शैली में बातें करते थे। वह फतवा लगता तो था, लेकिन होती उसमें नसीहत थी अर्थात कल को बूझने की यादध्यानी के अलावा आंखों पर भविष्य का चश्मा चढ़ाने की एक नायाब जुगत। (जारी रहेगा।)